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________________ 42 मं रोविसि थूलंसुहिं, तुहुं पुत्तय रुन्नउं अइ-घणेहिं । ससि-किरणुज्जलु गुण-नियरु, अवरो-वि लहेसहं तुज्जु वरु । काई ताय एउ बोल्लियउं, किं न जाणिउ अम्ह तणउं हियउं । १२४ (४२.१) कुलनारिहि फुडु एक्कु पइ, जिं कारण होइ महा - सई । जो पडिवन्नउं चित्तेण, आमरणउं सो ज्जि पइ मणेण । १२८ अन्नु न इच्छउं को -वि नरु, सो मेल्लवि नेमि - कुमारु वरु । वारिज्जइ सा सहियणेण, विलवंती सोय - महाभरेण । हले हले विहल नयण - जुउ, न-वि दिउ नेमि - कुमार- मुहु । जोव्वण- लच्छि असार सहि, जा भुत्तिय नेमिकुमारि न - हि । एवहिं सो जिण दु गइ ( ? ), एउ बोल्लइ हल - सहि रायमइ । लेविणु दिक्ख जिणिंदमय, जा सासय- सोक्ख - महा - फलय । १३२ वंदिउं जाइवि नेमि - जिणु, ता पत्तउ केवलनाणु पुणु । बोहेवि मेsणि - जीव- गणु, पुणु चडियउ उज्जिलि मि - खोडेवि सयलु वि कम्म - मलु, संपत्तउ सिद्धिहि मि- जणु । चविह-देव- निकाएहिं निव्वाण जत्त किय इंदेहिं । जो तहिं जायवि नमइ जिणु, सो मुच्चइ पावि भविय - जणु । कप्पूरई सिरिखंडेण, नव-कुंकुम- केसर-सुरहेण । | १३६ १४० खवलइ जो जिणवरह तणु, सो लहइ मणिच्छिउ सुहु मरणु । (४२.२) मालइ - कुसुमेहि सुरहेहिं, जो पूयइ नमिएहि इंदेहि | जो परिहावर वर - जुयलि, सो छिन्नइ दुक्ख - महा- कलि । निम्मल-कोमल- भरिएहिं, जो पहावइ कंचण - कलसेहिं । सो फुडु पावइ सिद्धि - सुहु, एउ लाडिए कहियउं सद्दु तुहुं । कहिसिउं सच्चु समासेण, जं पुच्छिउ लहे ( ? ) तरं भावेण । १४४ दाढा - भासुर - जीहालु, खर- नहर - भयंकरु पुच्छालु । केसर - कुरुल भयावणउ, संतासिय खुद्दोपद्दवउ । १३६. नेवाणं जत्त १३८. कपूरइं १४१. वर जवलि १४५. भयं पुंच्छालु १४६. केसरु कुरुलभावगर १४४. कहिसउं Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520510
Book TitleAnusandhan 1997 00 SrNo 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages126
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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