Book Title: Anusandhan 1997 00 SrNo 10
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 68
________________ 63 बिसत ऊठत हीडता करि एक तुम्ह तणु ध्यान रे जपमालीइं एक हीर हीर इति जपि लोक अभीधान रे हीर० ॥ ११२ ॥ हृदिभ्यंतर तुम्ह गुण लखीआ तुम्हसु अधीक सनेह रे वाट जोय जन तुम्ह तणी जिम बापीहा मेह रे हीर० ॥ ११३॥ चटपटी लागी तुम्ह गुरु विरहि तुम्ह विन काइ न सुहाय रे डुंगर घेणा पंथ वेगलो कहो कीम करी य मेलाय रे ॥ ११४॥ मोहन मुरत तुमतणी गुरु जोवा अलजइ अंखं रे । मन जाणिइ उडी मलां सुकरीय नहीं पंख रे हीर० गुरजी घणु तुम्हे रह्या गुजराति कां वीसारी तेह रे । खि एक बोल्या हइजे साथि न विसारी सजन जन दे रे हीर० ॥ ११६॥ ॥ ११५ ॥ गुरजी मनमाहि अमे जाणता तुझे सरक सुकूमाल रे । तीहा गये अवडु कीम कीधु कठपणु दयार रे । हीर० ॥ ११७ ॥ संघतणी अवि चंत करीनि पधारखं जुहारवा देवरे । 1 मन मनोरथ फलइ सहुना जिम करता तुझ पद सेव रे हीर० ॥ ११८ ॥ मनमांहि संदेसा भरीया ते कहसा अकांत रे । हवइ विहला पधारज्यो श्री तपगच्छपती अकांत रे । हीर० ॥ ११९॥ अधकी ओछी विनती लखाणी होय क्रीपाल रे । खमजयो गुरु गीरुआ अछो तुझइ बाल तणी ए आल रे हीर० दूहा विधु स्वामीमुख संवति वेद तनु आवास वर्षे चैत्रीपुर्णमा लेख लख्यो सोल्लास पूज्याराध्य भट्टारक श्रीहीरविजयसूरीस Jain Education International For Private & Personal Use Only ॥ १२०॥ ॥ १२१ ॥ www.jainelibrary.org

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