Book Title: Anusandhan 1997 00 SrNo 10
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 50
________________ 45 एहवो वृद्धवाद संभलाइ छे.' आ सिवाय पण अन्य अनेक सामाचारीओनी वातो आ पट्टकमां छे जे ध्यानथी पठनीय छे. आचार्य विजयमानसूरिनी गुरुपरंपरा - शिष्यपरंपरानो उल्लेख मळतो नथी. तेथी ए अंगे विशेष प्रकाश पाडी शकायो नथी. -x-xसंवत् १७४४ वर्षे कार्तिक सुदि १० शुक्रे। भश्रीविजयमानसूरि निर्देशात् । उ । श्रीलावण्यविजयगणिभिः सामाचारीजल्पपट्टको लिख्यते । सुविहित समवाय योग्यं ॥ श्रुत जीत व्यवहारने अनुसारिं तपागच्छनी सामाचारी सन्मार्ग छे । जे मार्टि वशेषावश्यक पन्नवजी प्रश्नोत्तरसमुच्चयछत्रीसजल्पादिकनें अनुसार आज सुधी तपागछमाहि श्रुतजीतव्यवहार विरुद्ध प्ररूपणा नथी प्रवर्ती । अनें कोइई विरुद्ध प्ररूपणा करी विचारितेहने ते समवायना आचार्योपाध्यायादिक वी(गी)तार्थ मिली सर्वसुविहित संमति उत्सूत्र प्ररूपणा दोष निवारिओ ते समंध प्रसिद्ध छे माटि तपागछ सुविहित सद्देहेवो ॥१॥ तथा गछाचारवृत्ति निशीथचूर्णि कल्पभाष्यादिकने अनुसारि जघन्यथी निशीथ पर्यन्त शास्त्रना कोविद थइ माया मृषावाद छाडी नि:शल्यपणे प्रवचनमार्ग कहे ते मार्टि तपागच्छनी वर्तमान पदस्थ गीतार्थ पिण सुविहित सद्देहवो ॥२॥ तथा कल्पभाष्य उत्तराध्ययन ठाणांग दशवकालिक उपदेशमाला पंचाशकादिकने अनुसारि सुविहित पदस्थनी आज्ञा लोपी गच्छथी जुदा थइ स्वेच्छाइं टोली करी प्रवर्ते अने सुविहितगच्छनां गीतार्थ उपरि मत्सर राखे, लोक आगि छता अछता दोष देखाडें एहवा पूर्वोक्तश्रुतें रहित द्रव्यलिंगी ते मार्गानुसारी न कहिइ तो गीतार्थ किम सद्दहिइ ॥३॥ ___ तथा ठाणांग उत्तराध्ययनादिकश्रुतव्यवहार श्री आणंदविमलसूरि .. प्रसादित सामाचारी जल्पादिक जीतव्यवहारने अनुसार सुविहितगच्छने सहवासे वर्तमानगच्छनायकनी आज्ञाइं योग वही -- - -- दिग्बंध प्रवर्तिते प्रमाण ॥४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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