Book Title: Anusandhan 1997 00 SrNo 10
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
View full book text
________________
चतुर चातुरी रंजित जनतासुविहित साधु सिंगार रे हीरजी० ॥ ७१।। भविक कमल वन खंड विकासन कमल बन्धु समान । दूरदूरिततिमिरभर टालइ गालइ मोहना मान रे हीरजी० ॥ ७२।। कामसुभट तइ हठ करी मार्यो क्रोध कीयो चकचूर । मायावेली अनमूलन उलट्य वल्लोल कल्लोल जलपूर रे
हीरजी० ॥ ७३।। प्रसन्नहदय करुणानु सिन्धु, बन्धुर जलधिगंभीर । वादि मानमतंगजकेसरी मेरुमहीधर धीर रे हीरजी० ॥७४॥ सेवक जन चिन्तामणि सगवड समीहित दान दात(ता)र । हणि कलियुग गुरु तुं अवतरिओ श्रीगौतम गणधार रे
हीरजी० ॥ ७५॥ श्रीविजइ दानसूरीश्वर पाटइं उदयो अविचल भाण । कर जोडी चतुर्विध श्रीसंघ मानइ तुम्ह तणी आण रे हीरजी० ॥७६॥
राग गोडी
दूहा हीरजी तुम्हगुण वेलडी विस्तरी भुवनभरपूर ।
तारामिस समान फूली फल तिहां चंद्रनइ सू ॥ ७७॥ धन ते श्रावक-श्राविका जे तुम्ह सुणइ वखाण ।
धन जे निरखई तुम्ह मुख प्रह उगमतई भाण ॥ ७८॥ परिमल तुम्ह गुण केतकी मन मोहन हो त्रिभुवन भुवन मझार । लाल मनमोहन हो मनमोहन हो श्रीहीरविजयलाल । मनमोहन हो सज्जननिज मस्तक वहइ म० ।
तुम्ह गुणकुसुम उदार लाल० ॥ ७९।। पंडित जन कंठई वहइ म० । जगगुरु तुम्ह गुणमाल लाल० । इन्द्राणी रासइ रमइ म० । मेरुकानन रसाल० लाल० ॥ ८॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126