Book Title: Anusandhan 1997 00 SrNo 10
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
View full book text
________________
33
सौवीर सागर सरित् सुत सारमेयाः संवित् समित् सकल सिल्हक सौविदल्लाः । स्वादः सदा सपदि सूद सूदः सरंडा:
स्वेदः स्वरः सवन सीवन सत्र सूत्रम् ॥ २१६ ॥ ७७
स्वामी समः समय सामज सामधेनी सोमाः समूह समवाय समुद्र सासि (मि ? ) । सीमन्त सीम सिम सून समान सूलाः सूक्ष्मं समूट सरट स्वन सानु सूनुः ॥ २१७॥ ७८
स्याल: श्र(शृ/स?) णि: सरणि सारथि सिक्थ सिक्थि (?) सार्था सहाचर समाज समीक सूर्याः ।
स्वैरं सरः सचिव सूचन सूचि सव्य
सेव्यानि सद्म सदन स्यद सूप सु (सूर्या: ॥२१८॥ ७९
सायं स्मितं सायक सक्थ सेतु
सिन्धुः त्सरु स्तुक् सहदेव सर्गाः ।
सेक - स्रजौ सेवक सेव सन्तः
सत्त्वं च सातिश्च सखा सुखं च ॥ २१९ ॥ ८०
सनातन स्यन्दन साधनानि संकार सौरेयक सर्ज सर्पिः ।
ससावरो सूनृत संकुलौ च
सर्वे च साक्षी सविता च सृक्वि ॥ २२० ॥ ८१
सैरन्ध्री च सिनीवाली सारङ्ग स्वप्न सांप्रतम् । स्नायुः स्नेहः स्नुही सद्यः सरघा सौरभं सभा ॥२२१॥ ८२
आदिदन्त्याः ||
वासा (स) रासारकासार कासारप्रसरासुराः । वेसवार: परिसरो मसूरः कुसुमानसम् ॥ २२२ ॥ ८३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126