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अनेकान्त
की, बोला-"देवानुप्रिया पाप जिनके दर्शन चाहते है, यथारूप स्थान ग्रहण कर संयम और तप से प्रात्मा को जिनके दर्शन आपके लिए पथ्य हैं, जिनके नाम-गोत्र आदि भावित करते हए विचरने लगे। चम्पानगरी के शृगाटकों के श्रवण से ही प्राप हष्ट-तुष्ट होते है, वे श्रमण भगवान् और चतुष्को पर सर्वत्र यही चर्चा थी-"श्रमण भगवान् महावीर ग्रामानग्राम विचरते हुए क्रमश: चम्पा नगरी के महावीर यहां पाये है, पूर्ण भद्र चैत्य में ठहरे है। उनके उपनगर मे पाये है और चम्पानगरी के पूर्णभद्र चैत्य में नाम-गोत्र के श्रवण से ही महाफल होता है। उनके साक्षात् मानेवाले है । यह सम्बाद आपके लिए प्रिय हो।" दर्शन की तो बात ही क्या देवानुप्रियो ! चलो, हम सब
भभसार पुत्र कुणिक उस प्रवृत्ति-निवेदक से यह सवाद भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करे। वह हमारे इस सुनकर अत्यन्त हर्षित हुआ। उसके नेत्र और मुख विकसित लोक और परलोक के लिए हितकर और सुखकर होगा।" हो गए। वह शीघ्रता से राज-सिंहासन छोड़कर उठा, तदन्नतर लोगोने स्नान किया, वस्त्राभूषणों से सुसज्जित पादुकाएँ खोली । पाचो राजचिन्ह दूर किये। एक साटिक हुए तथा मालाए धारण की। कुछ घोडो पर, कुछ हाथियो उत्तरासग किया। अजलिबद्ध होकर सात-पाठ कदम महा- पर व कुछ शिविकायो में प्रारूढ होकर तथा अनेक जनवृन्द वीर की दिशा मे मागे गया। बाये पैर को सचित पैदल ही भगवान् महावीर के दर्शनार्थ चले। किया । दाये पैर को सकोच कर धरती पर रखा । मस्तक प्रवृत्तिवादुक पुरुप ने कुणिक को यह हर्ष-सवाद को तीन बार धरती-तल पर लगाया। फिर थोडा-सा ऊपर सुनाया। राजा ने साढ़े बारह लाख · रजत मुद्राओ का उठकर हाथ जोडे । अजलि को मस्तक पर लगाकर 'नमो- 'प्रीति-दान' किया । तब भभसार पुत्र कुणिकने बलव्याप्त त्थुण' से अभिवादन करते हुए बोला-"श्रमण भगवान् पुरुष (सेनाधिकारी) को बुलाया और कहा-"हस्तिरत्न महावीर जी आदिकर है, तीर्थकर है यावत् सिद्ध गति का सजाकर तयार करा। चतुरागना सना के अभिलाषुक है। मेरे धर्मोपदेशक और धर्माचार्य है, सुभद्रा आदि रानियों के लिए रथोको तैयार करो । चम्पाउन्हे मेरा नमस्कार हो। यहाँ से में तत्रस्थ भगवान का नगरी का बाहर और भीतर से स्वच्छ करो। गलियो और वन्दन करता हूँ। भगवान् वही से मुझे देखते है।"
राजमार्गों को सजाओ। दर्शकों के लिए स्थान स्थान पर इस प्रकार वन्दन नमस्कार कर राजा पुन. सिहासना
मच तैयार करो। में भगवान महावीर की अभिवन्दना के
लिए जाऊगा।" रूढ हुआ। उसने प्रवृत्ति वादुक पुरुष को एक लक्ष अष्ठ सहस्र रजत मुद्रामो का 'प्रीतिदान' दिया और कहा
राजा के प्रादेशानुसार सब तैयारियां हुई । राजा
हस्तिरत्न हाथी पर सवार हुआ। सुभद्रा प्रभृति रानियाँ "भगवान् महावीर जब चम्पा के पूर्ण भद्र चैत्य मे पधारे,
रथो पर सवार हुई । इस प्रकार चतुरगिनी सेना के महान् तब मुझे पुनः सूचना देना।"
वैभव के साथ राजा भगवान् महावीर के दर्शनाथं चला । महावीर का चम्पा-प्रागमन
३ मूल प्रकरण में 'रजत' शब्द नही है, पर परम्परा से सहस्र किरणों से मुशोभित सूर्य आकाश में उदित
ऐसा माना जाता है कि चक्रवर्तिका, प्रीतिदान साड़े हुआ। प्रभात के उस मनोरम वातावरण में भगवान् महा
बारह कोटि स्वर्ण-मुद्रामो का होता है । वासुदेव का वीर जहाँ चम्पानगरी थी, पूर्णभद्र चंत्य था, वहाँ पधारे।
प्रीतिदान साढ़े बारह कोटि रजत-मुद्राओं का होता १ खड्ग, छत्र, मुकुट, उपानत् और चामर ।
है तथा माडलिक राजामो का प्रीतिदान साढ़े बारह २ णमोत्थुण समणस्स भगवग्रो महावीरस्स आदिगरस्स
लक्ष रजत-मुद्रामो का होता है। तित्थगरस्स' "जाब सपाविउ कामस्स मम धम्माय
-उववाई (हिन्दी अनुवाद), पृ० १३३ रियम्स धम्मोवदेसगस्स।
४ कुणिक राजा के वैभव, आडम्बर और अभियानवदामि ण भगवत तत्थगय इह गए, पासइ मे (मे से) व्यवस्था के विस्तृत वर्णन के लिए द्रष्टव्य प्रौपभगवं तत्थगए इहगय;-ति कटु वदह णमसइ ? पातिक सूत्र ।