Book Title: Anekant 1967 Book 20 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 11
________________ अनेकान्त राजा कोतिसिंह जौनपर वालों का सहायक बन गया था। सन् १४७८ में यह एक वीर पराक्रमी शासक था। इसने अपने पिता दर्शनशाह दिल्ली के बादशाह बहलोल लोदी से पराजित के राज्य को संरक्षित रखते हुए उसे और भी बढाने का होकर अपनी पत्नी और सम्पत्ति वगैरह को छोड़ कर यत्न किया था। यह दयालु, सहृदय और प्रजावत्सल था। भागा और भागकर ग्वालियर में राजा की तिसिंह की यह भी अपने पिता के समान जैनधर्म पर विशेष अनुराग शरण मे गया था। तब कीर्तिसिंह ने धनादि से उसकी रखता था। और उसने अपने पिता द्वारा प्रारब्ध जैन सहायता की थी और कालपी तक उसे सकुशल पहुँचाया मतियों की खदाई के अवशिष्ट कार्य को पूरा किया था। भी था। कीतिसिह के समय के दो लेख सन १६८ कविवर र इधू ने इसके राज्यकाल मे 'सम्यक्त्व कौमुदी या (वि. स. १५२५) और सन् १४७३ (वि. सं. १५३०) के श्रावकाचार की रचना की थी। उसमे कवि ने कीतिमिह मिले है । कीर्तिसिंह की मृत्यु सन् १४७६ (वि. सं. १५३६) के यश का वर्णन करते हुए लिखा है कि-"वह तोमर में हुई थी। अत: इसका राज्यकाल स. १५१० से १५३६ कुल रूपी कमलो को विकसित करने वाला मूर्य था और तक माना जाता है । दुर्वार शत्रुनों के संग्राम से प्रतृप्त था। भोर अपने पिता इसके राज्यकाल में होने वाला मूर्ति उत्खनन का के समान राज्यभार के धारण करने में समर्थ था । कार्यकाल मं० १५२२ से स. १५३१ तक का मिलता है। सामन्तों ने जिसे भारी अर्थ समर्पित किया था, तथा र्मवत् १५२५ की प्रतिष्ठित की कई मूर्तिया है जिन पर जिसकी यशरूपी लता लोकव्याप्त हो रही थी और वह प्रकित लेख में की तिसिह के राज्य का उल्लेख है । , उन मे उस समय कलिकाल चक्रवर्ती था।" मे पाठकों की जानकारी के लिए बाबा वावडी के दाहिनी राजा कीतिसिंह ने अपने राज्य को खूब पल्लवित एवं र का खूब पल्लावत एवं मोर पार्वनाथ की खडगामन मूर्ति के चरणभाग मे उत्कीर्ण विस्तृत किया था और वह उस समय मालवे के समकक्ष । समकक्ष लेख नीचे दिया जाता है। इसकी साइड मे ६ मूर्तिया और हो गया था । और दिल्ली का बादशाह भी कीतिसिह की भी है जिनमे कुछ पद्मासन और खड्गासन है। उनका कृपा का अभिलापी बना रहना चाहता था, परन्तु सन् मुग्व खडित कर दिया गया है १४६५ (वि. स. १५२२) मे जोनपुर के महमूद शाह के पुत्र हुर्शनशाह ने ग्वालियर को विजित करने के लिए श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादोमोघलाञ्छनम् । बहुत बडी सेना भेजी थी, तब से कीतिसिंह ने दिल्ली के जीयात्रलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ।। बादशाह बहलोल लोदी२ का पक्ष छोड दिया था और स्वस्ति सवत् १५२५ वर्षे चैत्र सुदी १५ गुरौ श्रीमूल १. तोमर कुल कमल वियास मित्तु, सघे सरस्वती गच्छे बलात्कारगणे श्री कुन्दकुन्दाचार्याम्नाये दुबार-वरि सगर प्रतित्तु । भट्टारक श्री प्रभाचन्द्रदेवा तत्पट्ट भट्टारक श्री पद्मनन्दिडूंगर निव रज्जघरा ममत्थ, देवा तत्प? भट्टारक श्री शुभचन्द्र देवा तत्प? भट्टारक श्री बदियण समप्पिय भूरि प्रत्थ । जिनचन्द्र यतीश्वरा; तत्प? भ० सिहकीर्ति ऋषीश्वरास्ते. चउराय विज्ज पालण प्रतंदु, षामुपदेशात् श्री गोपाचल पर्वताये श्री तोमरान्वये महाणिम्मल जसवल्नी भवण-कदु। राजाधिराज श्री कीर्तिसिंह विजय राज्ये प्रतिष्ठापकः श्री कलि चक्कट्टि पायड णिहालु, श्रावक बंशोद्भव गोलाराईति मजक. श्री शान्तिरस्तु तुष्टि. सिरि कितिसिघु महिवइ पहाणु ॥ रस्तु..... 'सदास्तु मे। -सावयचरिउ प्रशस्ति २. बहलोल लोदी देहली का बादशाह था। उसका संवत् १५२१ मे उक्त कोतिमिह के राज्यकाल मे राज्यकाल सन् १४५१ (त्रि० स० १५०८) से लेकर ग्वालियर के जसवाल कुलभूषण उल्हा साहुक ज्य० पुत्र सन् १४८६ (वि. म.१४४६) तक ३८ वर्ष पाया पद्मसिह ने अपनी चचल लक्ष्मी का सदुपयोग करने के लिए जाता है। २४ जिनालयों का निर्माण कराया और एक लाख ग्रन्थ

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