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क्रिया के साथ मन रहे यही यतना २३५, भावात्मक प्रमार्जन क्रिया ही यतनायुक्त २३६, क्रिया एक : दृष्टिबिन्दु तीन २३६, यतनाः
विसर्जित एवं समर्पित क्रिया २३९ । ३३. यत्नवान मुनि को तजते पाप-२
२४१-२५६ यतना का दूसरा अर्थ : विवेक २४१, साधु जीवन की तीन अनिवार्य प्रवृत्तियाँ-आहार, विहार, नीहार २४१, आहार करने के छह कारण २४१, आहार न करने के छह कारण २४४, विहार में सभी दैनिक क्रियाएँ गर्भित २४५, वाणी-विवेक २४६, धूर्त साधुओं का दृष्टान्त २४६, सिंह की झपट-यतना का दृष्टान्त २५१, कायिक क्रिया में निवृत्ति का मूल्य २५२, वाचिक क्रिया में निवृत्ति का मूल्य २५३, मौन के लाभ २५५, मानसिक क्रिया से निवृत्ति का मूल्य २५७, चिन्तन क्रिया से निवृत्ति का सरल उपाय २५७, प्रवृत्ति चाहे
थोड़ी हो पर हो उत्कृष्ट रूप से २५८ । ३४. यत्नवान मुनि को तजते पाप-३
२६०-२८२ साधु के निष्पाप जीवन का मूल : यतना २६०, अयतना (बेहोशी-मूर्छा) में ही पाप संभव, यतना में नहीं २६२, अयतनावस्था में प्रविष्ट पाप प्रवृत्तियाँ क्या करती हैं ? २६३, यतना का तीसरा अर्थ : सावधानी, अप्रमत्तता २६३, नचिकेता की आत्मज्ञान की साधना २६६, यतना कहाँ-कहाँ और किस प्रकार रखनी है ? २६८, आवश्यकताओं का औचित्य : यतना का मूल स्वर २७०, पांच मौलिक आवश्यकताएँ २७०, पाँचों इन्द्रियों की मौलिक आवश्यकताएँअनावश्यकताएँ २७३, मन की कृत्रिम आवश्यकताएँ और यतना २७३, यतना : मन की आवश्यकताओं पर चौकीदारी २७४, यतनाः आत्मसाक्षात्कार का मार्ग २७६, यतना का चौथा अर्थ : जतन (रक्षण) करना २७७, नियमों का भी जतन : यतना के द्वारा २७६, यतना का पांचवां अर्थ : प्रयत्न या पुरुषार्थ २८०, यतना का छठा
अर्थः जय पाना २८१। ३५. हंस छोड़ चले शुष्क सरोवर
२८३-३०५ स्वार्थी मनोवृत्ति का रूपक २८३, बहन के स्वार्थ का दृष्टान्त २८६, स्वार्थी लोगों के कारण संसार नरक बन जाता है २८७, घरघर में स्वार्थ का साम्राज्य २६०, लोकव्यवहार में स्वार्थदृष्टिपरायण जन २६१, स्वार्थतंत्र का बोलबाला २६१, स्वार्थ की मर्यादाअमर्यादा २६२, उदार भावना से कृषि-व्यवसाय आदि भी परमार्थ बन जाते हैं २६४, चार प्रकार के व्यक्ति २६६, अतिस्वार्थी व्यक्ति
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