Book Title: Anand Pravachan Part 09
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 15
________________ सुरक्षा करने पर ही कीर्ति फल प्राप्त होंगे १०२, कीर्ति यों सुरक्षित रहती है १०२, कीर्ति की सुरक्षा के लिए १०४, क्रोध कीर्ति को चौपट कर देता है— क्रोधी साधु का दृष्टान्त १०५, कुशीलसेवन से कीर्तिनाश - मुजराज का दृष्टान्त १०६, सुशीलता एवं सदाचार के अभाव में नैतिक-आध्यात्मिक उन्नति नहीं १०८, चरित्र-निष्ठता से ही कीर्ति प्राप्ति १०६ । २७. संभिन्नचित्त होता श्री से वंचित - १ 'श्री' का महत्व ११०, श्रीहीनता बनाम दरिद्रता १११, राजा भोज द्वारा दरिद्रता को दण्ड - दृष्टान्त ११२, भौतिक दरिद्रता कितनी खतरनाक ११५, श्रीसम्पन्नता किसको, किसको नहीं ? ११७, भौतिक दरिद्रता से आध्यात्मिक दरिद्रता भयंकर ११८, व्यावहारिक और आध्यात्मिक दोनों जगत में श्री की आवश्यकता ११६, 'श्री' के लिए सारे संसार का प्रयत्न १२१, श्री : विभिन्न अर्थों में १२२, कहाँ रहती है, कहाँ नहीं ? १२४, संभिन्नचित्त में सभी अयोग्यताओं का समावेश १२६, संभिन्नचित्त विभिन्न अर्थों में १२६, भिन्नचित्त का प्रथम अर्थ : भग्नचित्त १२७, संभिन्नचित्त का दूसरा अर्थ : टूटा हुआ चित्त १३०, संभिन्नचित : तुनुकमिजाज १३१ टूटा हुआ चित्त कुण्ठाग्रस्त भी १३३, श्री का मूल : अनुद्विग्नता १३४ । २८. संभिन्नचित्त होता श्री से वंचित -- २ भिन्नचित्त का तीसरा अर्थ : रूठा हुआ, विरुद्धचित्त १३५, दूषितचित्त व्यक्ति के लिए दुःखों की परम्परा १३७, रूठे को मनाना, टूटे को बनाना - बुद्धिमानी १३८, संभिन्नचित्त का चौथा अर्थ : व्यग्र या असंलग्न चित्त १४०, चित्त की एकाग्रता - सफलता की कुंजी - विभिन्न दृष्टान्त १४२, संभिन्नचित्त का पाँचवा अर्थः अव्यवस्थितचित्त १४६, अव्यवस्थितचित्त के दृष्टान्त १४८, संभिन्नचित्त का छठा अर्थ : अस्थिरचित्त १५१, वाल्टर स्कॉट का दृष्टान्त १५३, संभिन्नचित्त का सातवाँ अर्थ : असंतुलितचित्त १५५, एम. आर. जयकर का दृष्टान्त १५६ । २६. सत्यनिष्ठ पाता है श्री को-१ सत्य में स्थित कौन ? क्या पहचान ? १५६, सत्य का अन्वेषक अंधानुकरण नहीं करता १६३, सत्यनिष्ठ व्यक्ति निर्भय १६५, आत्मप्रशंसा के लोभी साधु का दृष्टान्त १६६, सत्य की त्रिपुटी १७०, Jain Education International ११०-१३४ For Personal & Private Use Only ११ १३५ - १५८ १५६-१७५ www.jainelibrary.org

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