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अमिट रेखाए
आचार्य भद्रबाह ने संघ के निवेदन को अस्वीकार करते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा----मैं इस समय महाप्राण ध्यान की साधना कर रहा हूँ। यह साधना बारह वर्ष में पूर्ण होगी । मैं इस साधना को बीच में नहीं छोड़ सकता। संघ मेरे इस कार्य में साधक हो, पर बाधक न बने।
दोनों श्रमणों ने आकर सघ को आचार्य भद्रबाहु के निर्णय से अवगत कराया। उसी समय संघ ने एकत्र होकर गम्भीर अनुचिन्तन के पश्चात् निर्णय लिया कि दुबारा दो साधुओं को फिर से भेजा जाय और उनसे कहा जाय कि जो आचार्य संघ के आदेश की अवहेलना करता है उसे क्या दण्ड दिया जाय । आचार्य भद्रबाहु यही कहेंगे कि उसे संघ से बहिष्कृत कर दिया जाय । तब उच्च स्वर से यही कहा जाय कि क्या भगवन् ! आप भी उसी दण्ड के भागी नहीं है। संभव है, इससे हमारी समस्या का समाधान हो जाएगा।
दोनों श्रमणों ने जाकर आचार्य को वही कहा। आचार्य असमंजस में पड़ गये। कुछ क्षणों के चिन्तन के पश्चात् आचार्य ने समस्या का समाधान करते हुए कहा-संघ महान है। वह मेरे पर अनुग्रह करे। मेधावी शिष्यों को मेरे पास भेजें । मैं उन्हें प्रतिदिन सात वाचनाएं दूंगा। प्रथम वाचना भिक्षाचर्या के पश्चात्, तीन वाचनाएं तीन काल वेला में और तीन वाचनाएं सायंकालीन प्रतिक्रमण के पश्चात् इस प्रकार संघ का कार्य भी सम्पन्न होगा और मेरी साधना में भी बाधा उपस्थित न होगी।
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