________________
११८
अमिट रेखाएं
सिरपर घोड़े दौड़ा दो। और अन्त में इसका सिर तलवार से उड़ा दो। जो आज्ञा की अवज्ञा करेगा उसे भी इसी प्रकार का दण्ड दिया जावेगा।
क्षणभर सभी स्तब्ध रह गये, कुछ भी निर्णय कर नहीं पा रहे थे ! यह क्या है ? दण्ड है या महादण्ड ! पाषाण हृदय हत्यारों का हृदय भी कांप उठा, सम्राट के निर्णय . को सुनकर मुनि के चेहरे पर क्रोध की एक भी रेखा नहीं थी। वहां शान्ति का अक्षुण्ण तेज था । मुह से वेदना का एक भी शब्द नहीं सुनाई दे रहा था, वहां तो यही शब्द सुनाई दे रहे थे।
"खामेमि सव्वे जीवा सव्वे जीवा खमंतु मे, मित्ती मे सव्व भूएस, वेरं मझं न केणई ।'
मैं सब जीवों को क्षमा करता हूं और वे सब जीव भी मुझे क्षमा करें। मेरी सब जीवों के साथ मित्रता है किसी के साथ भी वैर विरोध नहीं है।
मुनि मैरु की तरह अविचल खड़े थे, उपसर्गों को शान्त भाव से सहन कर रहे थे, क्रोध को प्रेम से जीत रहे थे। शरीर से रक्त की धारा बह रही थी, किन्तु हृदय से तो इससे भी अधिक प्रेम धारा बह रही थी। न राजा पर हृष था और न शरीर पर राग ही था। कर्म पटल दूर होते ही आत्मा केवल ज्ञान और केवल दर्शन के दिव्य प्रकाश से प्रकाशित हो गई।
दण्ड देने वाले हत्यारों के हाथों से तलवारें गिर पड़ी, क्षमा मूर्ति ! हमें क्षमा करना !
Jain Education InternationaFor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org