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| करुणामूर्ति
भगवान भास्कर अपनी स्वर्णिम रश्मियों के साथ व्योम पर आधिपत्य स्थापित कर अठखेलियाँ कर रहा था, चारों ओर भीष्म ग्रीष्म का साम्राज्य था।
एक महामुनि जिसका दमकता हुआ, चेहरा लम्बी ललाट, गौरवर्ण, वैभवपूर्ण उज्वल नयन, हँसता मुखड़ा जिसे देख नागरिक आश्चर्यान्वित हो रहे थे, यह क्या हो गया ? एक दिनकर तो आकाश में है, दूसरा पृथ्वी पर कहां से आ गया।
तप से कृशकाय होते हुए भी क्या तेज है इनके मुखड़े पर, इनकी तेजस्विता के सामने व्योम में विचरण करने वाला सहस्ररश्मी सूर्यदेव भी फीका मालूम हो रहा है।
वह महाश्रमण तो नीची दृष्टि किये हुये, चला जा रहा था, चुपचाप, अपने आपमें लीन होकर । एकाएक भव्यभवन का द्वार खुला, एक बहिन ने आवाज लगाई, महाराज कृपा कीजिए, आहार सूझता है।
श्रमण पहुँचा भोजनालय में, बहिन का कर कमल शाक
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