Book Title: Amit Rekhaye
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 130
________________ क्षमा मूर्ति ११७ ___ मेरे प्यारे योद्धाओं ! जाओ मुख्य राजपथ पर एक योगी जा रहा है, उसे पकड़ लाओ। कन्धे पर धनुष बाण लटकाए हुए हाथ में तलवारें लिए हुऐ अश्वारोही चल पड़े। ठहरिए, योगीराज ! कान खोलकर सुनिए, राजा की आज्ञा है; तुम्हें कैदी बनाएंगे। मुनि शान्त भाव से खड़े थे, मुख मंडल मृदु हास्य से आलोकित हो रहा था। जनता बोल उठी. अरे आतताइयों ! इस त्यागमूर्ति तपस्वी को क्यों कैदी बना रहे हो ? किन्तु किसकी हिम्मत थी जो राजाज्ञा को ठोकर लगाकर आगे बढ़ता । नगर में सर्वत्र हाहाकार मच गया । महान् अन्याय हआ है । एक निरपराध मुनि को राजसेवक पकड़ कर ले गये हैं । राजा तो इतना अच्छा है, किन्तु आज इसने यह क्या कर दिया है ? सैनिकों ने महाराज के सन्मुख मुनि को उपस्थित किया । महाराज ! यह है आपका अपराधी । सम्राट् रक्त पूर्ण नेत्रों से मुनि को देखता है। दांत पीसते हुऐ, मूछों पर हाथ रखते हुऐ, राजा दण्डक बोला-आज मैं इसे बड़ा दण्ड दूगा, तभी मालूम होगा इसे मेरे पराक्रम का। दण्डक की आंखें क्रोध से रंजित थी। सभी सेवक नतमस्तक खड़े हुए आज्ञा को राह देख रहे थे। ____ गंभीर गर्जना करते हुऐ दण्डक ने कहा--इस अपराधी को श्मशान में ले जाओ, इसके शरीर की चमड़ी उतार दो, गड्ढा खोदकर, इसके शरीर को उसमें गाड़कर इसके Jain Education InternationaFor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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