Book Title: Amit Rekhaye
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 129
________________ अमिट रेखाएं ये आँसू कैसे ? महारानी ने बात टालते हुये कहा-कहां है आंसू ? नाथ ! आपको यों ही भ्रम हो गया है। __ सम्राट ने खिड़की से बाहर मुह निकाला तो देखा, वीथिकाएं जनशून्य है, एक ही योगी उस दीर्घ पथ पर चला जा रहा है । मालूम होता है यह उसका प्रेमी है, मैं भी इसका प्रेमी हूँ. इसके रूप के सामने मेरा रूप तो दिन के चन्द्र के समान है । एक म्यान में दो तलवारें कभी नहीं रही है, आज ही मैं इसे क्यों नहीं परलोक पहुँचाएं, न रहेंगा बांस न बजेगी बांसुरी।। महाराज ! कहां चल दिए, जरा बात तो सुनकर जाइए ! सुन्दरी ! अभी नहीं, फिर कभी, यों कहते-कहते ही महाराज रंगभवन का त्याग कर, बाहर निकल गये। सुन्दरी स्तब्ध होकर देखती रह गई, यह रंग में भंग किस प्रकार हो गया, वह कुछ भी नहीं समझ सकी। ___ महाराज पधारिये ! सिंहासन को शोभित कीजिए। नहीं ! नहीं ! अभी मैं सिंहासन पर नहीं बैठेगा जब तक मैं अपने शत्रु का काम तमाम नहीं कर दूंगा, तब तक मुझे शांति नहीं ! राजा की गंभीर गर्जना से सैनिक कांप गये, सम्राट् ! आपके शत्रु कौन हैं, इस पृथ्वी पर ? आज्ञा दीजिए इन सैनिकों को, आज्ञा होते ही उसे जीवित ही कंद कर लाएं या उसका सिर काटकर लाएं। Jain Education InternationaFor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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