Book Title: Amit Rekhaye
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 127
________________ क्षमामूर्ति भूतल जल रहा था, ग्रीष्म की उष्णवायु मानव देह में सन्ताप पैदा कर रही थी। ग्रीष्म के ताप सन्ताप से बचने के लिए प्राणी अपने घरों में जा छिपे थे। जलते हुए मध्यान्ह में भी राजप्रासाद में शीतलता थी, सम्राट अपनी प्रधान महिषी के साथ बैठा हुआ रंगरेलियां कर रहा था, चन्दन की सुमधुर सौरभ से महल महक रहा था। बिखरे हये वैभव को देखकर अभिमान का समुद्र ठाठे मार रहा था। ___महारानी ने अपने सौहार्द व चातुर्य से महाराज को अपने वश में कर लिया था। हाथ में पान का बीड़ा लेते हुए महाराज ने कहामेरी हृदय साम्राज्ञी ! मैं आज तुझे अपने हाथों से पान खिलाऊँगा, मदिरा की प्याली तो तुम नहीं पीती हो, किन्तु पान खाओगी न, मुंह खोलो, पान खालो ! रानी ने भी हाथ बढ़ाया, लो महाराज ! इस तुच्छ दासी के हाथ का पान आप भी खालो न! मुंह में पान देती हुई रानी हंस पड़ी। Jain Education InternationaFor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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