Book Title: Amit Rekhaye
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 136
________________ शिष्यों की परीक्षा १२३ बिखेर दिये और स्वयं सन्निकट की झाड़ी में छिपकर देखने लगे। कुछ ही समय के पश्चात् तीनों शिष्य वहीं आ गये । प्रथम शिष्य कांच के टुकड़ों को लांघकर बिना संकोच आगे बढ़ गया । और दूसरे शिष्य के कदम शिथिल हो गये । वह सोचने लगा--ये तीक्ष्ण कांच के टुकड़े किसी राही के कोमल पैरों को क्षत विक्षत न बनादे अतः इन्हें मार्ग से हटा देना चाहिए, पर जाना दूर है, मार्ग लम्बा है । यदि इस तरह हटाता रहा तो कब घर पहुँच पाऊंगा, ऐसा सोच उसके कदम पुनः तेज हो गये। तीसरा शिष्य वहीं रुक गया, उसने अपनी पोथी-पत्रोंको एक तरफ रखा और ध्यान पूर्वक उन कांच के टुकड़ों को बीनने लगा। दोनों साथियों ने कहा-भाई ! यह क्या कर रहे हो ? जल्दी चलो, धूप चढ़ जाएगी। यों तुम कहां तक रास्ता साफ करते रहोगे। उसने कहा-भाई यह तो मेरा कर्तव्य है, उसकी वात पूरी भी न होने पाई थी कि आचार्य झाड़ी में से निकल आए । तीनों शिष्य आश्रम से चार मील की दूरी पर आचार्य को देखकर दंग रह गये। ___आचार्य ने कहा - मैंने अभी तुम तीनों का अपनी आंखों से आचरण देखा है और कानों से तुम्हारी बात भी सुनी है । मुझे महान् आश्चर्य है कि वर्षों तक तुम मेरे अन्तेवासी बन आश्रम में रहे हो। शास्त्रों का गम्भीर अध्ययन किया है पर तुम दोनों का अध्ययन अभी अपरि Jain Education InternationaFor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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