Book Title: Amit Rekhaye
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 128
________________ क्षमामूर्ति ११५ राजा ने थूकने के लिए अपना मुंह गवाक्ष के बाहर निकाला त्योंही उसकी दृष्टि एक योगी पर गिरी ! खुला सिर था, नंगे पैर थे, पृथ्वी पर दृष्टि डाले हुये सावधानी से चले जा रहे थे । शरीर भव्य था, तपस्तेज अंग-अंग से टपक रहा था, सिर बड़ा था, उस पर घुंघराले बाल हवा से लहरा रहे थे, अंग सौष्ठव को देखकर दर्शक के दिल में यह विचारधारा पैदा हो जाती थी कि किस कारण से इस महामानव ने संसार की मोहमाया को छोड़ा है, यह जवानी में इतना बड़ा त्यागी कैसे बना है ? मुनि को देखते ही महारानी के हृदय में एक युग की वह पुरानी स्मृति जाग उठी । मेरा प्रिय भ्राता भी तो ऐसा ही था न ! धन्य है उस भ्राता को, जो मेरी जवानी में इस प्रकार तपकर रहा होगा, धिक्कार है मुझको जो उसकी बहिन होकर इस प्रकार विषयासक्त हूँ । कहाँ उसका प्रकाशमय जीवन और कहाँ मेरा अंधकारमय जीवन ! उसका कितना ऊँचा जीवन है, मेरा कितना नीचा जीवन है ! विचारते-विचारते आंखों से अश्रुकण गिर पड़े। महाराज बोले, कब तक देखती रहोगी, मेरी ओर देखो न, मैं तो तुम्हारी ओर कब से टकटकी लगाकर देख रहा हूँ, किन्तु तुम तो बिल्कुल ही बे-परवाह हो गई । महाराज ने आंख ऊपर उठाकर देखा, महारानी के आंखों से अश्रुकण गिर रहे थे, क्या कारण है ? आंखों में Jain Education Internationa For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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