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अमिट रेखाएं
एक दिन ब्राह्मण, ब्राह्मणी उसका पुत्र और पुत्रवधू ये चारों भूखे और प्यासे धूप में परिश्रम से एक सेर ज्वार के दाने इकट्ठे कर सके । उसका आटा पीसा गया । उसे चार भागों में बांटकर वे खाने के लिए बैठने लगे, उसी समय कोई भूखा ब्राह्मण आ गया। ब्राह्मण ने उठकर अतिथि का स्वागत किया। अतिथि को देखकर वे फूले नहीं समाये । उन्होंने ने अतिथि से कहा-विप्रवर ! मैं गरीब हूं। यह आटा मैंने नियम व परिश्रम से कमाया है, कृपया आप इसका भोजन कर मुझे अनुगृहीत करें।
ब्राह्मण ने अपना आटा अतिथि के सामने रख दिया। वह आटा उसने खा लिया। फिर भूखी नजर से ब्राह्मण की ओर देखा।
अतिथि सन्तुष्ट नहीं हुआ है; अतः ब्राह्मण देव चिन्तित हो उठे। उसकी पत्नी ने पति को चिन्तित देखकर कहानाथ ! मेरे हिस्से का भी आटा ब्राह्मण देव को खिला दीजिए, यदि ब्राह्मण को उससे भी संतोष हो गया तो मैं भी संतुष्ट हो जाऊंगी।
ब्राह्मण ने कहा-तुम्हारा कथन ठीक नहीं है, पति का कर्तव्य है कि पत्नी का भरण-पोषण करे। तुम्हारी भूख से हड़ियां निकल गई है, मांस और रक्त का काम नहीं है, ऐसी स्थिति में तुम्हें भूखी रखकर अतिथि का सत्कार करूँ, यह मेरे लिए उचित नहीं है।
ब्राह्मणी ने कहा-नाथ ! मैं आपकी सहधर्मिणी हूँ। आपने स्वयं भूखे रहकर अपने हिस्से का आटा अतिथि को
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