Book Title: Amit Rekhaye
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 40
________________ भक्त रैदास २७ गंगा की ओर प्रस्थान किया। गंगा के किनारे खड़े रहकर उसने प्रार्थना की । गंगा ने प्रकट होकर कहा-नराधम । तुझे शर्म नहीं आती, वह कंगन मैंने अपने भक्त रैदास को देने के लिए दिया था, तुने उसे बताया भी नहीं, और राजा को दिया, और राजा के दिये हुए रुपए भी हजम कर गया । अब भी रुपए ले जाकर रैदास को दे, अन्यथा तुझे नष्ट कर दूंगी। _ मृत्यु के भय से घबराया हुआ, पण्डित उलटे पैरों घर पहुँचा और वे सारे रुपए लेकर रैदास के यहाँ पहुँचाये । रुपए रैदास के सामने रख कर रोते रोते सारी घटना सुनादी । भक्त रैदास ने कहा--मैं रुपये लेकर क्या करूं, इसे रखने के लिए मेरे पास जगह ही नहीं है । मैं बिना श्रम का पैसा नहीं ले सकता । आप ही इन्हें ले जाइये । पण्डित ने रोते हुए कहा—मैं तो मारा गया । मेरे पर गंगा रुष्ट है, राजा रुष्ट है, और आप भी रुष्ट हो गए। मेरा अपराध क्षमा करो, मेरी रक्षा करो। भक्त रैदास के सामने कठिन समस्या थी कि वह किसी से कुछ भी लेना नहीं चाहता था, और प्रतिदिन श्रम करते गंगा तक भी नहीं जा सकता था। उसका दयालु हृदय पण्डित के करुण-क्रन्दन को सुनकर द्रवित हो गया। उसने सोचा, तो स्मरण आया कि 'मन चंगा तो कठौती में गंगा' मैंने आज दिन तक किसी का भी मन से बुरा नहीं किया। यदि मैं यहां से भी गंगा की स्तवना करूं तो कंगन मुझे मिल सकता है। उसने चमड़ा भिगोने की कठौती अपने Jain Education InternationaFor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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