Book Title: Amit Rekhaye
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

View full book text
Previous | Next

Page 97
________________ अमिट रेखाएं प्रसन्नता का पार न रहा । पुत्र को प्राप्तकर सेठानी बांसो उछलने लगी । उसका नाम उसने प्रवीण रखा। प्रवीण बड़ा हुआ, उसका पाणिग्रहण वीणा के साथ सम्पन्न हुआ । एक दिन अनिलकान्त बीमार हो गया । प्रवीण उसके पास जाकर बैठा ! पिताजी अभी बहुत बड़े डाक्टर को बुलालेता हूँ। वह कोई असरदार दवाई दे देगा जिससे स्वास्थ्य शीघ्र ही ठीक हो जायेगा । 2253 ८४ अनिलकान्त - प्रवीण ! अब मैं कुछ ही घंटों का मेहमान हूँ । डाक्टर को बाद में बुलाते रहना । अभी मेरी अन्तिम तीन शिक्षाएं ध्यान से सुनना और उन्हें जीवन में अपनाना । वे शिक्षाएं ये हैं (१) जहाँ पर राजा अपना न हो, अपने प्रति स्नेह न हो वहाँ पर नहीं रहना । (२) जिस स्त्री का अपने प्रति प्रेम न हो जिसमें अर्पण करने की भावना न हो वहां न रहना । (३) जहाँ पर मुनीम अपना न हो वहाँ पर न रहना । प्रवीण -- पिताजी आपको मैं विश्वास दिलाता हूं कि मैं आपकी शिक्षाओं को अपनाऊंगा ज्यों ही उसने यह आश्वासन दिया त्यों ही अनिलकान्त को एक हिचकी आई और सदा के लिए आंख मूंद ली । प्रवीण पर अब सारी घर गृहस्थी की जुम्मेदारी आ गई । उसने गृहस्थाश्रम की गाड़ी को इस प्रकार चलाई कि लोग उसकी बुद्धि से विस्मित हो गए । Jain Education InternationaFor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


Page Navigation
1 ... 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140