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अमिट रेखाएं
वह नाटक करने गया, पर मन लगा नहीं, अतः मध्य में से ही वह लौट आया, परन्तु पत्नियों की यह अवस्था देखकर उसे घृणा हो गई ! पति को देखकर वे घबरा गई, उसने उन्हें फटकारते हुये कहा--तुमने वचन का भंग किया है अतः अब मैं यहाँ नहीं रह सकता, वह उलटे पैरों लौटा। दोनों ने पैर पकड़ लिये, नाथ ! अपराध क्षमा करो, पर वह माना नहीं । उन्होंने कहा-अच्छा, आप नहीं मानते हैं, जाना है तो जायें, पर कुछ आर्थिक व्यवस्था करके जाये । अच्छा, कहकर वह शीघ्र ही नाटक मंच पर आया, हजारों की जनमेदिनी को सम्बोधित कर कहा-आज ऐसा नाटक करूंगा जैसा आज से पूर्व कभी न देखा होगा।
नाटक प्रारंभ हुआ। दर्शकों का हृदय उछलने लगा। यह महान् अभिनेता है। इसका नाटक बड़ा ही निराला होता है। वह नाटक कर रहा था सम्राट भरत का। किस प्रकार जन्मते हैं, बड़े होते हैं, राज्य व्यवस्था करते हैं, चक्ररत्न की साधना करते हैं, आरीसा के भव्य-भवन का निर्माण कराते हैं और वस्त्र आभूषणों से सुसज्जित होकर शीश भवन में पहुँचते हैं। शीश भवन को निहारते हुए हाथ की अंगूठी गिरती है। तभी मन में चिन्तन की चिनगारियाँ उछलने लगी, अरे ढोंगी ! कहाँ तू और कहाँ भरत चक्रवर्ती ! कहाँ तेरा निकृष्ट जीवन और कहाँ उस महापुरुष का जीवन ! कहाँ वह राजर्षि जो कमल की तरह निर्लिप्त और कहां तू वासना का गुलाम ! उस महा
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