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अमिट रेखाएं
पुत्र-वधू ने कहा-'आप मेरे स्वामी के पिता है, गुरु के गुरु हैं, मेरा आटा आपको स्वीकार करना ही होगा ।' यह सुनते ही ब्राह्मण की प्रसन्नता का पार न रहा। उसने उसके हिस्से का आटा भी अतिथि के सामने रख दिया।
अतिथि ने उसे खाकर तृप्ति का अनुभव करते हुए कहा - तुम्हारे इस दान से मैं सन्तुष्ट हूं।
उस समय मैं वहां पर गया, उस आटे की सुगन्ध से मेरा सिर सुनहरा हो गया उस आटे के कण-कण में लोटा, जिससे मेरा आधा शरीर सुनहरा हो गया। उसके बाद कई स्थानों पर गया, पर आधा शरीर सुनहरा नहीं हुआ। महान् यज्ञ की बात सुनकर यहां आया कि शेष शरीर सुनहरा हो जाय, पर आशा पूर्ण न हुई, एतदर्थ ही मैंने कहा-उस महान् यज्ञ के समान आपका यज्ञ नहीं है । उस दान के बराबर आपका दान नहीं है।
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