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एक दिन एक विचारशील युवक गुरुदेव के पास आयाऔर नम्र भाव से बोला-गुरुदेव ! "भाज पाश्चात्य जनता और पाश्चात्य ठा की शिक्षा के प्रभाव में आकर भारतीय लोग अपने आदर्शों को भुल रहे हैं और जीवन की सुखशान्ति के लिए अभिषापरूप विदेशी भादशी को अपना रहे हैं। ऐसे समय में नूतन ढङ्ग से पुरातन भादों को कथाओं के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया जाय तो पश्चिमी आपातरम्य कुसंस्कृति के चक्कर में पड़े हुए लोग भारतीय आदर्शों के अनुरूप ही अपने जीवन का निर्माण कर सकेंगे ।
और यह कार्य हमारे प्रकाशस्तम्भ समान पुराण पुरुषों के जीवनचरित्रों को सरल और सुगम लोकभाषा में , प्रकाशित करने से ही हो सकता है ।" गुरुदेव के मन में यह बात घर कर गई। उन्होंने उसी समय निश्चय किया कि हमारे आगमों में अनेक महापुरुषों के चरित्र हैं, उनका संकलन किया जाय तो महान् लाभ को सभावना है। तीर्थङ्करों के शासन में अनेक भव्य जीवों ने संयम की कठोर साधना कर मुक्ति प्राप्त की है । और अपने को धन्य बनाया है । इन महापुरुषों के जीवन-चरित्र पढ़कर अनेक मुमुक्षुजन उनके द्वारा बताये गये मार्ग पर चल कर परम शान्ति प्राप्त कर सकते हैं।
गुरुदेव ने इस भावना को साकार रूप देने के लिये अपना प्रयत्न प्रारम्भ कर दिया । उन्होंने उसकी एक रूपरेखा भो अपने मन में तैयार कर ली। बात बात में चातुर्मास काल पूरा हो गया । इस अवसर पर अपने अपने क्षेत्र में पधारने की बम्बई क्षेत्र के अनेक स्थानों को विनतियां लेकर संघ भाने लगे। उस समय राजकीय तंग . वातावरण को एवं भपनी शारीरिक अवस्थाता को ध्यान में रखकर गुरुदेव ने बम्बई में अधिक समय न रुकने का फैसला कर लिया। चातुर्मास समाप्त होते ही आपने गुजरात की राजधानी अहमदाबाद की भोर विहार कर दिया । महमदाबाद पधार गये । यहाँ के.संघ ने आपको रखी भक्ति की भोर भागामी चातुर्मास महमदाबाद में