Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana, Surendra Bothra, Purushottamsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan
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पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं संपरिवुडे पव्वाणुपुव्विं चरमाणे, गामाणुगामं दूइज्माणे, सुहं- सुहेणं विहरमाणे, जेणेव चंपा नयरी, जेणेव पुण्णभद्दे चेइए, तेणामेव उवागच्छइ । उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हइ; ओगिरिहत्ता संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति ।
सूत्र २ : काल के उस भाग में अथवा उस समय श्रमण भगवान महावीर के शिष्य (पंचम गणधर ) आर्य सुधर्मा नामक स्थविर विद्यमान थे । वे उच्च कुल व जाति सम्पन्न थे। बलवान, रूपवान और विनयवान होने के साथ-साथ ज्ञान, दर्शन व चारित्र सम्पन्न भी थे । इन सभी गुणों से युक्त होते हुए भी वे अहंकार तथा परिग्रह से मुक्त थे; अर्थात् लाघव संपन्न थे। ओज, तेज, वचन - पटुता और यश से वे परिपूर्ण थे। क्रोध, मान, माया, लोभ पर ही नहीं, वे तो इन्द्रियों पर, नींद पर और परिषहों पर भी विजय प्राप्त कर चुके थे। जीने की इच्छा और मृत्यु की आशंका- भय, इन दोनों से रहित हो गये थे वे । वे तपप्रधान और गुणप्रधान थे। करण (करणसत्तरी - पिण्ड विशुद्धि, ग्रहणैषणा आदि आचार के मर्मज्ञ), चरण ( चरणसत्तरी - पंच महाव्रत आदि के पालन में निपुण), निग्रह, निश्चय, आर्जव, मार्दव, लाघव, क्षमा, गुप्ति, मुक्ति, विद्या, मंत्र, ब्रह्मचर्य, वेद, नय, नियम, सत्य, शौच, ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुणों के सर्वश्रेष्ठ धारक थे। वे उदार थे और सदाचार के कठोर पालक । व्रत, तपस्या और ब्रह्मचर्य में वे दृढ़तया उत्कृष्ट थे और शरीर से अलिप्त । विपुल - तेजोलेश्या को अपने आप में समेट लिया था उन्होंने । वे चौदह पूर्वों के जानकार और चार ज्ञान के धारक थे।
ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
ऐसे सुधर्मा स्वामी अपने पाँच सौ शिष्यों सहित एक के बाद दूसरे गाँव में विचरते हुए, सुखपूर्वक विहार करते हुए चम्पा नगरी में जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था वहाँ आये । यथानियम आज्ञा अवग्रह प्राप्त कर वे उस चैत्य में ठहरे और आत्मा को संयम एवं तप में भावित करते, रमाते हुए रहने लगे।
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ARYA SUDHARMA SWAMI
2. During that period of time the fifth chief-disciple of Shraman Bhagavan Mahavir, Arya Sudharma, was living. He belonged to a prominent family and caste. Besides being strong, handsome, and humble he was also endowed with right-knowledge, right-perception, and right-conduct. In spite of having all these rare virtues he was free of conceit and greed; in other words, he had the virtue termed as Laghav or extreme brevity of ego and desire for possessions. He was rich in qualities like power, aura, eloquence and the resultant fame. He
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CHINE
JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SÜTRA
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