Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra
Author(s): Gopaldas Jivabhai Patel
Publisher: Jain Shwetambar Conference Mumbai

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Page 14
________________ हिंसा का विवेक [ ७ जैसे विकार होते हैं, वैसे ही उसमें भी होते हैं । जो वनस्पति की हिंसा करते हैं, उनको हिंसा का भान नहीं होता । जो मुनि वनस्पति की हिंसा को जानता हैं, वही सच्चा कर्मज्ञ है । [ ४५ ४७ ] - अंडज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज, संमूर्छिम उदभिज और औपपातिक ये सब स जीव हैं । श्रज्ञानी और मंदमति लोगों का बारबार इन सब योनियों में जन्म लेना ही संसार , पींछी के लिये, के ) के लिये, लिये, अस्थि | जगत् में जहां देखो वहीं आतुर लोग इन जीवों को दुःख देते रहते हैं। ये जीव सब जगह त्रास पा रहे हैं। कितने ही उनके शरीर के लिये उनका जीव लेते हैं, तो कितने उनके चमड़े के लिये, मांस के लिये, लोही के लिये हृदय के लिये, बाल के लिये, सींग के लिये, दांत ( हाथी दाढ़ के लिये, नख के लिये, प्रांत के लिये, हड्डी के मज्जा के लिये, आदि अनेक प्रयोजनों के लिये बस करते हैं; और कुछ लोग बिना प्रयोजन के स जीवों की हिंसा करते हैं | परन्तु प्रत्येक जीव की शांति का विचार कर के, उसे बराबर समझ कर उनकी हिंसा न करे । मेरा कहना है कि सब जीवों को पीड़ा, भय और शांति दुःखरूप हैं, इसलिये, बुद्धिमान् उनकी हिंसा न करे, न करावे । [ ४८-५४ ] जीवों की हिंसा इसी प्रकार वायुकाय के जीवों को समभो । श्रासक्ति के कारण विविध प्रवृत्तियों द्वारा वायु की तथा उसके साथ ही अनेक जीवों की वे हिंसा करते हैं क्योंकि अनेक उड़ने वाले जीव भी झपः में आ जाते हैं और इस प्रकार श्राघात, संकोच, परिताप और विनाश को प्राप्त होते हैं । [ २८-२६] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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