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प्राचारांग सूत्र
इसी प्रकार जल में अनेक जीव हैं। जिनप्रवचन में साधुओं को कहा गया है कि जल जीव ही है। इस कारण उसका उपयोग करना हिंसा है । जल का उपयोग करते हुए दूसरे जीवों का भी नाश होता है। इसके सिगय, दूसरों के शरीर का उनकी इच्छा विरुद्ध उपयोग करना चोरी भी तो है। अनेक मनुष्य ऐसा समझ कर कि जल हमारे पीने और स्नान करने के लिये है उसका उपयोग करते हैं और जल के जीवों की हिंसा करते हैं। यह उनको उचित नहीं है। जो मुनि जल के उपयोग से होने वाली हिंसा को बराबर जानता है, वही सच्चा कमज्ञ है। इसलिये बुद्धिमान् तीन प्रकार (करना, कराना और करते को अनुमति देना) से जल की हिंसा न करे। [२३-३०]
इसी प्रकार अशि का समझो । जो अग्निकाय के जीवों के स्वरूप को जानने में कुशल हैं, वे ही अहिंसा का स्वरूप जानने में कुशल हैं। मनुष्य विषय भोग की प्रासक्ति के कारण अनि तथा दूसरे जीवों की हिंसा करते रहते हैं क्योंकि प्राग जलाने में पृथ्वी काय के, घास-पान के, गोबर-कचरे में के तथा श्रास पास उड़ने वाले, फिरने वाले अनेक जीव जल मरते हैं दु:खी होकर नाश को प्राप्त होते हैं । [३६-३८]
इसी प्रकर अनेक मनुष्य प्रासक्ति के कारण वनस्पति की हिंसा करते हैं । मेरा कहना है कि अपने ही समान वनस्पति भी जन्मशील है. और सचित्त है । जैसे जब कोई हमको मारे-पीटे तो हम दुःखी हो जाते हैं. वैसे ही वनस्पति भी दुःखी होती है। जैसे हम अाहार लेते हैं वैसे ही वह भी; हमारे समान वह भी अनित्य और अशाश्वत है। हम घटते-बढ़ने हैं, उसी प्रकार वह भी; और अपने में
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