Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra
Author(s): Gopaldas Jivabhai Patel
Publisher: Jain Shwetambar Conference Mumbai

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Page 53
________________ श्राचारांग सूत्र waandamamanan mocomromemamwowwwwwwwwwwww वन्दना-नमस्कार करते रहते भी ज्ञानभ्रष्ट और दर्शनभ्रष्ट होने के कारण जीवन को नष्ट कर डालते हैं । संयम स्वीकार कर लेने पर बाधाएँ भा जाने के कारण सुखार्थी हो कर असंयमी बन जाने वाले इन्द्रियों के दास कायर मनुष्य अपनी प्रतिज्ञाओं को तोड देते हैं । ऐसों की प्रशंसा करना पाप है । ऐसे श्रमण विभ्रान्त हैं, विभ्रान्त हैं । [१९०-१६१,१९३] इनका निष्कमण दुनिष्क्रमण है । निंदा के पात्र ऐसे मनुष्य बारबार जन्म-मरण को प्राप्त होते रहते हैं। ये अपने को विद्वान् मानकर, 'मैं ही बड़ा हूँ।' ऐसी प्रशंसा करते रहने हैं। ये दूसरे तटस्थ संयमियों के सामने उद्धत होते हैं और उनको चाहे जो कहते रहते हैं। [१६६] बालकों के समान मूर्ख ये अधर्मी मनुष्य हिंसार्थी होकर कहने लगते हैं कि, 'जीवों की हिंसा करो;' इस प्रकार ये भगवान के बताये हुए दुष्कर धर्म की उपेक्षा करते हैं। इन को ही प्राज्ञा के विराधक, काम भोगों में डूबे हुए और वितंडी कहा गया है। [ १९२] संयम के लिये प्रयत्नशील मनुष्यों के साथ रहते हुए भी ये अविनयी होते हैं। ये विरक्त और जितेन्द्रिय मनुष्यों के साथ रहते हुए भी अविरक्त और श्रदान्त होते हैं। [ १६३ ] ऐसी विचित्र स्थिति जान कर बुद्धिमान को पहिले ही धर्म को बराबर समझ लेना चाहिये और फिर अपने लक्ष्य में परायण बन कर शास्त्रानुसार पराक्रम करना चाहिये। ऐसा मैं कहता हूँ। [१११, १६३] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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