Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra
Author(s): Gopaldas Jivabhai Patel
Publisher: Jain Shwetambar Conference Mumbai

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Page 139
________________ - - - yvAMArterNKywoKANKRuvarn.v~~vanr १३२ ] प्राचारांग सूत्र तीसरी भावना-निर्ग्रन्थ लोभ का त्याग करे क्योंकि लोभ के कारण अपत्य बोलना सम्भव है। चौथी भावना-निर्ग्रन्थ भय का त्याग करे क्योंकि भय के कारण असत्य बोलमा सम्भव है। पांचवीं भावना-निर्ग्रन्थ हंसी का त्याग करे क्योंकि हंसी के कारण असत्य बोलना सम्भव है। इतना कर परने ही, कह सकते हैं कि उसने महाव्रत का बराबर पालन किया । (आदि पहिले व्रत के अनुसार) तीसरा महाव्रत-मैं सब प्रकार की चोरी का यावज्जीवन त्याग करता हूँ। गांव, नगर या वन में से थोडा या अधिक, बड़ा या छोटा, सचित्त या अचित्त कुछ भी दूसरों के दिये बिना न उठा लूँ, न दूसरों से उठवाऊँ न किसी को उठा लेने की अनुमति दूं। (आदि पहिले के अनुसार ।) इस महाव्रत की पांच भावनाएँ ये हैं । पहिली भावना-निर्ग्रन्थ विचार कर मित परिमाण में वस्तुएँ मांगे। दूसरी भावना-निर्ग्रन्थ मांग लाया हुअा अाहार-पानी प्राचार्य श्रादि को बता कर उनकी श्राज्ञा से ही खावे । तीसरी भावना-निर्ग्रन्थ अपने निश्चित परिमाण में ही वस्तुएँ मांगे। चौथी भावना-निर्ग्रन्थ बारबार वस्तुओं का परिमाण निश्चित कर के मांगे। पांचवीं भावना-निर्ग्रन्थ सहधर्मियों के सम्बन्ध में ( उनके लिये या. उनके पास से) विचार कर और. मित परिमाण में ही वस्तुएं मांगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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