Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra
Author(s): Gopaldas Jivabhai Patel
Publisher: Jain Shwetambar Conference Mumbai

View full book text
Previous | Next

Page 149
________________ AnnnnnnyAVINAAMV. wwwwwwwwwwwna १४२ प्राचारांग सूत्र vwww पुरिसा ! तुममेव तुम-मित्रं, कि बहिया मिचमि च्छसी ? पुरिसा ! अचाणमेव अभिनिगिज्झ, एवं दुक्खा पमोक्खसि । (३: ११७-८) हे पुरुष ! तू ही तेरा मित्र है बाहर क्यों मित्र खोजता है ? अपने को ही वश में रख तो सब दुःखों से मुक्त हो सकेगा । सव्वओ पमचस्स भयं, सव्वओ अप्पमत्तस्स नत्थि भयं । (३:१७३) प्रमादी को सब प्रकार से भय है, अप्रमादी को किसी प्रकार भय नहीं है, तं आइत्तु न निहे, न निक्खिवे, जाणितु धम्मं जहातहा । दिठेहिं निव्वेयं गच्छेज्जा, नो लोगस्से'सणं चरे ॥ (४ : १२७) . धर्म को ज्ञानी पुरुषों के पास से समझ कर, स्वीकार करके संग्रह न कर रखे; परन्तु प्राप्त भोग-पदार्थों में वैराग्य धारण कर, लोक प्रवाह के अनुसार चलना छोड़ दे। इहारामं परिन्नाय अल्लीण-गुणो परिव्वए । निद्रुिट्ठि वीरे आगमेणं सया परकमेनासि-ति बेमि । (५:१६८) संसार में जहाँ-तहां पाराम है, ऐसा समझकर वहाँ से इन्द्रियों को हटा कर संयमी पुरुष जितेन्द्रिय होकर विचरे । जो अपने कार्य करना चाहते हैं, वे वीर पुरुष हमेशा ज्ञानी के कहे अनुसार पराक्रम करे, ऐसा मैं कहता हूँ। कायस्स विओवाए एस संगामसीसे वियाहिए। स हु पारंगमे गुणी । अविहम्ममाणे फलगावयट्ठी कालो वीए कंखेज्ज जाव सरीरभेओ-ति वेमि ॥ (६: १९६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 147 148 149 150 151 152