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प्राचारांग सूत्र
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पुरिसा ! तुममेव तुम-मित्रं, कि बहिया मिचमि च्छसी ? पुरिसा ! अचाणमेव अभिनिगिज्झ, एवं दुक्खा पमोक्खसि । (३: ११७-८)
हे पुरुष ! तू ही तेरा मित्र है बाहर क्यों मित्र खोजता है ? अपने को ही वश में रख तो सब दुःखों से मुक्त हो सकेगा ।
सव्वओ पमचस्स भयं, सव्वओ अप्पमत्तस्स नत्थि भयं । (३:१७३)
प्रमादी को सब प्रकार से भय है, अप्रमादी को किसी प्रकार भय नहीं है,
तं आइत्तु न निहे, न निक्खिवे, जाणितु धम्मं जहातहा । दिठेहिं निव्वेयं गच्छेज्जा, नो लोगस्से'सणं चरे ॥ (४ : १२७) . धर्म को ज्ञानी पुरुषों के पास से समझ कर, स्वीकार करके संग्रह न कर रखे; परन्तु प्राप्त भोग-पदार्थों में वैराग्य धारण कर, लोक प्रवाह के अनुसार चलना छोड़ दे।
इहारामं परिन्नाय अल्लीण-गुणो परिव्वए । निद्रुिट्ठि वीरे आगमेणं सया परकमेनासि-ति बेमि । (५:१६८)
संसार में जहाँ-तहां पाराम है, ऐसा समझकर वहाँ से इन्द्रियों को हटा कर संयमी पुरुष जितेन्द्रिय होकर विचरे । जो अपने कार्य करना चाहते हैं, वे वीर पुरुष हमेशा ज्ञानी के कहे अनुसार पराक्रम करे, ऐसा मैं कहता हूँ।
कायस्स विओवाए एस संगामसीसे वियाहिए। स हु पारंगमे गुणी । अविहम्ममाणे फलगावयट्ठी कालो वीए कंखेज्ज जाव सरीरभेओ-ति वेमि ॥ (६: १९६)
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