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सातवाँ अध्ययन
-(.)अवग्रह*
"प्रव्रज्या लेकर, मैं बिना घर-बार का, धन-धान्य पुत्र प्रादि से रहित, और दूसरों का दिया हुआ खाने वाला श्रमण होऊँगा और पापकर्म कभी नहीं करूँगा । हे भगवन् । दूसरों के दिये बिना किसी वस्तु को लेने का (रखनेका) प्रत्याख्यान (त्याग का नियम) करता हूँ ।”
ऐसा नियम लेने के बाद भिक्षु, गांव नगर या राजधानी में जाने पर दूसरों के दिये बिना कोई वस्तु ग्रहण न करे; दूसरों से न करावे और कोई करता हो तो अनुमति न दे। अपने साथ प्रव्रज्या लेने वाले भितुओं के पात्र, दंड श्रादि कोई भी वस्तु उनकी अनुमति लिये बिना और देखभाल किये बिना, साफ़ किये बिना, न ले । [११]
भिक्षु, सराय आदि स्थान देख कर, वह स्थान अपने योग्य है या नहीं यह सोच कर फिर उसके मालिक या व्यवस्थापक से वहां ठहरने की (शय्या अध्ययन के सूत्र ८१-१०, पृष्ट ८८ के अनुसार) अनुमति ले।
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* अवग्रह का अर्थ 'अपनी वस्तु-परिग्रह' और 'निवासस्थान' दोनों होते हैं; इस अध्ययन में दोनों के सम्बन्ध के नियमों की चर्चा है।
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