Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra
Author(s): Gopaldas Jivabhai Patel
Publisher: Jain Shwetambar Conference Mumbai

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Page 136
________________ भावनाएँ [ १२६ अडग होकर सहन करूंगा और उपसर्ग ( विघ्न ) देने वाले के प्रति समभाव रखूंगा । ऐसा नियम लेकर महावीर भगवान् एक मुहूर्त दिन बाकी था तब कुम्मार ग्राम में ना पहुंचे । ( एक छोड़कर विहार इसके बाद, भगवान् शरीर की ममता स्थान पर स्थिर न रहकर विचरते रहना ), निवास स्थान, उपकरण ( साधन सामग्री ), तप संयम, ब्रह्मचर्य, शांति, त्याग, संतोष, समिति, गुप्ति आदि में सर्वोत्तम पराक्रम करते हुए और निर्वाण की भावना से अपनी श्रात्मा को भावित करते हुए विचरने लगे । वे उपकार - अपकार, सुख-दुःख, लोक-परलोक, जीवन-मृत्यु मानअपमान आदि में समभाव रखने, संसार समुद्र पार करने का निरन्तर प्रयत्न करने और कर्मरूपी शत्रु का ससुच्छेद करने में तत्पर रहते थे । इस प्रकार विचरते हुए भगवान् को देव, मनुष्य या पशु-पक्षी आदि ने जो उपसर्ग दिये, उन सबको उन्होंने अपने मनको निर्मल रखते हुए, बिना व्यथित हुए, अदीनभाव से सहन किये; और अपने मन, वचन और काया को पूरी तरह वश में रखा | इस प्रकार बारह वर्ष बीतने पर, तेरहवें वर्ष में, ग्रीष्म के दूसरे महिने में, चौथे पक्ष में वैशाख शुक्ला दशमी को, सुव्रत दिन को, विजय मुहूत में, उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में, छाया पूर्व की और पुरुषाकार लम्बी होने पर, जांभक गांव के बाहर, ऋजुवालिका नदी के उत्तर किनारे पर, श्यामाक नामक गृहस्थ के खेत में, वेयावत्त नामक चैत्य के ईशान्य में, शालिवृक्ष के पास, भगवान् गोदोहास न से अकडूं बैठे ध्यान मन्न होकर धूप में तप रहे थे । उस समय उनको श्रहमभत्त ( छः बार अनशन का ) निर्जल उपवास था और वे शुद्धध्यान में थे । उस समय उनको निर्वाणरूप, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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