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विमोह
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स्मशान आदि में रहने वाले भिन्तु को जिमाने के लिये या रहने के लिये गृहस्थ हिंसा आदि करके मकान बनवा दे या खान-पान तैयार करे और इसका पता भिक्षु को अपनी सहजबुद्धि से लग जाय, किसी के कहने से या दूसरे से सुनने से मालुम पड़ जावे तो वह तुरन्त ही उस गृहस्थ को उसी प्रकार मना कर दे [२०३ ]
भिक्षु से पूछ कर या उससे बिना पूछे उसके लिये गृहस्थने बडा खर्च किया हो और बाद में भिक्षु उन वस्तुओं को लेने से इनकार करे और इससे गृहस्थ उसको मारे या सन्ताप दे तो भी वह वीर भिक्षु उन दुःखों को सहन ही करे अथवा वह गृहस्थ बुद्धिमान हो तो उसको तर्क से अपना आचार समझा दे। यदि ऐसा न हो सके तो मौन ही रहे । [...]
भिक्षु या भिक्षुणी अाहार-पानी खाते पीते समय उसके स्वाद के लिये उसको मुंह में इधर-उधर न फेरे । ऐसा करने वाला भिक्षु उपाधि से मुक्त हो जाता है और उसका तप बढ़ता हैं। भगवान द्वारा बताये हुए इस मार्ग को समझकर उस पर समभाव से रहे । [२२०]
__ठंड से धूजते हुए भिन्तु को गृहस्थ पाकर पूछे कि, तुमको कामवासना तो नहीं सताती ? तो वह कहे कि मुझे कामवासना तो नहीं सताती, पर यह ठंड सहन न होने के कारण मैं धूजता हूँ। परन्तु आग जला कर तापने का या दूसरों के कहने से ऐसा करने का हमारा श्राचार नहीं है। भिन्तु को ऐसा कहते सुन कर कोई तीसरा आदमी खुद ताप लगाकर उसे तपावे तो भी भिन्तु उस ताप को न ले । [ २१०]
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