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आचारांग सूत्र
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कर्म के दो प्रकार [ १ ऐर्यपथिक-चलने-फिरने श्रादि श्रावश्यक क्रियाओं से होने वाली हिंसा के कारण बंधने वाला कर्म जो बंध होते ही नाशको प्राप्त हो जाता है। २ सांपरायिक-कषाय के कारण बंधने वाला कर्म जिसका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है। ] जान कर असाधारण ज्ञानवाले मेधावी भगवान ने कर्मों का नाश करने के लिये अनुपम क्रिया का उपदेश दिया है। प्रवृत्ति और तजन्य कर्मबन्धन को समझ कर भगवान स्वयं निर्दोष अहिंसा में प्रवृत्त होते थे। भगवान ने स्त्रियों को सर्व पाप का कारण समझ कर उनका त्याग किया था। वस्तु का स्वरूप बराबर समझ कर महावीर कभी पाप नहीं करते थे, दूसरों से न कराते थे, करनेवाले को अनुमति नहीं देते थे। [.१६-१७, ६१] __भगवान ने अपने लिये तैयार किया हुआ भोजन कभी नहीं लिया। इसका कारण यह कि वे इसमें अपने लिये कर्मबन्ध समझते थे। पापमात्र का त्याग करने वाले भगवान निर्दोष आहार-पानी प्राप्त करके उसका ही उपयोग करते थे। वे कभी भी दूसरे के पात्र में भोजन नहीं करते थे और न दूसरों के वस्त्र ही काम में लाते थे। मान-अपमान को त्याग कर, किसी की शरण न चाहने वाले भगवान भिक्षा के लिये फिरते थे। [१८-१६ ]
भगवान आहार-पानी के परिमाण को बराबर समझते थे, इस कारण वे कभी रसों में ललचाते न थे और न उसकी इच्छा ही करते थे। चावल, बैर का चूरा और खिचड़ी को रूखा खाकर ही अपना निर्वाह करते थे। भगवान ने आठ महिने तक तो इन तीनों चीज़ों पर निर्वाह किया। भगवान महिना, आधा महिना पानी तक न पीते थे। इस प्रकार वे दो महिने या छ महिने तक बिहार ही
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