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प्राचारांग सूत्र
देव-यक्ष आदि के अनेक भयंकर संकटों, अनेक प्रकार के शब्द और गन्ध को समभाव से सहन किया था। [५६, ११, २०, ३२-३३ ]
भगवान अनेक प्रकार के ध्यान अचंचल रह कर अनेक प्रकार के आसन से करते थे और समाधिदक्ष तथा प्राकांक्षा रहित हो कर भगवान ऊर्च, अधो और तिर्यग् लोक का विचार करते थे। कषाय, लालच, शब्द, रूप और मूर्छा से रहित होकर साधकवृत्ति में पराक्रम करते हुए भगवान जरा भी प्रमाद न करते थे। अपने आप संसार का स्वरूप समझ कर श्रात्मशुद्धि में सावधान रहते और इसी प्रकार जीवन भर शांत रहे । [६७-६८ ]
मुमुतु इसी प्रकार आचरण करते हैं; ऐसा मैं कहता हूं। [७०]
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