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श्रादि के रहने के काम आ सकने के लिये बड़ा बना देते है। ऐसे मकानों में श्रमण ब्राह्मण आते जाते रहते हों और उनके बाद भिक्षु ऐसा देखकर वहां रहे सो यह अमिक्रांत क्रिया दोष है और यदि पहिले ही वह वहां जाकर रहे तो यह अनभिक्रांत क्रिया दोष है।
ऐसा सुना होने से कि मितु अपने लिये बनाये हुए मकानों में नहीं ठहरते, कोई श्रद्धालु गृहस्थ ऐसा सोचे कि अपने लिये बनाया हुआ मकान भित्रों के लिये कर दूं और अपने लिये दूसरा बनाऊँगा । यह मालूम होने पर यदि कोई भितु ऐसे मकान में उहरता है तो यह वर्ण्य क्रिया दोष है। [२]
इसी प्रकार कितने ही श्रद्धालु गृहस्थोंने किसी खास संख्या के श्रमणब्राह्मण, अतिथि, कृपण आदि के लिये मकान तैयार कराया हो तो भिन्तु का उसमें ठहरना महावज्यदोष है। [८३]
इसी प्रकार श्रमणवर्ग के ही अनेक भितुओं के लिये तैयार कराये हुए मकानों में ठहरना सावधक्रिया दोष है ।
किसी गृहस्थ ने सहधर्मी एक श्रमण के लिये छः काय के जीवों की हिंसा करके ढांक लीप कर मकान तैयार कराया हो, उसमें ठंडा पानी भर रखा हो, और श्राग जला कर रखी हो तो ऐसे अपने लिये तैयार कराये हुए मकान में ठहरना महासावधक्रिया दोष है। ऐसा करने वाला न तो गृहस्थ है और न भिन्तु ही । [१] .. परन्तु जो मकान गृहस्थ ने अपने ही लिये छावलीप कर कर तैयार कराया हो, उसमें जाकर रहना अल्पसावधक्रिया दोष है। [२६]
कितने ही सरल, मोक्षपरायण तथा निष्कपट भिक्षु कहते हैं कि 'भिन्नु को निर्दोष पर अनुकुल स्थान मिलना सुलभ नहीं है । और कुछ
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