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श्राचारांग सूत्र
को जल्दी न दे दे, परन्तु उस आहार को सब के पास ले जा कर कहे कि, ' मेरे पूर्व परिचित (दीक्षा देने वाले ) और पश्चात् परिचित (ज्ञान प्रादि सिखाने वाले) प्राचार्य आदि को क्या मैं यह श्राहार दे दूँ ? ' इस पर वे मुनि उसको कहे कि, 'हे आयुष्मान् ! तू जितना चाहिये उतना उनको दे।' [१६]
कोई मुनि अच्छा अच्छा भोजन मांग ला कर मन में सोचे कि यदि इसे खोल कर बताऊंगा तो प्राचार्य ले लेंगे और यदि वह उस भोजन को बुरे भोजन से ढंक कर प्राचार्य प्रादि को बतावे तो उसे दोष लगता है। इस लिये, ऐसा न करके, बिना कुछ छिपाये उसको
खुला ही बतावे । यदि कोई मुनि अच्छा अच्छा आहार खा कर • बाकी का आचार्य आदि को बतावे तो भी दोष लगता है। इस लिये ऐसा न करे। [१७]
कोई मुनि अच्छा भोजन लेकर मुनि के पास श्राकर कहे कि, 'तुम्हारा अमुक मुनि बीमार है, तो उसको यह भोजन खिलाश्रो, यदि वह न खावे तो तुम खा जाना ।' अब वह मुनि उस अच्छे भोजन को खा जाने के विचार से उस बीमार मुनि से यदि कहे कि, यह भोजन रूखा, है, चरपरा है, कड़वा है या कषैला हैं; तो उसे दोष लगता है। यदि उन मुनियों ने आहार देते समय यह कहा हो कि, 'यदि वह बीमार मुनि इसको न खाये तो इसके फिर हमारे पास लाना; तो खुद ही उसे खाकर झूठ बोलने के बदले जैसा कहा हो वैसाही करे । [६०-६१]
- भिक्षा मांगने जाते समय मार्ग, सराय, बंगले, गृहस्थ के घर या भिक्षुओं के मठों से भोजन की सुगंध आने पर मुनि उसको, ‘क्या ही अच्छी सुगंध, ऐसा कह कर न सूंघे । [४४]...
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