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भिक्षा
जिस आहार को गृहस्थ ने गिन कर नहीं पर यों ही श्रमण ब्राह्मणों के लिये ऊपर लिखे अनुसार तैयार किया हो, और उसको सबको देने के बाद गृहस्थने अपने लिये न रखा हो, या अपने खाने के लिये बाहर न निकाला हो या खाया न हो तो न ले । परन्तु सबको दिये जाने के बाद गृहस्थ ने अपने लिये समझकर ही रखा हो तो निर्दोष जानकर उसको ले ले । [६-८]
इसी प्रकार अष्टमी के पोषध व्रत के उत्सव पर या पाक्षिक, मासिक, द्विमासिक चातुर्मासिक या छःमासिक उत्सव पर अथवा ऋतु के या उसके प्रथम या अन्त के दिन अथवा मेला, श्राद्ध या देवदेवी के महोत्सव पर श्रमण-ब्राह्मण आदि याचकों को एक या अनेक हंडी में से, कुंभी में से, टोकरी या थैली में से गहस्थ पाहार परोसता हो, उसको भी जब तक सबको देने के बाद उस गृहस्थ ने उसको अपना ही न समझ लिया हो, तब तक उसको सदोष समझ कर न ले। पर सबको दिये जाने के बाद गृहस्थ ने उसको अपना समझ कर रखा हो तो उसको निर्दोष समझ कर ले ले । [१०,१२]
कितने ही भद्र गृहस्थ ऐसा समझ कर कि ज्ञान, शील, व्रत, गुण, संवर, संयम और ब्रह्मचर्यधारी उत्तम मुनि उनके लिये तैयार किये हुए आहार को नहीं लेते, तो हम अपने लिये ही श्राहार तैयार करके उनको दे दें और अपने लिये फिर तैयार कर लेंगे । मुनि इस बात को जानने पर उस आहार को सदोष समझ कर न ले । [४]
___ भिक्षा के समय मुनि के लिये कोई गृहस्थ उपकरण या आहार तैयार करने लगे तो वह उसको तुरन्त ही रोक दे, ऐसा भी
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