Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra
Author(s): Gopaldas Jivabhai Patel
Publisher: Jain Shwetambar Conference Mumbai

View full book text
Previous | Next

Page 67
________________ - - ६.] आचारांग सूत्र nnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnwar - - प्रमाद बढ़ाने वाली समझ कर, उठ कर दूर करते । कभी कभी मूहूर्त तक रात में चंक्रमण करते रहते । [२४-२६] - उन स्थानों पर भगवान को अनेक प्रकार के भयंकर संकट पड़े। उन स्थानों पर रहने वाले जीव-जन्तु उनको कष्ट देते। नीच मनुष्य भी भगवान को बहुत दुःख देते। कई बार गांव के चौकी दार हाथ में हथियार ले कर भगवान को सताते । कभी कभी विषय वृत्ति से स्त्रियाँ या पुरुष भगवान को तंग करते। रात में अकेले फिरने वाले लोग वहां भगवान को अकेला देख कर उनसे पूछताछ करते । भगवान के जबाब न देने पर तो वे चिढ़ ही जाते थे। कोई पूछता कि यह कौन है ? तो भगवान कहते, ' मैं भिन्तु हूँ ।' अधिक कुछ न कहने पर वे भगवान पर नाराज हो जाते पर भगवान तो ध्यान ही करते रहते। [३०-३१, ३४-३५] जहां दूसरे अनेक लोग ठहरते थे, वहां रहने पर भगवान स्त्रियों की तरफ दृष्टि तक न करते, परन्तु अन्तर्मुख रह कर ध्यान करते थे। पुरुषों के साथ भी वे कोई सम्बन्ध न रख कर ध्यान में ही मन रहते थे। किसी के पूछने पर भी वे जबाब न देते थे। कोई उनको प्रणाम करता तो भी वे उनकी तरफ न देखते थे। ऐसे समय उनको मूढ़ मनुष्य मारते और सताते थे। वे यह सब समभाव से सहन करते थे। इसी प्रकार आख्यान, नाटक, गीत, दंडयुद्ध, मुष्टियुद्ध और परस्पर कथावार्ता में लगे हुए लोगों की ओर कोई उत्सुकता रखे बिना वे शोकरहित ज्ञातपुत्र मध्यस्थ दृष्टि ही रखते थे। असह्य दुःखों को पार करके वे मुनि समभाव से पराक्रम करते थे । इन संकटों के समय वे किसी की शरण नहीं ढूंढते थे। [६-१० ] . भगवान दुर्गम प्रदेश लाढ़ में, वज्रभूमि और शुभ्रभूमि में भी विचरे थे। वहां उनको एकदम बुरी से बुरी शय्या और प्रासन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152