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आचारांग सूत्र
नहीं करूंगा; या मैं दूसरों की सेवा नहीं करूंगा और न उनसे अपनी ही कराऊँगा,-तो वह अपने नियम को बराबर समझ कर उस पर दृढ़ रहे । [२१७ ]
इस प्रकार की अपनी प्रतिज्ञाओं पर दृढ़ रहना शक्य न हो तब प्रतिज्ञा भंग करने के बदले आहार त्याग कर मरण स्वीकार करने पर प्रतिज्ञा न छोड़े । शांत, त्यागी तथा मन और इन्द्रियों को वश में रखने वाले भितु के लिये ऐसे संयोगों में यही श्रेय है; यही उसके लिये मरण का योग्य अवसर है । (आदि सूत्र २१५ के अनुसार) [२१७]
बुद्धिमान भिक्षु जिस प्रकार जीने की इच्छा न करे, उसी प्रकार मरने की इच्छा भी न करे। मोक्ष के इच्छुक को तटस्थता पूर्वक अपनी प्रतिज्ञारूप समाधि की रक्षा करना चाहिये; और अान्तर तथा बाह्य पदार्थों की ममता त्याग कर प्रात्मा को (प्रतिज्ञा भंग से) भ्रष्ट न होने देने की इच्छा करना चाहिये। अपनी प्रतिज्ञा रूप समाधि की रक्षा के लिये जो उपाय ध्यान में श्रावे, उसी का तुरन्त प्रयोग करे। अन्त में अशक्य हो जाय तो वह गांव में अथवा जंगल में जीव-जन्तु से रहित स्थान देखकर वहां घास का बिछौना बनावे । फिर श्राहार का त्याग करके उस बिछौने पर वह भिक्षु अपने शरीर को रख दे और मनुष्य प्रादि उसको जो संकट दें उनको सहन करे पर मर्यादा का उल्लंघन न करे । [४-८] नोट---यहाँ १ से २५ तक आठवे उद्देशक की संख्या है ।
इसमें सूत्र संख्या नहीं है । ऊपर नीचे चलने वाले और वहां फिरने वाले जीव-जन्तु उस भिक्षु के मांस-लोही को खावें तो वह उनको मारे नहीं और उनको
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