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लोकसार
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मनुष्य जितेन्द्रि हो कर विचरे ! जो अपने कार्य सफल करना चाहता है, उस वीर मनुष्य को ज्ञानी की आज्ञा के अनुसार पराक्रम करना चाहिये । [१६३, १६८]
गुरु परम्परा से ज्ञानी के. उपदेश को जाने अथवा जाति स्मरण ज्ञान से या दूसरे के पास से सुनकर जाने | गुरुकी आज्ञाका कदापि उबंधन न करे और उसे बराबर समझ कर सत्य को ही पहिचाने । [१६७, १६८]
जिसको तू मारता है, वह तू ही है, जिसको तू वश में करना चाहता है, वह भी तू ही है; जिसको तू परिताप देना चाहता है, वह भी तू ही है, जिसको तू दबाना चाहता है, वह भी तू ही है; जिसको तू मार डालना चाहता है, वह भी तू ही है। ऐसा जान कर वह सरल और प्रतिबुद्ध मनुष्य किसी का हनन नहीं करता और न कराता ही है। वह मनुष्य प्रोजस्वी होता है, जिसकी कोई प्रतिष्ठा नहीं है ऐसे अप्रतिष्ठ आत्मा को वह जानता है। [१६४ १६५, १७०]
ऊपर, नीचे और चारों तरफ कर्म के प्रवाह बहते रहते हैं। इन प्रवाहों से आसक्ति पैदा होती है, वही संसार में भटकाने का कारण है। ऐसा समझ कर वेदवित् (ज्ञानवान्) इनसे मुक्त हो । इन प्रवाहों को त्याग कर और इनसे बहार निकल कर वह पुरुष अकर्मी हो जाता है । वह सब कुछ बराबर' समझता और जानता है। जन्म और मृत्यु का स्वरूप समझ कर वह किसी प्रकार की इच्छा नहीं करता । वह जन्म और मृत्यु के मार्ग को पार कर चुका होता है । जिसका मन बहार कहीं भी नहीं भटकता, ऐसा वह समर्थ मनुष्य किसी से भी पराभव पाये बिना निरावलम्बन (भोगों के पालम्बन से रहितता-अात्मरति)में रह सकता है। [१६६,१६७)
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