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लोकविजय
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जो कामभोगों से ऊपर उठ जाते हैं वे वास्तव में मुक्त ही हैं । अकाम से काम को दूर करते हुए वे प्राप्त हुए कामभोगों में नहीं फंसते । [४]
भगवान् के इस उपदेश को समझने वाला और सत्य के लिये उद्यत मनुष्य फिर इस तुच्छ भोगजीवन के लिये पापकर्म न करे और अनेक प्रवृत्तियों द्वारा किसी भी जीव की हिंसा न करे और न दूसरों से करावे । सब जीवों को प्रायुष्य और सुख प्रिय है तथा दुख और प्राधात अप्रिय है। सब ही जीव जीवन की इच्छा रखते हैं और इसी को प्रिय मानते हैं । प्रमाद के कारण अब तक जो कष्ट जीवों को दिया हो, उसे बराबर समझ कर, फिर वैसा न करना ही सच्चा विवेक है । और यही कर्भ की उपशांति है । आर्य पुरुषों ने यही मार्ग बताया है । यह समझने पर मनुष्य फिर संसार में लिप्त नहीं होता । [ १६, ८०, ६७, ७६ ]
जैसा भीतर है, वैसा बाहर है; और जैसा बाहर है वैसा भीतर है। पंडित मनुष्य शरीर के भीतर दुर्गन्ध से भरे हुए भागों को जानता है और शरीर के मल निकालने वाले बाहरी भागों के स्वरूप को बराबर समझता है। बुद्धिमान इसको बराबर समझ कर, बाहर निकाली हुई लार को चाटने वाले बालक की तरह त्यागे हुए भोगों में फिर नहीं पड़ता । [१३-१४]
विवेकी मनुष्य अरति के वश नहीं होता, उसी प्रकार वह रति के वश भी नहीं होता । वह अविमनस्क (स्थितप्रज्ञ ) है। वह
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