Book Title: Adhyatma Vyakhyanmala
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal

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Page 49
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ते अफल मिच्छा दुक्कडं, तिविहं तिविहनी रीत; जिनजी ॥७॥ प्रभु वात मुज मननी सहु, जाणो ज छो जगनाथ; स्थिरभावे जो तुमचो लहु, तो मिले शिवपुर साथ. जिनजी ॥ ८ ॥ प्रभु मिले हुं स्थिरता लहुं, तुजविरहे चंचलभाव; एकवार जो तन्मय रमुं, तो करु अचलस्वभाव. जिनजी॥९॥ प्रभु छो क्षेत्र विदेहमां, हुं रहुं भरत मजार; तोपण प्रभुना गुणविषे, राखुं स्वचेतन सार. जिनजी ॥ १० ॥ जो क्षेत्रभेद टळे प्रभु, तो सरे सघळां काज; सन्मुखे भाव अभेदता, करी वरु आतमराज. जिनजी ११ परपुंठे इहा जेहनी, एवडी जे छे स्वाम; हाजर हजुरी ते मळे, निपजे ते केटलो कामः जिनजी |१२| हुं इंद्र चंद्र नरेन्द्रनो, पद न मागुं तिल मात्र; मागुं प्रभु मुज मन थकी, न वीसरो क्षण मात्र. जिनजी. १३ ज्यां पूर्ण शुद्ध स्वभावनी, नवि करी शकुं निज रूद्धि; तिहां चरणशरण तुम्हारडा, एहिज मुज नवनिधि. जिनजी. १४ माहरी पूर्व विराधना, योगे पडयो ए भेद; पण वस्तु धर्म विचारतां, तुज मुज नहि छे भेद जिनजी. १५ प्रभु ध्यान रंग अभेदथी, करू आतमभाव अभेद; छेदी विभाव अनादिनो, अनुभवं स्वसंवेद्य. जिनजी. १६ विनवुं अनुभव मित्रने, तुं न करीश पररसचाह; शुद्धात्मरस रंगी थइ, कर पूर्ण शक्ति अवाह. जिनजी. १७ जिनराज सीमंधर प्रभु, ते मळ्यो कारण शुद्ध; हवे आत्मरुद्धि निपाववी, शी ढील करीए बुद्ध. जिनजी. १८ कारणे कार्य सिद्धिनो, करवो घटे न विलंब; साधवी पूर्णानंदता, निजकर्तृता अवलंब जिनजी. १९ निजशक्ति प्रभुगुणमयी रमे, ते करे पूर्णानन्दः For Private And Personal Use Only

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