Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust
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न हो, तो वह सम्पत्ति होने पर भी न होने के समान है। इसी प्रकार सभी विशेष भावों को तथा स्व-पर को जाननहार, जनावने वाला ज्ञान ही है ।
'ज्ञान- ज्ञान आत्मा का स्वरूप है। आत्मा के सभी गुणों में ज्ञान गुण प्रधान है। वस्तुतः ज्ञान स्वसंवेदन से विलसित है। ज्ञान के जानपना होने से वह अपने आप को जानता है, अपना (शुद्धात्मा या परमात्मा का) अनन्त वैभव प्रकट करता है। अपने आप को जानने से ज्ञान शुद्ध है। ज्ञान में ऐसी शक्ति है कि वह त्रिकालवत सभी पदार्थों को और उनकी सम्पूर्ण पर्यायों को एक साथ एक समय में जानता है। यदि ज्ञान न जाने, तो अनुभव नहीं हो सकता। बिना अनुभव के कुछ हुआ या नहीं हुआ बराबर है। यदि यह ज्ञान नहीं होता, तो परमात्मा राजा की विभूति कौन प्रकट करता? परमात्मा राजा ने ज्ञायक होने के कारण ही सभी मन्त्रियों में ज्ञान को प्रधानमंत्री बनाया। वास्तव में राजा का राज्य प्रशासन ज्ञान से ही चलता है।
स्वभाव से ज्ञान अपने में स्थिर, गुप्त, अखण्ड, ध्रुव तथा आनन्दविलासी है। गुण अपने लक्षण की रक्षा करने के कारण क्षत्रिय कहा जाता है तथा निर्विकल्प रीति बदलने का व्यापार करने से वैश्य एवं ब्रह्म ज्ञान में व्याप्त होने से ब्राह्मण और पर्याय -वृत्ति से सब गुणों की सेवा करने के कारण शूद्र कहा जाता है। ज्ञान निज सत्ता-गृह में अपने स्वरूप में रहता है। ज्ञान गुण की अनन्त महिमा है, क्योंकि सभी गुणों की महिमा प्रकट करने वाला ज्ञान ही है। ब्रह्म स्वरूप का आचरण करने के कारण ज्ञान ब्रह्मचारी कहा जाता है, निज सत्तागृह में रहने के कारण गृहस्थ तथा अपने स्वरूप में रहने के कारण 'वानप्रस्थ' कहा जाता है। अपनी ज्ञायक परिणति को साधने के कारण ज्ञान 'साधु' कहा जाता है ।
परमात्मा राजा ज्ञान से ही सब को जानता है। ज्ञानमन्त्री ही उसे सबकी जानकारी देता है। वास्तव में परमात्मा राजा ने अपना सर्वस्व ज्ञानमन्त्री को ही सौंप दिया है, क्योंकि विशेष अतीन्द्रिय आनन्द की ऋद्धि ज्ञान ही प्राप्त करता है। अतः राजा के लिए ज्ञान से अन्य महान् कोई नहीं है।
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