Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 14
________________ [13] RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRC सम्यक्त्व नामक चौथा अध्ययन - इस अध्ययन में सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप रूप भाव सम्यक्त्व का स्वरूप समझाया मया है। इसी भाव सम्यक्त्व के परिप्रेक्ष्य में चारों उद्देशकों में वस्तु तत्त्व का सांगोपांग प्रतिपादन किया गया है। लोकसार नामक पांचवां अध्ययन - सम्यक्त्व और ज्ञान का फल चारित्र हैं और चारित्र मोक्ष का कारण है जो कि लोक का सार है। अतः इस अध्ययन में लोक का सार चारित्र का वर्णन किया गया है। संसारी लोग धन को जुटाने, कामभोग के साधन जुटाने, शरीर की सुखसुविधा जुटाने आदि में ही लोक का सार समझते हैं। किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि में ये सब पदार्थ सारहीन, क्षणिक एवं नाशवान हैं। आत्मा को पराधीन बनाने वाले और अनन्त दुःख परम्परा को बढ़ाने वाले हैं। ज्ञानियों की दृष्टि में ये सब निस्सार हैं। सार वस्तु तो सम्यग् ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप है। जिसमें अनन्त अव्याबाध सुख रहा हुआ है। तीन लोक का यदि कोई सार है तो वह शुद्ध संयम के पालन में है क्योंकि इसके द्वारा मोक्ष प्राप्त होने वाला है। इस अध्ययन के छह उद्देशक हैं। .. धूताख्य नामक छठा अध्ययन - पांचवें अध्ययन में लोक में सारभूत संयम और मोक्ष बतलाया गया है। मोक्ष की प्राप्ति निःसंग हुए बिना और कर्मों का क्षय किये बिना नहीं होती है। इस अध्ययन में कर्मों के विधूनन का यानी क्षय करने का उपदेश दिया गया है। इस अध्ययन के पांच उद्देशक हैं। प्रत्येक उद्देशक में भावधूत (कर्मक्षय करने के विभिन्न पहलुओं पर जैसे स्वजन परित्याग, साधु जीवन उपकरणों पर से ममता हटाना, यथाशक्ति कायाक्लेश करना, उपसर्ग परीषहों को समभाव पूर्वक सहन करना आदि) पर चर्चा की गई है। - महापरिजा नामक सातवां अध्ययन - नंदी सूत्र की मलयगिरि टीका और नियुक्ति के अनुसार यह सातवां अध्ययन है। इसके सात उद्देशक हैं। वर्तमान में यह अध्ययन विच्छिन्न हैं। वैसे महापरिज्ञा का अर्थ महान्-विशिष्ट ज्ञान के द्वारा मोह जनित दोषों को जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से उनका त्याग करना। तात्पर्य यह है कि साधक मोह उत्पन्न करने वाले कारणों को जानकर उनको क्षय करने के लिए महाव्रत, समिति गुप्ति, परीषह उपसर्ग सहनरूप तितिक्षा, विषय कषाय विजय, बाह्य-आभ्यंतर तप, संयम एवं आत्मालोचन आदि को स्वीकार करे, यही महापरिज्ञा है। विमोक्ष नामक आठवां अध्ययन - सातवां अध्ययन महापरिज्ञा जो वर्तमान में विच्छिन्न है, जिसमें मोह जनित दोषों को जानकर उन्हें छोड़ने का कहा है इस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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