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तुलसी प्रज्ञा TULSI PRAJNA
वर्ष 300 अंक 116-117 • अप्रैल-सितम्बर, 2002
Research Quarterly
अनुसंधान त्रैमासिकी
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तुलसी प्रज्ञा. TULSI PRAJŇĀ
Research Quarterly of Jain Vishva Bharati Institute
VOL.-116-117
APRIL-SEPTEMBER, 2002
णाणस्स
सारमायारो
Patron
Sudhamahi Regunathan
Vice-Chancellor
Editor in Hindi Section Dr. Mumukshu Shanta Jain
English Section
Dr. Jagat Ram Bhattacharya
Editorial-Board
Dr. Mahavir Raj Gelra, Jaipur Prof. Satyaranjan Banerjee, Calcutta Dr. R.P. Poddar, Pune
Dr. Gopal Bhardwaj,Jodhpur Prof. Dayanand Bhargava, Ladnun Dr. Bachh Raj Dugar, Ladnun
Dr. Hari Shankar Pandey, Ladnun Dr. J.P.N. Mishra, Ladnun
Publisher:
Jain Vishva Bharati Institute, Ladnun-341 306
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Research Quarterly of Jain Vishva Bharati Institute VOL. 116-117
APRIL-SEPTEMBER, 2002
Editor in Hindi Dr. Mumukshu Shanta Jain
Editor in English Dr. Jagat Ram Bhattacharya
Editorial Office Tulsi Prajna, Jain Vishva Bharati Institute (Deemed University)
LADNUN-341 306 (Rajasthan)
Publisher
: Jain Vishva Bharati Institute (Deemed University)
Ladnun-341 306 (Rajasthan)
Type Setting : Jain Vishva Bharati Institute (Deemed University)
Ladnun-341 306 (Rajasthan)
Printed at
: Jaipur Printers Pvt. Ltd., Jaipur-302015 (Rajasthan)
Sbuscription (Individuals) Three Year 250/-, Life Membership Rs. 1500/Sub-Institutions/Libraries) Annual Rs. 200/
The views expressed and facts stated in this journal are those of the writers, the Editors may not agree with them.
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अनुभूति में विवेचन नहीं होता, चिन्तन में गति नहीं होती। अनुभूति का परिपाक विवेक में होता है
और विवेक का परिपाक होता है मनन में। मनन क्या है ? ज्ञान और आचरण की रेरवाओं का समीकरण ही तो मनन है।
- आचार्य महाप्रज्ञ
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विषय
अनुक्रमणिका / CONTENTS
जैन दर्शन में विश्व की अवधारणा
सम्यग् व्यवहार में अनेकान्तदृष्टि
अर्द्धमागधी आगमों में उपचार वक्रता अपभ्रंश भाषा और साहित्य का संक्षिप्त इतिहास
जैन दर्शन में ' नय' सिद्धान्त का उद्भव
जैन साधना पद्धति : मनोऽनुशासनम् महर्षि पाराशर का नैतिक दर्शन
आचार्य हरिभद्र की समन्वयात्मक दृष्टि
साधना के दो तट : उत्सर्ग और अपवाद
संस्कृत जैन स्तोत्र काव्य
Subject
Acaranga-Bhāṣyam
Presindential Address
हिन्दी खण्ड
लेखक
समणी मंगलप्रज्ञा
डॉ. अशोककुमार जैन
डॉ. हरिशंकर पाण्डेय
जैन साध्वी डॉ. मधुबाला
डॉ. अनेकान्त कुमार जैन
डॉ. हेमलता बोलिया
डॉ. आनन्दप्रकाश त्रिपाठी 'रत्नेश'
डॉ. जिनेन्द्र जैन
साध्वी पीयूषप्रभा
प्रकाश वर्मा (सोनी)
अंग्रेजी खण्ड
Author
पृष्ठ
3 in m 3 =
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23
33
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55
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67
73
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Acarya Mahaprajña
Mahamahopadhyaya Haraprasad Sastri 105
87
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जैन दर्शन में विश्व की अवधारणा
- समणी मंगलप्रज्ञा
जैन दर्शन में विश्व की अवधारणा बहुत व्यापक है। वहां पर लोक शब्द से इस अवधारणा का प्रस्तुतीकरण हुआ है। जिसको व्यवहार में हम विश्व कहते हैं। वह इस लोक का एक बिन्दु सदृश अंश है। फिर भी हमने सामान्य रूप से लोक के लिए विश्व शब्द का प्रयोग किया है। जैन दर्शन का द्वैतवाद
वस्तुवादी होने के साथ-साथ जैनदर्शन द्वैतवादी भी है। उसके अनुसार लोक में जो कुछ है वह सब द्विपदावतार है।' विश्व के मूल में चेतन और अचेतन-ये दो तत्त्व हैं, अन्य सभी प्रमेय इन दो तत्त्वों के ही अवान्तर भेद हैं । वे दो तत्त्व परस्पर विपरीत धर्मों से युक्त हैं। यथा--जीव-अजीव, त्रस-स्थावर, सयोनिक-अयोनिक इत्यादि । स्थानांग में प्राप्त यह वर्गीकरण जैनदर्शन की इस अवधारणा को प्रस्तुत कर रहा है कि अस्तित्व सप्रतिपक्ष होता है। पक्ष-प्रतिपक्ष से रहित अस्तित्व की सत्ता ही नहीं है। जैन दर्शन का दृष्टिकोण अनेकान्तवादी है। इसलिए वह न सर्वथा चैतन्याद्वैतवादी है और न ही जड़ाद्वैतवादी। वह चेतन और अचेतन दोनों की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार करता है।
जैनदर्शन के अनुसार यह लोक जीव और अजीव की समन्विति है। जीव एवं अजीव अनन्त हैं तथा वे शाश्वत भी हैं। इसका तात्पर्य हुआ कि मूल तत्त्व का न कभी उत्पाद होगा और न ही सर्वथा विनाश होगा। मात्र परिवर्तन होता रहेगा। जिसे जैनदर्शन परिणामी नित्य कहता है। वस्तु में परिवर्तन होने पर भी उसका अस्तित्व बना रहेगा। संख्यात्मक दृष्टि से जीव-अजीव के अनन्त होने के कारण लोक-व्यवस्था का सम्यक् संचालन होता रहेगा। अनन्त जीवों के मुक्त हो जाने पर भी जीव और पुद्गल की अन्तःक्रिया से होने वाली सृष्टि लोक में होती रहेगी। परिमितात्मवाद मानने वालों के सामने जो समस्या है वह जैनदर्शन के समक्ष नहीं है।
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जीव और अजीव का विस्तार ही पंचास्तिकाय, षड्द्रव्य अथवा नव तत्त्व है। स्थानांग में जीव और अजीव को लोक कहा है। भगवती में पंचास्तिकाय को लोक कहा गया है। आगम में षड्द्रव्यों का उल्लेख तो है' किन्तु उन्हें 'लोक' संज्ञा से अभिहित नहीं किया गया है। इससे फलित होता है कि लोक को 'षड्द्रव्यात्मक मानने की अवधारणा उत्तरकालीन है।
भगवान् महावीर के अनुसार जीव अजीव का प्रतिपक्षी है और अजीव जीव का प्रतिपक्षी । एक के बिना दूसरे के अस्तित्त्व को सिद्ध नहीं किया जा सकता। जीव और अजीव की स्वतंत्र सत्ता है । जीव अजीव से उत्पन्न नहीं होता है और न ही अजीव जीव से उत्पन्न होता है। ये दोनों शाश्वत तत्त्व हैं। इनमें पौर्वापर्य नहीं है ।
पौर्वापर्य की अवधारणा
अनगार रोह के लोक- अलोक, जीव-अजीव आदि के परस्पर पौर्वापर्य सम्बन्धी प्रश्नों के उत्तर में भगवान् उनके पौर्वापर्य का निषेध करते हैं। ° रोह के प्रश्न और महावीर के उत्तर के अध्ययन से जीव - अजीव, लोक- अलोक आदि के अनादित्व का सिद्धांत फलित होता है।
सृष्टि रचना : अद्वैतवाद एवं द्वैतवाद
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जीव- अजीव के पौर्वापर्य का अभाव सृष्टि रचना के संदर्भ में एक नयी अवधारणा प्रस्तुत करता है। सृष्टि रचना के संदर्भ में दर्शन धाराओं को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है – अद्वैतवादी और द्वैतवादी । अद्वैतवादी दार्शनिक चेतन का और अचेतन का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार जीव और अजीव में से किसी एक तत्त्व का वास्तविक अस्तित्व है।" अद्वैतवाद की मुख्य दो शाखाएं हैं - 1. जड़ाद्वैतवाद, 2. चैतन्याद्वैतवाद । जड़ाद्वैतवाद और चैतन्याद्वैतवाद - ये दोनों कारणानुरूप कार्योत्पत्ति के सिद्धांत को स्वीकार नहीं करती हैं। जड़ाद्वैत के अनुसार पंचभूतों के सम्मिश्रण से ही चैतन्य उत्पन्न हो जाता है चैतन्य की स्वतंत्र सत्ता नहीं है। चैतन्याद्वैत के अनुसार यह सम्पूर्ण जगत ब्रह्म / चेतना का विस्तार मात्र है। चेतन भिन्न जड़ का कोई अस्तित्व नहीं है ।
द्वैतवादी दर्शन जड़ और चैतन्य दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व मानते हैं । इनके अनुसार चैतन्या चैतन्य से जड़ उत्पन्न नहीं होता । कारण के अनुरूप ही कार्य का प्रादुर्भाव होता है ।
जैन दृष्टि के अनुसार विश्व एक शिल्पगृह है। उसकी व्यवस्था स्वयं उसी में समाविष्ट नियमों द्वारा होती है। ये नियम जीव और अजीव के विविध जातीय संयोग से स्वतः निष्पन्न है 12
जैनदर्शन में लोक एवं अलोक इन दो शब्दों का प्रयोग हुआ है। जैन अवधारणा के अनुसार अलोक का अर्थ है केवल आकाश और लोक का अर्थ है चेतन और अचेतन तत्त्व से संयुक्त आकाश ।" जैन दर्शन के अनुसार लोक और अलोक का विभाग नैसर्गिक है, अनादिकालीन
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है । वह किसी ईश्वरीय सत्ता द्वारा कृत नहीं है। लोक की स्वीकृति प्रायः सभी दर्शनों ने की है। जगत् या सृष्टि को सब मानते हैं किंतु अजगत या असृष्टि को कोई दार्शनिक स्वीकार नहीं करता। यह भगवान् महावीर की मौलिक देन है। इससे पक्ष और प्रतिपक्ष तथा विरोधी युगल का सिद्धांत फलित हुआ है। इसकी व्याख्या का सिद्धान्त है - अनेकान्तवाद । जगत् विरोधी युगलात्मक है । अनेकान्त या सापेक्षवाद के बिना उसकी व्याख्या नहीं की जा सकती।' जगत् का मूल कारण
सृष्टि के मूल के अन्वेषण की शोध चिरकाल से चली आ रही है। वेद, उपनिषद् के ऋषि और यूनान के दार्शनिक भी इस खोज में संलग्न रहे हैं और उन्होंने नाना प्रकार के मत प्रतिपादित किए हैं।
वेदों में जगत् के मूल कारण की खोज
ऋग्वेद का दीर्घतमा ऋषि जगत् के मूल कारण का अन्वेषण करता है । उसकी प्रारम्भिक अवस्था मात्र प्रश्नायित दृष्टि से युक्त है ।" प्रश्न का समाधान उसे उपलब्ध नहीं होता है तो वह कहता है - मैं तो नहीं जानता।” फिर भी वह अपनी अन्वेषण की वृत्ति का त्याग नहीं करता है और अन्त में कह देता है कि " एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति" । सत् तो एक ही है किन्तु प्रबुद्धजन उसका वर्णन अनेक प्रकार से करते हैं। पण्डित दलसुख मालवणिया ने दीर्घतमा के इस विचार की तुलना अनेकान्त से करते हुए कहा है कि " दीर्घतमा के इस उद्गार में ही मनुष्य-स्वभाव की उस विशेषता का हमें स्पष्ट दर्शन होता है, जिसे हम समन्वयशीलता कहते हैं । इसी समन्वयशीलता का शास्त्रीय रूप जैनदर्शन- सम्मत स्याद्वाद या अनेकान्तवाद है। 19
इसी प्रकार नासदीय सूक्त का ऋषि भी जगत् के उपादान कारण को खोज रहा है। ऋषि कह रहा है, और उस समय न असत् था, न सत् 120 वह सत्-असत् दोनों का ही निषेध करता है किंतु प्रतीत होता है कि वह परम तत्त्व को अभिव्यक्त करने में शब्द- - शक्ति को असमर्थ पाता है । सत्य के अनेकान्तात्मक स्वरूप को शब्द एक साथ प्रकट नहीं कर सकता है तब ऋषि निषेध की भाषा बोलता है। महावीर इस तथ्य को विधेयात्मक भाषा में प्रस्तुत कर सत्-असत् दोनों की ही आपेक्षिक सत्ता स्वीकार करते हैं । भगवान् महावीर के दर्शन के अनुसार अस्तित्त्व सप्रतिपक्ष होता है। केवल सत् अथवा केवल असत् नाम की कोई वस्तु ही नहीं है । वस्तु का स्वरूप सदसदात्मक है । स्थानांग के वर्णन से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है । 22
उपनिषद् में विश्वकारणता
विश्व के कारण की जिज्ञासा में से अनेक विरोधी मतवाद उत्पन्न हुए, जिनका निर्देश उपनिषदों में हुआ है। विश्व का मूल कारण क्या है ? वह सत् है या असत् ? सत् है तो पुरुष है या पुरुषेतर - जल, वायु, अग्नि, आकाश आदि में से कोई एक ? इन प्रश्नों का उत्तर
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उपनिषदों के ऋषियों ने अपनी-अपनी प्रतिभा शक्ति के अनुरूप दिया है। उपनिषद् साहित्य ने विश्व कारणता के सम्बन्ध में नाना मतवादों की सृष्टि खड़ी कर दी है।
तैत्तिरीय-उपनिषद् के अनुसार केवल वही तत्त्व इस वस्तु जगत् का चरम सत्य है, जिससे समस्त वस्तुओं की उत्पत्ति हुई है, जो समस्त वस्तुओं की सत्ता का आधार है और जिसमें अनन्त समस्त वस्तुओं का लय होता है । तैत्तिरीय उपनिषद् में ही सृष्टि से सम्बंधित अन्य मतों का उल्लेख हुआ है। ऋषि कहता है - पहले असत् था, उससे सत् उत्पन्न हुआ है। बृहदारण्यक एवं छान्दोग्य उपनिषद् में भी असत् से सत् की उत्पत्ति का सिद्धान्त प्रतिपादित है। उपनिषद् अनेक ऋषियों के विचारों का संग्रह है, वहां एक ही उपनिषद् में सृष्टि से सम्बंधित परस्पर विरोधी विचार उपलब्ध हैं। छान्दोग्य में जहां एक ऋषि असत् से सत् की उत्पत्ति का सिद्धान्त मान्य करता है वहीं दूसरा उसका निराकरण कर सत् से सृष्टि के निर्माण के सिद्धान्त को स्वीकार करता है।" बृहदारण्यक का ही दूसरा ऋषि जल को जगत् का मूल स्रोत मानता है।
प्रवाहण जैवलि ने आकाश को मूल तत्त्व बतलाया है। प्रवाहण जैवलि से पूछा गया कि पदार्थों की चरम गति क्या है ? उन्होंने उत्तर की भाषा में कहा-आकाश । उनके अनुसार समस्त पदार्थों का उद्भव आकाश से ही होता है और अन्त में आकाश में ही उनका विलय हो जाता है।"
सृष्टि सम्बंधित उपनिषद् के विचारों को संक्षेप में हम चार भागों में विभक्त कर सकते हैं -
1. असत् जगत् का मूल तत्त्व है। 2. सत् जगत् का मूल तत्त्व है। 3. अचेतन जगत् का मूल तत्त्व है।
4. आत्माब्रह्म जगत् का मूल तत्त्व है। युनानी दार्शनिकों का मन्तव्य
ग्रीक दार्शनिक थेलिज जल को जगत् का मूल कारण मानता है। उसके अनुसार सृष्टि के प्रारम्भ में केवल जल का ही अस्तित्व था।
- एनेक्जीमेण्डर के अनुसार असीम (Boundless something) नामक पदार्थ विश्व का मूल तत्त्व थ। जो पूरे आकाश में व्याप्त था। एनेक्जीमेंडर ने इस तत्त्व को God नाम से अभिहित किया है। यद्यपि यह स्पष्ट है कि एनेक्जीमेंडर का God भौतिक पदार्थ ही है।
एनेक्जीमेनस के अनुसार सम्पूर्ण वस्तुओं का आदि और अन्त वायु है। पाइथागोरस के अनुसार जो कुछ अस्तित्व है वह संख्यात्मक रूप में रहता है। इन्होंने संख्या को मूल माना है । हेराक्लाइट्स अग्नि को विश्व का मूल तत्त्व मानता है ।34
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जैन आग़मों में विश्व
जैन आगम साहित्य में भी विश्व के कारण की जिज्ञासा परलक्षित है। यह लोक (विश्व) क्या है ? उत्तर दिया गया जीव और अजीव 35 आगम प्रवक्ता के अनुसार असत् विश्व का कारण नहीं हो सकता। सत् ही विश्व का कारण है किंतु वह सत् एकात्मक नहीं है, द्विरूप है । चेतन और अचेतन स्वरूप है। जैन दर्शन सृष्टि के सम्बन्ध में द्वैतवादी है। चेतन और अचेतन की स्वतंत्र सत्ता है। ये एक-दूसरे से पैदा नहीं होते हैं। इन दो तत्त्वों का ही विस्तार करके लोक को पंचास्तिकायमय माना गया है" अथवा षड्द्रव्यात्मक भी कहा गया है। 7 वस्तुतः ये पांच अस्तिकाय या छह द्रव्य जीव और अजीव के ही विस्तार हैं। सृष्टि के सम्बन्ध में जैन दर्शन को द्वितत्त्ववादी अथवा बहुतत्त्ववादी कहा जा सकता है।
जैन दर्शन में सृष्टि के पौर्वापर्य के सम्बन्ध में प्रश्न उपस्थित किये गये हैं । भगवान् महावीर उनमें परस्पर आनुपूर्वी बतलाकर इनमें पूर्व-पश्चात् क्रम का निषेध करते हैं |38 भगवान् महावीर के अनुसार सृष्टि चक्र पौर्वापर्य मुक्त अर्थात् अनादिकाल से चल रहा है। विश्व की व्यवस्था स्वयं उसी में समाविष्ट नियमों के द्वारा होती है। ये नियम जीव और अजीव के विविध जातीय संयोग से स्वतः निष्पन्न हैं। इसमें ईश्वर कर्तृत्व का अस्वीकार स्वतः स्फुट है।
लोक का आकार
जैन दर्शन के अनुसार लोक (विश्व) का आकार भी स्थायी एवं अनादि है। रोह के लोकान्त - अलोकान्त, लोकान्त- अवकाशान्तर आदि से सम्बन्धित पौर्वापर्य की जिज्ञासा के संदर्भ में प्रस्तुत भगवान महावीर के उत्तर से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है ।
जैन दर्शन में लोक- अलोक का आकार
भगवती सूत्र में द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक एवं भावलोक – इन चार प्रकार के लोक का कथन है ।" लोक के आकार का सम्बन्ध क्षेत्रलोक से है। अलोक के संस्थान को रेखांकित करते हुए कहा गया है कि अलोक पोले गोल के समान है 12 वह लोक के चारों ओर व्याप्त है। लोक उसमें समाया हुआ है। उपमा की भाषा में लोक को आगासथिग्गलआकाशरूपी वस्त्र की एक कारी या थिगली कहा जा सकता है। अलोक की सीमा से सटा हुआ सातवां अवकाशान्तर है। उसके ऊपर सातवां तनुवात, फिर क्रमशः सातवां घनवात, सातवां घनोदधि और सातवीं पृथ्वी है। अवकाशान्तर, तनुवात, घनवात, घनोदधि और पृथ्वीये सभी सात-सात हैं
आचार्य महाप्रज्ञ ने इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा की है।
अवकाशान्तर - आकाश लोक और अलोक दोनों में विद्यमान है। लोक में सात अवकाशान्तर माने गए हैं। भगवती में आकाश के स्थान पर ' अवकाशान्तर' शब्द का प्रयोग मिलता है As तत्त्वार्थसूत्र में अवकाशान्तर के स्थान पर आकाश शब्द का प्रयोग मिलता है ।"
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प्रत्येक पदार्थ में अवकाश होता है। परमाणु भी अवकाशशून्य नहीं है। अवकाशान्तर का यह सिद्धान्त आधुनिक विज्ञान द्वारा समर्थित है । परमाणु के दो भाग हैं - इलेक्ट्रोन और प्रोट्रोन । इन दोनों के बीच एक अवकाश विद्यमान रहता है। दुनिया के समस्त पदार्थों में से यदि अवकाश को निकाल लिया जाए तो उसकी ठोसता आंवले के आकार से वृहत् नहीं होती । "
लोक सुप्रतिष्ठिक आकार वाला है। तीन शरावों में से पहला शराव ओंधा, दूसरा सीधा और तीसरा उसके ऊपर ओंधा रखने से जो आकार बनता है, उसे सुप्रतिष्ठिक संस्थान या त्रिशरावसंपुट संस्थान कहा जाता है। लोक नीचे विस्तृत है, मध्य में संकरा और ऊपर विशाल है ।" क्षेत्रलोक तीन भागों में विभक्त है – ऊर्ध्व लोक, अधो लोक और मध्य लोक 150 भगवती में इन तीनों प्रकार के क्षेत्रलोक का विस्तार से वर्णन भी उपलब्ध है ।" लोक चार प्रकार का है - द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक एवं भावलोक ।
द्रव्यलोक एक और सांत है 2 द्रव्यलोक पंचास्तिकायमय एक है, इसलिए सांत है। लोक की परिधि असंख्य योजन कोड़ाकोड़ी की है, इसलिए क्षेत्रलोक भी सांत है।
लोक पहले था, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा, इसलिए काललोक अनन्त है। S लोक में वर्ण, गंध, रस, स्पर्श एवं संस्थान के पर्यव अनन्त हैं तथा बादर स्कन्धों की गुरु-लघु पर्यायें, सूक्ष्म स्कन्धों और अमूर्त द्रव्यों की अगुरु-लघु पर्यायें अनन्त हैं, इसलिए भाव - लोक अनन्त हैं
1
जो दिखाई देता है, वह लोक है । " जे लोक्कइ से लोए" " भावलोक पर्याय रूप है वह स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है। जो दिखाई देता है, वह लोक है, इसलिए भावतः लोक का निरूपण वर्ण, गंध आदि के पर्यवों से किया गया है। पर्यव दो प्रकार के होते हैं - स्वभाव पर्यव और विभाव पर्यव । जीव और पुदगल में दोनों प्रकार के पर्यव रहते हैं। शेष द्रव्यों में स्वभाव पर्यव होता है। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श ये पुदगल के स्वभाव पर्यव हैं। एक परमाणु या स्कन्ध एक गुण काले रंग वाला यावत् अनन्तगुण काले रंग वाला हो जाता है। इसी प्रकार गंध, रस और स्पर्श में भी स्वाभाविक परिणमन होता रहता है। गुरु लघुपर्यव पुद्गल और पुद्गलयुक्त जीव में होता है। इसका सम्बन्ध स्पर्श से है। अगुरुलघु पर्यव एक विशेष गुण या शक्ति है। इस शक्ति से द्रव्य का द्रव्यत्व बना रहता है। चेतन अचेतन नहीं होता और अचेतन चेतन नहीं होता, इस नियम का आधार अगुरुलघु पर्यव ही है। इसी शक्ति के कारण द्रव्य के गुणों में प्रतिसमय षट्स्थानपतित हानि और वृद्धि होती रहती है। इस शक्ति को सूक्ष्म, वाणी से अगोचर, प्रतिक्षण वर्तमान और आगम प्रमाण से स्वीकारणीय बतलाया गया है।
द्रव्यानुयोग तर्कणा में द्रव्य के दस सामान्य धर्म बतलाए हैं, उनमें एक अगुरुलघु है । उसको सूक्ष्म एवं वाणी का अगोचर माना गया है | 9
पदार्थ दो प्रकार के होते हैं - भारयुक्त और भारहीन । भार का सम्बन्ध स्पर्श से है। वह पुद्गल द्रव्य का एक गुण है। शेष सब द्रव्य भारहीन अगुरुलघु होते हैं । पुद्गल द्रव्य
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भारयुक्त एवं भारहीन दोनों प्रकार का होता है । चतुःस्पर्शी तक के पुदगल स्कन्ध भारहीन तथा अष्टस्पर्शी भारयुक्त होते हैं ।
जैन दार्शनिक साहित्य में अगुरुलघु पर्यव, अगुरुलघु सामान्य गुण-इनका उल्लेख है। शब्द एक जैसे होने पर भी तात्पर्य में विभेद परिलक्षित है।
लोक एवं अलोक के परिमाण के संदर्भ में भी भगवती में विस्तार से वर्णन हुआ है।"
भगवान् महावीर ने भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा में प्रचलित आचार विषयक अवधारणाओं में संशोधन परिवर्धन किया था। किंतु तत्त्व-विवेचन पार्श्वनाथ की परम्परा जैसा ही था। यह विद्वानों का अभिमत है। भगवती में प्राप्त लोक का विवेचन इसी अभिमत की पुष्टि कर रहा है। पार्श्वनाथ के शिष्य भगवान महावीर के पास आकर लोक के सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रस्तुत करते हैं। भगवान् महावीर भगवान् पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिपादित कहकर लोक सम्बन्धी उनकी जिज्ञासा का समाधान करते हैं। इससे फलित होता है कि भगवान् पार्श्व एवं भगवान् महावीर की लोक सम्बन्धी अवधारणा समान थी। लोक की अवस्थिति
यह दृश्यमान जगत् किस पर ठहरा हुआ है ? पुराणों में शेषनाग कच्छप आदि पर विश्व अवस्थित है, ऐसी विभिन्न अवधारणाएं हैं। जैन दर्शन ने भी इस समस्या पर विचार किया है। जैन दर्शन के अनुसार लोक स्थिति के आठ प्रकार हैं
1. वायु आकाश पर स्थित है। 2. समुद्र वायु पर अवस्थित है। 3. पृथ्वी समुद्र पर स्थित है। 4. बस-स्थावर जीव पृथ्वी पर स्थित है। 5. अजीव जीव पर प्रतिष्ठित हैं। 6. जीव कर्म से प्रतिष्ठित हैं। 7. अजीव जीव के द्वारा संगृहीत हैं। 8. जीव कर्म के द्वारा संगृहीत हैं।
आकाश स्व-प्रतिष्ठित है, इसलिए उसका किसी पर प्रतिष्ठित होने का उल्लेख नहीं है। आकाश, वायु, जल और पृथ्वी-.ये विश्व के आधारभूत अंग हैं। विश्व की व्यवस्था इन्हीं के आधार-आधेय भाव से बनी हुई है । संसारी जीव और अजीव (पुद्गल) में आधारआधेय और संग्राह्य-संग्राहक भाव ये दोनों हैं । जीव आधार है और शरीर उसका आधेय । कर्म संसारी जीव का आधार और संसारी जीव उसका आधेय है।
जीव, अजीव (भाषा वर्गणा, मन वर्गणा और शरीर वर्गणा) का संग्राहक है। कर्म संसारी जीव का संग्राहक है। ........जीव और पुद्गल के सिवाय दूसरे द्रव्यों में आपस में तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2002
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संग्राह्य-संग्राहक भाव नहीं है। लोक-स्थिति में जीव और पुद्गल में संग्राह्य एवं संग्राहक भाव माना गया है 65
उदधि प्रतिष्ठित पृथ्वी है। पृथ्वी उदधि पर प्रतिष्ठित है, यह सापेक्ष वचन है। ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी आकाश पर प्रतिष्ठित है ।" त्रस - स्थावर प्राणी पृथ्वी पर प्रतिष्ठित हैं, यह भी सापेक्ष वचन है, क्योंकि त्रस - स्थावर प्राणी आकाश, पर्वत और विमान प्रतिष्ठित भी होते हैं 17
भगवती टीकाकार ने अजीव का अर्थ शरीर आदि पुद्गल किया है। इसका तात्पर्य यह है कि अजीव सृष्टि का जो नानात्व है, जितने दृश्य परिवर्तन और परिणमन हैं, वे जीव द्वारा कृत हैं। जो कुछ दिखाई दे रहा है, वह या तो जीवच्छरीर है या जीव- मुक्त शरीर है। इस अपेक्षा से अजीव जीव पर प्रतिष्ठित है ।
जीव का जितना नानात्व है, उसके जितने परिवर्तन और विविध रूप हैं, वे सब कर्म के द्वारा निष्पन्न हैं । इस अपेक्षा से जीव को कर्म-प्रतिष्ठित कहा गया है 4
अजीव-जीव के द्वारा संगृहीत है, उनमें कथंचित् एकात्मक सम्बन्ध स्थापित होता है, इसलिए उनमें परिवर्तन घटित होता है ।
कर्म का जीव के साथ सम्बन्ध स्थापित होता है, इसलिए उनके द्वारा जीव में परिवर्तन घटित होता है । भगवती के टीकाकार ने 'प्रतिष्ठित' की व्याख्या आधार-आधेय भाव के साथ तथा 'संगृहीत' की व्याख्या संग्राह्य-संग्राहक भाव के साथ की है। विश्व व्यवस्था के सार्वभौम नियम
ईश्वर कर्तृत्ववादियों के अनुसार जगत्-व्यवस्था का नियामक ईश्वर होता है। जैन दर्शन जगत्कर्त्ता के रूप में किसी भी ईश्वर या ईश्वरीय शक्ति को स्वीकार नहीं करता है ।° उसके अनुसार इस विश्व के कुछ स्वतः संचालित सार्वभौम नियम हैं, उनके माध्यम से ही यह विश्वव्यवस्था बनी हुई है ।
लोक-स्थिति उन सार्वभौम नियमों का ही निदर्शन है। स्थानांग सूत्र में ही विश्वव्यवस्था के संचालक दस नियमों का उल्लेख है.
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1. जीव बार-बार मरते हैं और पुनः पुनः वहीं उत्पन्न होते हैं ।
2. जीवों (संसारी) के सदा प्रतिक्षण पापकर्म का बंध होता है ।
3. जीवों के सदा, प्रतिक्षण मोहनीय व पापकर्म का बंध होता है ।
4. जीव कभी भी अजीव न तो हुए हैं, न हैं और न होंगे। वैसे ही अजीव कभी भी जीव नहीं हो सकते ।
• 5. त्रस जीवों का कभी व्यवच्छेद नहीं होगा और सब जीव स्थावर हो जाएं अथवा स्थावर जीवों का व्यवच्छेद हो जाए और सब जीव त्रस हो जाएं, ऐसा भी कभी नहीं होगा ।
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6. लोक कभी भी अलोक नहीं होगा, अलोक लोक नहीं होगा। 7. लोक कभी भी अलोक में प्रविष्ट नहीं होगा और अलोक कभी लोक में प्रविष्ट
नहीं होगा। 8. जहां लोक है वहां जीव है और जहां जीव है वहां लोक है। 9. जहां जीव और पुगलों का गतिपर्याय है वहां लोक है और जहां लोक है वहां ____ जीव और पुद्गलों का गतिपर्याय है। 10. समस्त लोकान्तों के पुद्गल दूसरे रुक्ष पुद्गलों के द्वारा अबद्धपार्श्वस्पृष्ट (अबद्ध
और अस्पृष्ट) होने पर भी लोकान्त के स्वभाव से रुक्ष हो जाते हैं, जिससे जीव
और पुद्गल लोकान्त से बाहर जाने में समर्थ नहीं होते। स्थानांग संख्या सूचक ग्रंथ है तथा उसमें एक से दस तक की संख्या वाले तथ्यों का ही संकलन हुआ है । जैन आगमों में जीव, कर्म, पुनर्जन्म आदि विषयों से सम्बंधित विपुल मात्रा में सार्वभौम नियमों का उल्लेख है।
सन्दर्भ : 1. ठाणं 2/1, जदत्थि णं लोगे तं सव्वं दुपओआरं । 2. (क) वही, 2/1, जीवच्चेव अजीवच्चेव। (ख) The New Encyclopaedia Britannica Vol. 6, P. 473. Jain metaphysics is a
dualistic system dividing the Universe into two ultimate and indepen dent categories soul or living substance (Jiva), which permeates natural forces such as wind and fire as well as plants, animals and human beings, and nonsoul or inanimate substance (ajiva) which include space, time
and matter. 3. ठाणं, 2/1 4. (क) वही, 2/147, के अयं लोगे? जीवच्चेव, अजीवच्चेव।
(ख) वही सूयगडो, 2/2/39 ..........दुहओ लोगं जाणेज्जा, तं जहा-जीवा चेव अजीवा चेव। 5. ठाणं, 2/418-19, के अणंता लोगे? जीवच्चेव, अजीवच्चेव, के सासयालोगे? जीवच्चेव अजीवच्चेव। 6. सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम, 5/30, तद्भावाव्ययं नित्यम्। 7. 7. ठाणं, 2/417 8. अंगसुत्ताणि भाग 2 ( भगवई), 13/53, पंचत्थिकाया, एस णं एवतिए लोए त्ति पुवच्चइ। 9. अंगसुत्ताणि भाग 2 ( भगवई), 13/61 10. वहीं, 1 11. (क) छान्दोगयोपनिषद्, (गोरखपुर, वि.सं. 2023) 14/1, सर्वं खल्विदं ब्रह्म।
(ख) काठकोपनिषद्, (पुणे, 1977) 2/1/11, नेह नानास्ति किंचन ।
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12. भगवई (खण्ड-1), पृ. 134-135 13. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 1/290 14. जैन सिद्धान्त दीपिका (ले. आचार्य तुलसी, चूरू, 1995) 1/8. 13 15. भगवई (खण्ड-1), पृ. 134, (सूत्र 288-307) 16. ऋग्वेद, 1/164/4 (नयी दिल्ली, 2000) 17. वही, 1/164/37 18. वही, 1/164/46 19. मालवणिया दलसुख, आगम युग का जैन दर्शन, पृ. 39 20. ऋग्वेद, 10/129, (दिल्ली, 2000) नासदासीनो सदासीत्तदानीं 21. अंगसुत्ताणि भाग 2 ( भगवई), 7/58, 59 22. ठाणं. 2/1 23. रानाडे, रामचन्द्र दतात्रेय, उपनिषद् दर्शन का रचनात्मक सर्वेक्षण, (जयपुर, 1989), पृ. 54-73 24. तैत्तिरीय उपनिषद् (संपा. हरिकृष्ण गोयन्दका, गोरखपुर, वि.सं. 2014) 3/1/1. तं होवाच । यतो वा इमानि
भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति। यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति । तद्विजिज्ञासस्व, तद् ब्रह्मेति। 25. वहीं, 2/7, असद्वा इदमग्र आसीत् । ततो वै सदजायत। 26. (क) बृहदारण्यकोपनिषद्, 1/2/1, नैवेह किंचनाग्र आसीत् मृत्युनैवेदम् आवृतम् आसीत्।
(ख) छान्दोगयोपनिषद्, 3/19/1, असदेवेदमग्र आसीत् तत्सदासीत्। 27. वही, 6/2/2, कुतस्तु खलु सौम्येवं स्यादिति होवाच कथमसतः संजायेतेति सत्त्वेव सोम्येदमग्र
आसीदेकमेवाद्वितीयम्। 28. बृहदारण्यकोपनिषद् 1/2/1, सोअन्नचरत् तस्यार्चत आपोअजायन्त अर्चत वै मेकमभूदिति.
तदेवार्कस्यार्कत्वम्.........आपो वा अर्कः.....सा पृथिव्य अभवत्। 29. छान्दोग्यउपनिषद्, 1/8/8, 1/9/1, तं ह प्रवाहणो जैवलिरुवाच......अस्य लोकस्य का गतिरित्याकाश इति
होवाच सर्वाणि ह वा इमानि भूतान्याकाशादेव समुत्पद्यन्त, आकाशं प्रत्यस्तम् यन्त्याकाशो ह्यर्वेभ्यो ज्यायानाकाश:
पराणम्। 30. भार्गव, दयानन्द वेदविज्ञान वीथिका, (जोधपुर, 1999) परिशिष्ट, पृ. 232-259 31. Gomperz Theodor, The Geek Thinkers. (1964) Vol. 1, P. 48 : Thales would have regarded
water, the principle of all dampness as the primary element, 32. Masih, y, A Critical History of Western Philosophy, (Delhi, 1999) P.5: However for him
primary matter was 'boundless something'...........Anaximander calls his infinite boundless
matter 'God'.........This God no doubt is matter. 33. Gomperz, Thcodar, The Greek Thinkers, Vol. I P. 56: He substituted air for water as the
primary principle which engendered. 34. Masih, y, A Critical Hisotry of Western Philosophy P. 7: Pythagoras declared that ____whatever exists, exists in number. 35. Ibid, P. 18 : For Heraclitus, not water or air is primordial stull. Process alone is reality and
is best symbolised by fire. 36. ठाणं, 2/417 37. अंगसुत्ताणि भाग-2 (भगवई) 13/53, पंचत्थिकाया. एस णं एवतिए लोए त्ति पवुच्चइ। 12 --- --- -
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38. जैन सिद्धान्त दीपिका, 1/8, षड्द्रव्यात्मको लोकः । 39. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 1/288-307 40. जैन सिद्धान्त दीपिका, 1/9, जीवपुद्गलोर्विविधसंयोगैः स विविधरूपः । 41. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई), 1/296-298 42. वही, 11/90, कतिविहे णं भंते ! लोए पण्णत्ते? चउव्विहे लोए पण्णत्ते,त्तं जहा-दव्वलोए, खेत्तलोए,
काललोए, भावलोए। 43. वही, 11/90, अलोए णं भंते ! किं संठिए पण्णत्ते? गोयमा! झुसिरगोलसंठिए पण्णत्ते । 44. उवंगसुत्ताणि 4 (खण्ड-2) (पण्णवणा) (संपा. युवाचार्य महाप्रज्ञ, लाडनूं, 1989) 15/153, आगासथिग्गले ___णं भंते! किणा फुडे ? कइहिं वा काएहिं फुडे ? 45. ठाणं. 7/14-22 46. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई), 20/16, ..........ओवासंतरे इ वा.....आगासत्थिकायस्स अभिवयणा। 47. सभाष्यतत्त्वार्थधिगम, 3/1, घनाम्बु-वाताकाशप्रतिष्ठाः सप्ताधोधः। 48. भगवई (खण्ड-1), पृ. 135 49. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 11/98, लोए णं भंते ! किंसठिए पण्णत्ते? गोयमा ! सुपइटरूठगसंठिए
पण्णत्ते, तं जहा-हेट्ठा विच्छिण्णे, मज्झे संखित्तं, उप्पिं विसाले....... । 50. वही, 11/98 51. वही, 11/91, खेत्तलोए एं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते? गोयमा! तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-अहेलोय खेत्तलोए,
तिरियलोए खेत्तालोए, उड्डलोय खेत्तलोए। 52. वही, 11/92-97 53. वही, 2/45, दव्वओ णं एगे लोए सअंते। 54. महाप्रज्ञ, आचार्य, जैन दर्शन मनन और मीमांसा, (चूरू, 1995), पृ. 218 55. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 2/45, ...........अस्थि पुण से अंते। 56. वही, 2/45 57. वही, 5/255 58. नयचक्र, (ले. माइल्लध्वल, नयी दिल्ली, 1971) गाथ 18, सब्भावं खु विहावं दव्वाणं पजयं जिणुद्दिढे ।
सव्र्वसिं च सहावं, विब्भावं जीवपोग्गलाणं च ॥ 59. भगवई (भगवई), पृ. 223-224 60. द्रव्यानुयोग तर्कणा (ले. कवि भोज, अगास, 1977) 11/4, अगुरुलघुता सूक्ष्मा वाग्गोचरविवर्जिता। 61. (क) अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 1/392-416 (ख) भगवई (खण्ड-1), पृष्ठ 390, अगुरुलघु चउफासो अरूविदव्वा य होंति नायव्वा।
सेसा उ अट्ठफासा गुरुलहुया निच्छयणयस्स।
गुरुलघुद्रव्यंरूपि, अगुरुलघुद्रव्यं त्वरूपि रूपि चेति । 62. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 11/109-110 63. उत्तराध्ययन (संपा. युवाचार्य महाप्रज्ञ, लाडनूं, 1993) 23वां अध्ययन 64. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 5/255, .........पासेणं अरहया पुरिसादाणिएणं सासए लोए बुइए।
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65. (क) वही, 1/310
(ख) ठाणं, 8/14 66. भगवई (खण्ड-1), पृ. 384, आकाशं तु स्वप्रतिष्ठितमेवेति न तत्प्रतिष्ठाचिन्ता कृतेति। 67. जैन दर्शन मनन और मीमांसा, पृ. 219 68. भगवई (खण्ड-1), पृ. 384, बाहुल्यापेक्षया चेदमुक्तम्, अन्यथा ईपत्प्राग्भारा पृथिवी आकाशप्रतिष्ठितव । 69. वही, पृ. 384, तथा पृथिवीप्रतिष्ठितास्त्रसस्थावराः प्राणाः इदमपि प्रायिकमेव अन्यथाकाशपर्वतविमान प्रतिष्ठिता ___अपि ते सन्तीति। 70. वही, पृ. 384, तथाजीवाः-शरीरादिपुद्गलरुपा जीवप्रतिष्ठिताः, जीवेपु तेषां स्थितत्वात्। 71. वही, पृ. 384, अथाजीवाः जीवप्रतिष्ठितास्तथाअर्जीवा जीवसंगृहीता इत्येतयोः को भेद: ? उच्यते-पूर्वस्मिन्
वाक्ये आधाराधेयभाव उक्त:, उत्तरे त संग्रह्य - संग्राहक भाव इति भेदः । यच्च यस्य संग्राह्य तत्तस्याधेयमप्यर्थापत्तितः स्याद् यथाअपूपस्य तैलमित्याधाराधेय भावोप्युत्तरवाक्ये दृश्य इति। तथा जीवा: कर्मसंगृहीताः संसारिजीवानामुदयप्राप्तकर्मवशवर्तित्वात्, ये च यद्वशास्ते तत्र प्रतिष्ठिताः । यथा घटे रूपादय इत्येवमिहाप्याधाराधेयता दृश्येति ।
निदेशक महादेवलाल सरावगी अनेकान्त शोधपीठ जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) लाडनूं-341306 (राजस्थान)
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सम्यग् व्यवहार में अनेकान्तदृष्टि
सूत्रकृताङ्ग के सन्दर्भ में
- डॉ. अशोककुमार जैन
भारतवर्ष की दो सांस्कृतिक परम्पराएं बहुत प्राचीन हैं। एक है श्रमण परम्परा और दूसरी है वैदिक परम्परा । दोनों परम्पराओं का विपुल वाङ्मय है। जिनमें ज्ञान - विज्ञान, न्याय-नीति, आचार-विचार की प्रचुर सामग्री विद्यमान है । वैदिक परम्परा में जो महत्त्व वेदों का है, बौद्ध परम्परा में त्रिपिटक का है, वही महत्त्व जैन परम्परा में आगम साहित्य का है। धर्म, संस्कृति और दर्शन – ये तीनों मानव-जीवन के विकास की सीमा रेखाएं हैं। इन तीनों को विभक्त नहीं किया जा सकता। तीनों का समन्वित रूप ही मानव-जीवन के लिए वरदान सिद्ध हो सकता है । संस्कृति जब आचारोन्मुख होती है तब उसे धर्म कहा जाता है और जब वह विचारोन्मुख होती है तब उसे दर्शन कहा जाता है। मूल आगम ग्रंथों में दार्शनिक तत्त्वों का विशद विवेचन किया गया है। बौद्धों के दीघनिकाय के 'सामञ्ञफलसुत्त' में जैसे तत्कालीन दार्शनिक मतवादों का वर्णन है वैसे ही सूत्रकृताङ्ग आगम में विभिन्न मतवादों का निरूपण है।
पंचभूतवाद, बकवाद - अद्वैतवाद या एकात्मवाद, देहात्मवाद, अज्ञानवाद, अक्रियावाद, नियतिवाद, आत्मकर्तृत्ववाद, सद्वाद, पंचस्कन्धवाद तथा धातुवाद आदि का प्रथम-स्कन्ध में प्ररूपण किया गया है । तत्पक्षस्थापन और निरसन का एक सांकेतिक अस्पष्ट सा क्रम है। द्वितीय- श्रुतस्कन्ध में पर मतों का खण्डन किया गया है - विशेषत: वहां जीव एवं शरीर के एकत्व, ईश्वरकर्तृत्व, नियतिवाद आदि की चर्चा है। प्राचीन दार्शनिक मतों, वादों और दृष्टिकोणों के अध्ययन के लिए सूत्रकृतांग का अत्यंत महत्त्व हैं ।
के
भगवान् महावीर के युग में 363 मतवाद थे। यह समवायगत सूत्रकृताङ्ग विवरण तथा सूत्रकृताङ्ग निर्युक्ति से ज्ञात होता है ।
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असियसयं किरियाणं अक्किरियाणं च होइ चुलसीति।
अन्नाणिय सत्तट्टी वेणइयाणं च बत्तीसा॥ तेसि मताणुमतेणं पन्नवणा वणिया इहउज्झयणे। सब्भावणिच्छयत्थं समोसरणमाहु तेणं ति॥
__- सुत्रकृतांग नियुक्ति गाथा 112, 113 सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के समवसरण अध्ययन में चार वादों का वर्णन प्राप्त होता है। ---- 1. क्रियावाद, 2. अक्रियावाद, 3. अज्ञानवाद, 4. विनयवाद । इनमें क्रियावादियों के 180, अक्रियावादियों के 84, अज्ञानवादियों के 67 तथा विनयवादियों के 32 प्रकार बतलाये गये हैं।
पालि साहित्य में महात्मा बुद्ध के समकालीन 6 तीर्थंकरों का उल्लेख मिलता है - पूरणकस्सप, मक्खलिगोसाल, अजितकेसकम्बलि, पकुधकच्चायन, संजयवेलट्ठिपुत्त तथा निगण्ठनातपुत्त (महावीर)। इनकी विचारधाराएं प्रमुख रूप से क्रियावादी, अक्रियावादी के रूप में चल रही थी, जो कर्म और उसके फल को मानते थे वे क्रियावादी थे। उसे जो नहीं मानते थे वे अक्रियावादी थे। भगवान् महावीर और तथागत बुद्ध – ये दोनों ही क्रियावादी थे, परन्तु दोनों के क्रियावाद में अन्तर था। तथागत बुद्ध ने क्रियावाद को स्वीकार करते हुए भी शाश्वत आत्मवाद को स्वीकार नहीं किया जबकि भगवान महावीर ने आत्मवाद की मलभित्ति पर ही क्रियावाद का भव्य भवन खड़ा किया है। जैसा कि आचारांग में लिखा है, जो आत्मवादी हैं वे लोकवादी हैं और जो लोकवादी हैं वे कर्मवादी हैं, जो कर्मवादी हैं वे क्रियावादी हैं।
आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने लिखा है - आगम युग में अनेक वाद प्रचलित थे। उनमें कुछ आत्मवादी थे और कुछ अनात्मवादी। दोनों ने अपने-अपने अभिप्रेत पक्ष को तर्क के बल पर स्थापित किया था। भगवान महावीर ने अनुभव अथवा साक्षात्कार को प्रधानता दी। वे जानते थे कि तर्क के द्वारा स्थापित पक्ष प्रतितर्क से उत्थापित भी होता है, किंतु साक्षात्कार किया हुआ तत्त्व सैकड़ों तर्कों से भी खण्डित नहीं होता, इसलिए भगवान् ने साक्षात्कार के मार्ग को मुख्यता दी। जिसको पूर्वजन्म की स्मृति हो जाती है वह वस्तुवृत्या आत्मवादी होता है। उसको आत्मा के अस्तित्व में शंका नहीं रहती। आत्मा के त्रैकालिक अस्तित्व की स्वीकृति होने पर लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद का स्वीकार होना स्वाभाविक है।' सूत्रकृतांग के षष्ठ अध्ययन महावीरत्थुई में लिखा है -
उर्दू अहे यं तिरियं दिसासु, तसा य जे थावर जे य पाणा। से णिच्चणिच्चेहि समिक्ख पण्णे, दीवे व धम्मं समियं उदाहु॥ अर्थात् ऊंची, नीची और तिरछी दिशाओं में जो त्रस और स्थावर प्राणी हैं उन्हें नित्य और अनित्य – इन दोनों दृष्टियों से भली-भांति देखकर प्रज्ञ ज्ञातपुत्र ने द्वीप की भांति सबको शरण देने वाले, दीपक की भांति सबको प्रकाशित करने वाले अथवा धर्म का सम्यक् प्रतिपादन किया है।
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भगवान् महावीर ने देखा पदार्थ नित्य भी है और अनित्य भी है। द्रव्य या अस्तित्व की दृष्टि से वे नित्य हैं और भाव या अवस्थान्तर की दृष्टि से वे अनित्य हैं । इस नित्यवादी दर्शन के आधार पर उन्होंने धर्म का प्रवर्तन किया। धर्म को नहीं देखने वाला उसका प्रवर्तन नहीं कर सकता। तात्पर्य की भाषा में कहा जा सकता है कि बुद्धि द्वारा धर्म का प्रवर्तन नहीं हो सकता। वह प्रज्ञा द्वारा ही होता है। प्रज्ञा वस्तु-तत्त्व का साक्षात् करने वाली चेतना की अवस्था है।'
ज्ञानी मनुष्य सत्य के प्रति समर्पित होता है। वह ऐसा कोई वचन नहीं बोलता जिससे सत्य की प्रतिमा खण्डित हो। सत्य हैं द्रव्य एवं पर्याय और उनकी यथार्थ अवस्था को जानना आवश्यक है। वस्तु के विषय में अनाग्रह के दृष्टिकोण का विकास ही अनेकान्त व्यवस्था का मूल आधार है। अपने ही पक्ष को सत्य मानने से और दूसरे की दृष्टि का तिरस्कार करने से विसंवादों की समाप्ति संभव नहीं है। सूत्रकृतांग में लिखा है -
सयं सयं पसंसंता, गरहंता परं वयं।
जे उ तत्थ विउस्संति, संसारं ते विउस्सिया॥ अर्थात् अपने-अपने मत की प्रशंसा और दूसरे मतों की निन्दा करते हुए जो गर्व से उछलते हैं वे संसार (जन्म-मरण की परम्परा) को बढ़ाते हैं। (इस गाथा के पाद-टिप्पण में आशय को स्पष्ट करते हुए आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने लिखा है - अपने सिद्धान्त की प्रशंसा और दूसरे के सिद्धान्त की गर्दा करना वर्तमान की मनोवृत्ति ही नहीं है, वह पुरानी मनोवृत्ति है। यही सत्य है, दूसरा सत्य नहीं है, इस आग्रह ने संघर्ष को जन्म दिया है । इदमेवैकं सत्यं मम सत्यं' इस आग्रह से जो असत्य जन्मता है, उससे बचने के लिए अनेकान्त को समझना आवश्यक है। अनेकान्त दृष्टि वाला दूसरे सिद्धान्त के विरोध में या प्रतिपक्ष में खड़ा नहीं होता, किंतु सत्य को सापेक्ष दृष्टि से स्वीकार करता है। नियतिवादी नियति के सिद्धान्त को ही परम सत्य मानकर दूसरे सिद्धान्तों का खण्डन करते थे। तब भगवान् महावीर ने कहा- नियतिवाद ही तत्त्व है, इस प्रकार का गर्व दु:ख के पार पहुंचाने वाला नहीं, दुःख के जाल में फंसाने वाला है। प्रस्तुत श्लोक को अनेकान्तदृष्टि की पृष्ठभूमि के रूप में देखा जा सकता है।
सूत्रकृताङ्ग मूलतः आचार शास्त्र है। आचार की पृष्ठभूमि को समझाने के लिए दूसरे दार्शनिकों की दृष्टियों का निरूपण किया गया है। नवदीक्षित श्रमणों की दृष्टि परिमार्जित करने के लिए 180 क्रियावादी दर्शनों, 84 अक्रियावादी दर्शनों, 67 अज्ञानवादी दर्शनों और 32 विनयवादी दर्शनों की व्यूह रचना कर स्वसमय की स्थापना की गयी। मौलिक विषय आचार का प्रतिपादन ही है।
श्रमण के आचार में सम्यक् भाषा के प्रयोग का वर्णन करते हुए सूत्रकृतांग में लिखा है -
संकेज याऽसंकितभाव भिक्खू विभज्जवायं च वियागरेजा।
भासादुगं धम्मसमुट्टितेहिं वियागरेज्जा समयाऽऽसुपण्णे॥ भिक्षु किसी पदार्थ के प्रति अशंकित हो, फिर भी सत्य के प्रति विनम्र होकर प्रतिपादन करे। प्रतिपादन में विभज्यवाद (भजनीयवाद या स्याद्वाद) का प्रयोग करे। आशुप्रज्ञ
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मुनि धर्म के लिए समुत्थित पुरुषा के साथ विहार करता हुआ दा भाषाओं (सत्य भाषा ओर व्यवहार भाषा) का समता पूर्वक प्रयोग करे।
सत्य की स्वीकृति के दो रूप हैं — विनम्र स्वीकृति और आग्रहपूर्ण स्वीकृति । विनम्र स्वीकृति का स्वर यह होता है ---"मैं इतना जानता हूं। इससे आगे मुझसे अधिक ज्ञानी जानते हैं।' अपनी ज्ञान की सीमा का अनुभव करना, यह शंकितवाद है । शंकितवाद का प्रयोग यह होता है ---- मेरी दृष्टि में यह तत्त्व ऐसा है, पर मेरे पास समग्र ज्ञान नहीं है, जिसके आधार पर मैं कह सकूँ कि यह ऐसा ही है, अन्यथा नहीं। इस प्रकार सत्य की विनम्र स्वीकृति शंकितवाद है । शंकित का तात्पर्य संदिग्ध नहीं किंतु अनाग्रह है।
विभज्यवाद के चूर्णिकार ने दो अर्थ किये हैं --- भजनीयवाद या अनेकान्तवाद । तत्त्वार्थ के प्रति अशंकित न होने पर भजनीयवाद का सहारा लेकर मुनि कहे --- मैं इस विषय में ऐसा मानता हूं । इस विषय की विशेष जानकारी के लिए अन्य विद्वानों को भी पूछना चाहिए।
विभज्यवाद का दूसरा अर्थ है --- अनेकान्तवाद । जहां जैसा उपयुक्त हो वहां अपेक्षा का सहारा लेकर वैसा प्रतिपादन करे । अमुक वस्तु नित्य है या अनित्य ? ऐसा प्रश्न करने पर अमुक अपेक्षा से यह नित्य है, अमुक अपेक्षा से यह अनित्य है, इस प्रकार उसको सिद्ध करे।
वृत्तिकार ने विभज्यवाद के तीन अर्थ किये हैं - 1. पृथक्-पृथक् अर्थों का निर्णय करने वाला वाद. 2. स्याद्वाद. 3. अर्थों का सम्यग विभाजन करने वाला वाद । जैसे द्रव्य की अपेक्षा से नित्यवाद, पर्याय की अपेक्षा से अनित्यवाद । सभी पदार्थों का अस्तित्व अपनेअपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से है । पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से नहीं है।
बौद्ध साहित्य में विभज्यवाद, विभज्यवाक् आदि का उल्लेख अनेक स्थानों पर प्राप्त होता है। विभज्य के दो अर्थ हैं - विश्लेषणपूर्वक कहना एवं संक्षेप का विस्तार करना। मज्झिमनिकाय में शुभमाणवक के प्रश्र के उत्तर में भगवान् बुद्ध ने कहा- हे माणवक ! मैं यहां विभज्यवादी हूं, एकांशवादी नहीं हूं। माणवक ने प्रश्न करते हुए पूछा- मैंने सुन रखा है कि गृहस्थ आराधक होता है, प्रव्रजित आराधक नहीं होता। इस विपय में आपका क्या चिन्तन है ? भगवान् बुद्ध ने इस प्रश्न का समाधान हां या ना में नहीं दिया किंतु उन्होंने विभागपूर्वक प्रश्न का समाधान प्रस्तुत किया। यदि गृहस्थ या त्यागी मिथ्यात्वी हैं तो वे आराधक नहीं हो सकते तथा यदि वे दोनों सम्यक् प्रतिपन्न हैं तो आराधक हैं । इसलिए कुछ कथन ऐसे होते हैं जिनका पूरा विश्लेषण किये बिना वे सत्य हैं या असत्य, ऐसा नहीं कहा जा सकता।"
संसार में अनेक प्रकार की विचित्रताएं पाई जाती हैं। सूत्रकृतांग में लिखा है
__ आहत्तहीयं तु पवेयइस्सं, णाणप्पगारं पुरिसस्स जातं।
सतो य धम्म असतो य सीलं संतिं असंतिं करिस्सामि पाउं॥8 मैं यथार्थ का निरूपण करूंगा। पुरुष समूह नाना प्रकार का होता है । मैं साधु के धर्म, असाधु के अधर्म तथा साधु की शांति और असाधु की अशांति को प्रगट करूंगा।
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इसी श्लोक के पाद टिप्पण में लिखा है, पुरुष समूह नाना प्रकार का होता है। 'नाना प्रकार' का तात्पर्य है अनेक अभिप्राय वाला, अनेक शील होना ।
अनेक पुरुष अनेक अभिप्राय वाले, भिन्न-भिन्न शील वाले होते हैं, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है, किंतु एक ही पुरुष अनेक परिणामों में परिणत होता हुआ अनेक प्रकार का पुरुष हो जाता हैं, एक अनेक हो जाता है।
वह कभी तीव्र परिणाम वाला, कभी मंद परिणाम वाला और कभी मध्यम परिणाम वाला हो जाता है। कभी वह मृदु और कभी कठोर हो जाता है। कभी अकार्य कर उससे निवृत्त हो जाता है और कभी उसमें प्रवृत्त हो जाता है, सतत उसका आचरण करता है।
किसी व्यक्ति को कोई कष्ट अत्यंत दुःखदायी होता है और किसी को किसी दूसरे कष्ट से दुःख होता है । दारुण और अदारुण स्वभाव से वह एक होते हुए भी अनेक हो जाता है।
स्थानांग सूत्र में बतलाया गया है कि लोक में जो कुछ है वह सब दो पदों में अवतरित है । सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध का पंचम अध्ययन 'आचारश्रुत' का दार्शनिक दृष्टि से बहुत महत्त्व है । उसका फलित यह है कि एकान्तवाद मिथ्या है, अव्यवहार्य है । अनेकान्तवाद सम्यग् है, व्यवहार्य है । इस अध्ययन के 17 श्लोकों में 17 प्रतिपक्षी युगलों का कथन है । इनका संज्ञान सम्यक्त्व की पृष्ठभूमि बनता है, इसलिए सूत्रकार इनके अस्तित्व को स्वीकार करने और नास्तित्व का स्वीकार न करने का परामर्श देते हैं । भगवान् महावीरकालीन अनेक दर्शन इन द्वन्द्वों को स्वीकृति नहीं देते थे । कुछ दार्शनिक जीव, धर्म, बन्ध, पुण्य, देवता, स्वर्ग आदि को स्वीकार करते थे और कुछ उनको नकारते थे। जैनदर्शन ने उन सभी द्वन्द्वों को स्वीकृति प्रदान की है। वे द्वन्द्व हैं -- लोक- अलोक, जीव- अजीव, धर्म-अधर्म, बन्ध-मोक्ष, पुण्य-पाप, आस्रव-संवर, वेदना - निर्जरा, क्रिया- अक्रिया, क्रोध-मान, माया - लोभ, प्रेम-द्वेष, चतुर्गतिक संसार - अचतुर्गतिक संसार, देव-देवी, सिद्धि-असिद्धि, सिद्धिगति- असिद्धिगति, साधु-असाधु, कल्याण- पाप 20
दार्शनिक लोक को एकान्ततः शाश्वत या अशाश्वत, शास्ता (प्रवर्तक) को एकान्तत: नित्य या अनित्य, प्राणी को एकान्ततः कर्मबद्ध या कर्ममुक्त, एकान्ततः सदृश या विसदृश मानते हैं वे मिथ्या प्रवाद करते हैं । अनेकान्तवाद के अनुसार व्यवहार इस प्रकार घटित होगाआचार्य महाप्रज्ञ व्याख्या करते हुए कहते हैं.
लोक शाश्वत भी है और अशाश्वत भी ।
* भव्य प्राणी मुक्त भी होंगे और मुक्त नहीं भी होंगे।
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प्राणी कर्मबद्ध भी हैं और कर्मबद्ध नहीं भी हैं ।
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प्राणी सदृश भी हैं और विसदृश भी हैं।
'छोटे-बड़े प्राणी को मारने से कर्मबन्ध सदृश भी होता है और विसदृश भी ।
* आधाकर्म का उपभोग करने से कर्मबन्ध होता भी है और नहीं भी होता ।
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* पांचों शरीर एक भी हैं और भिन्न भी हैं।
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* सर्वत्र शक्ति है भी और सर्वत्र शक्ति नहीं भी है।
कार्य-कारणवाद की चर्चा में दो प्रमुख वाद उपलब्ध हैं - सत्कार्यवाद और असत्कार्यवाद। सत्कार्यवाद के अनुसार कारण में कार्य विद्यमान रहता है और असत्कार्यवाद के अनुसार कारण में कार्य होता नहीं । कारण सर्वदा नित्य नहीं है। कार्य भी सर्वदा नित्य नहीं है। कार्य का भी एकान्ततः प्रक्षय नहीं होता। इस दृष्टि से यह जगत् 'ऐसा नहीं था' ऐसी बात नहीं है। इस आधार पर व्यवहार स्वयं प्रवृत्त है। इसका किसी ने प्रवर्तन नहीं किया है। किसी व्यक्ति को व्यवहार का प्रवर्तक मानने पर अनवस्थादोष घटित होता है।
यह जगत् व्यवहारशून्य नहीं है। व्यवहार के द्वारा प्रतिवस्तु में अवस्थित अस्तित्व का दर्शन या व्यवहरण किया जाता है। व्यवहार भेदात्मक या विभागात्मक दृष्टिकोण है। उसके द्वारा वस्तु की व्यवस्था होती है अथवा प्रत्येक वस्तु में विद्यमान विशेषता या भेद को समझा जा सकता है। एकान्त शाश्वतवाद और एकान्त अशाश्वतवाद के द्वारा प्रसिद्ध व्यवहारों की व्याख्या नही की जा सकती ।"
संसार में छोटे-बड़े दोनों प्रकार के प्राणी हैं। कुंथु आदि बहुत छोटे शरीर वाले प्राणी हैं और हाथी आदि बहुत बड़े शरीर वाले प्राणी हैं। इस विषय में प्रश्न पूछा जाता है कि छोटे और बड़े जीवों को मारने में कर्मबंध समान होगा या भिन्न-भिन्न प्रकार का होगा ?
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इस विषय में इस प्रकार का निर्देश है कि अहिंसा की समीक्षा करने वाला अवक्तव्यवाद का प्रयोग करें। चूर्णिकार ने इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार दिया है. -यदि छोटे और बड़ेदोनों प्रकार के जीवों के बंध में कर्मबंध एक जैसा बतलाया जाए तो बड़े जीवों की हिंसा को प्रोत्साहन मिलता है और यदि भिन्न प्रकार का बतलाया जाये तो छोटे जीवों की हिंसा करने में उन्मुक्तता का समर्थन होता है। इसलिए इस विषय में समान या असमान कर्मबंध कहना धर्मसंकट है । सूत्रकृतांग में लिखा है
T
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I
इसी श्लोक के पाद टिप्पण में लिखा है – अहिंसा के क्षेत्र में कुछ समस्याएं होती हैं जीवन का व्यवहार बहुत जटिल है, इसलिए अहिंसक को कहीं वक्तव्य और अवक्तव्य, कहीं वचन और कहीं मौन का सहारा लेना पड़ता है। सब समस्याओं को एक ही प्रकार से समाहित नहीं किया जा सकता। 'प्राणी बध्य है' अहिंसक को ऐसा नहीं कहना चाहिए। किंतु किसी समस्या के संदर्भ में यह अबध्य है. - यह कहना भी व्यवहार संगत नहीं होता, इसलिए उसे मौन रहना होता है। कोई व्यक्ति सिंह आदि हिंस्र पशुओं को मारने का विचार कर मुनि के पास आता है और पूछता है कि- मैं इन्हें मारूं या न मारूं ? ' उन्हें मारो' ऐसा कहा ही नहीं जा सकता और हिंस्र पशु अनेक पशुओं को मार रहे हैं, उपद्रव कर रहे हैं, इसलिए 'मत
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असेसं अक्खयं वादि, सव्वं दुक्खे ति वा पुणो । वज्झा पाणा अवज्झ त्ति, इति वायं ण णीसरे ॥2
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मारो' यह कहना भी व्यवहार संगत नहीं होता । इस अवस्था में अहिंसक के लिए मौन रहना ही श्रेय होता है ।" सूत्रकृतांग में अन्त:करण की निर्मलता के सम्बंध में लिखा हैदीसंति णिहुअप्पाणो, भिक्खुणो साहुजीविणो । एए मिच्छोवजीवो त्ति, इति दिट्ठि ण धारए | 24
अर्थात् संयत आत्मा वाले साधु जीवी भिक्षु दिखाई देते हैं । फिर भी ये मिथ्याजीवी हैं ऐसी दृष्टि धारण न करे। इसी के पाद टिप्पण में लिखा है- -सामान्यतः व्यक्ति अपने से इतर दर्शनावलंबी को विशुद्ध मानने के लिए तैयार नहीं होता । अनेकांत का दर्शन है - अपने शास्त्रों के अनुसार साधु-जीवन जीने वाले, सद् अनुष्ठानों का समाचरण करने वाले और जो युगान्तरमात्र दृष्टि पालन करने वाले, पानी को छानकर पीने वाले, मौन का आचरण करने वाले, नग्न रहने वाले, एकान्त में ध्यान करने वाले, भिक्षा पात्र से जीवन निर्वाह करने वाले साधु-जीवी किसी के उपरोध पर नहीं जीने वाले, शांत, दान्त और जितेन्द्रिय होते हैं। कुतूहल तथा अट्टहास का वर्जन करने वाले होते हैं, उनको मिथ्याजीवी कहना वाणी का असंयम है। वे संन्यासी चाहे स्वयूधिक हों या अन्ययूथिक, उनके विषय में ये बेचारे बाल तपस्वी हैं, सब कुछ मिथ्या आचरण और लोक-विरुद्ध व्यवहार करते हैं - ऐसा नहीं कहना चाहिए। यदि ऐसा कहा जाता है तो जनता भी कहने लग जाती है – ये साधु गुणद्वेषी हैं, ये अकारण ही दूसरों पर रोष करते हैं, इनके कषाय उपशांत नहीं हैं। यथार्थ में देखा जाए तो इतर धर्मावलंबी वैसे साधु भी ग्रैवेयक देवलोक तक के आयुष्य का बंध कर लेते हैं, तो फिर एकान्ततः यह वैसे कहा जा सकता है कि ये निरर्थक ही क्लेश कर रहे हैं । 25
जैन परम्परा में साम्यदृष्टि की प्रधानता है । वह मुख्यतया दो प्रकार से व्यक्त हुई हैआचार में और विचार में। जैनधर्म का बाह्य - आभ्यन्तर, स्थूल सूक्ष्म सब आचार साम्यदृष्टि मूलक अहिंसा के केन्द्र के आस-पास ही निर्मित हुआ है। जिस आचार के द्वारा अहिंसा की रक्षा और पुष्टि न होती हो, ऐसे किसी भी आचार को जैन परम्परा मान्य नहीं करती। विचार
साम्यदृष्टि की भावना पर जो भार दिया गया है उसी में से अनेकान्त दृष्टि या विभज्यवाद का जन्म हुआ है। केवल अपनी दृष्टि या विचारसरणि को ही अंतिम सत्य मानकर उस पर आग्रह रखना साम्यदृष्टि के लिए घातक है। इसलिए कहा गया है कि दूसरों की दृष्टि का उतना ही आदर करना चाहिए जितनी अपनी दृष्टि का। यही साम्यदृष्टि अनेकान्तवाद की भूमिका है। 26
वस्तुतः 'अनेकान्तवाद' दुराग्रह का प्रतिरोध प्रस्तुत करता है । विभिन्न विचारधाराओं प्रति वह आदर - भावना को जाग्रत करता है तथा इस प्रकार सम्यक् विवेक-बुद्धि के उन्नयन में सहायक होता है। वह इस बात पर बल देता है कि देश-कालजन्य तथा अन्य परिस्थितियों के कारण सत्य के विविध रूप संभव हैं और दूसरों के मतों में भी सत्य का अंश विद्यमान रहता है।
हम सब सत्यग्राही बनें, संवाद करें परन्तु विवादों से बचें। यदि हम दर्शन - आचार और वाक्-आचार का सम्यग् परिपालन करते हैं तो अनेक समस्याओं का निराकरण समाज एवं राष्ट्र में संभव है। इस संदर्भ में सूत्रकृतांग में प्रतिपादित आचार आज भी प्रासंगिक है।
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संदर्भ ग्रंथ सूची 1. सूयगडो 1/12/2
दीघनिकाय, सामञ्जफलसुत्त।
से आयावाई, लांगावाई, कम्मावाई, किरियावाई-आचारांग 1/5 4. आचारांग भाष्य, पृ. 24
सूयगडो अध्ययन 6/4 भावा अपि हि केनचित् प्रकारेण नित्याः, केनचिदनित्याः । कथम् इति चेत् द्रव्यतो नित्या भावतोऽनित्या, द्रव्यं (उभयं) प्रति नित्यानित्याः। एवमन्यान्यपि द्रव्याणि यथा नित्यान्यनित्यानि च।-ए. 143
सूयगडो अध्ययन 6 टिप्पण 19 8. वही, अध्ययन 1/50 9. सूयगडो अध्ययन 1.50 का पाद टिप्पण 10. समवाओ, पइण्णसमवाओ सूत्र 90 11. सयगडो 1/1422 12. सूयगडो 1/14-22 पाद टिप्पण, पृ. 584 13. विभज्यवादो नाम भजनीयवादः । तत्र शंकिते भजनीयवाद एव वक्तव्यः - अहं तावदेवं मन्ये, अतः परमन्यत्रापि
पुच्छेजसि अथवा विभज्यवादो नाम अनेकान्तवादः, स यत्र यत्र यथा युज्यते तथा तथा वक्तव्यः, तद्यथा--
नित्यानित्यत्वमस्तित्वं वा प्रतीत्यादि। --चूणि, पृ. 235 14. तथा विभज्यवादं पृथगर्थनिर्णयवादं व्यागृणीयात्, यदि वा विभज्यवादः स्याद्वादस्तं सर्वत्रास्खलितं
लोकव्यवहाराविसंवादितया सर्वव्यापिनं स्वानुभवसिद्धं वदेत्, अथवा सम्यगर्थान् विभज्य पृथक् कृत्वा तद्वादं वदेत, तद्यथा-नित्यवादं द्रव्यार्थतया पर्यायार्थतया त्वनित्यवादं वदेत्, तथा स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैः सर्वेऽपि पदार्थाः सन्ति, परद्रव्यादिभिस्तु न सन्ति, तथा चोक्तम् -
। सदेव सर्वं को नेच्छेत्स्वरूपादिचतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते॥ 15. Early Buddhist Theory of Knowledge, K.N. Jayatilleke, P. 280 16. वहीं, पृ. 223 17. मज्झिमनिकाय 49/1, 2, पृ. 429 18. सूयगडो 13/1 अध्ययन। 19. सयुगडो 1/13-1 का पाद टिप्पण 20. सूयगडो 2 अध्ययन 5, टिप्पण 12, पृ. 306 21. सूयगडो 2-5/3 का टिप्पण 22. सूयगडो 2-5/30 23. वही, पृ. 307-308 24. वहीं, 2-5/31 25. सूयगड़ो 2, अध्ययन 5, टिप्पण 16 26. दर्शन और चिंतन में पं. सखलालजी द्वारा लिखित जैनधर्म का निबन्ध, पृ. 122-123
विभागाध्यक्ष, जैन विद्या एवं तुलनात्मक धर्म तथा दर्शन विभाग जैन विश्भारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) लाडनूं - 341 306 (राजस्थान)
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अर्द्धमागधी आगमों में उपचार वक्रता
-डॉ. हरिशंकर पाण्डेय
उपचारवक्रता-धर्म का विपर्यय उपचारवक्रता है। साहित्य में अन्य के धर्म का अन्य पर आरोप मूलक प्रयोग से चमत्काराधान होता है। अन्य के धर्म का अन्य पर आरोप ही उपचारवक्रता है। मानव के साथ मानवेतर धर्म का प्रयोग, मानवेतर के साथ मानव के धर्म का प्रयोग, जड़ पर चेतन या चेतन पर जड़ पदार्थ के धर्म का आरोप, मूर्त पर अमूर्त, अमूर्त पर मूर्त, धर्म पर धर्मी का, धर्मी पर धर्म का आरोप आदि उपचारवक्रता के अंतर्गत आते हैं। भिन्न पदार्थों में अभेदारोप उपचार वक्रता है। आचार्य कुन्तक ने लिखा है
यत्र दूरांतरेऽन्यस्मात्सामान्यमुपचर्यते। लेशेनापि भवत् कांच्चिद्वक्तुमुद्रिक्तवृत्तिताम्॥ यन्मूला सरसोल्लेखा रूपकादिरलंकृतिः।
उपचारप्रधानासौ वक्रता काचिदुच्यते॥ आगमों में आचारांग सबसे प्राचीन एवं महत्त्वपूर्ण है। इसमें आत्मा का विस्तार से प्रतिपादन किया गया है । मोक्ष विद्या अथवा आत्म-विद्या के प्रतिपादन में कवि ने यत्र-तत्र अन्यथासिद्ध प्रयोगमूलक उपचारवक्रता का उपयोग किया है
पुरिसा। अत्तानमेव अभिणिगिज्झ, एवं दुक्खा पमोक्खसि।
अर्थात् पुरुष। आत्मा का ही निग्रह कर। इस प्रकार तू दुःख से मुक्त हो जायेगा। आत्मा का निग्रह कर', 'दुःख से मुक्त हो जाएगा' निग्रह मूर्त्तत्व का धर्म है, आत्मा-अमूर्त पदार्थ पर आरोप किया गया है । आत्मा अथवा चित्त भाव पदार्थ का निग्रहण - मूर्तत्व का आरोप है। यहां चित्त परिष्कार अभिव्यंजित है। जो सुख और दु:ख रूप अनुकूल-प्रतिकूल संवेदनाओं से मुक्त होगा, उसे ही दु:ख-मुक्ति सहज हो सकती है। मुक्त होना भी मूर्त का धर्म है, दुःख-अमूर्त पदार्थ पर आरोप किया गया है।'
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सच्चस्स आणाए उवट्ठिए से मेहावी मारं तरति
अर्थात् जो सत्य की आज्ञा में उपस्थित है, वह मेधावी मृत्यु को तर जाता है। यहां 'मारं तरति' उपचार वक्रता का सुन्दर प्रयोग है । 'तरति' क्रिया 'तृ प्लवन संतरणयो" धातु का वर्तमानकालिक रूप है। 'तरति प्लवति संतरति वा' अर्थात् तैर जाना, पार कर जाना। यह क्रिया मूर्त पदार्थ – सागर, नदी, झरना, तालाब आदि का धर्म है। सागर को तर गया, नदी के तीर गया, मुहाने को पार कर गया। यहां पर 'मार' मृत्यु का वाचक जो भाव अथवा अमूर्त पदार्थ है। यहां मृत्यु पर सागरत्व या तरण क्रिया- - भाव पर मूर्त्तत्व का आरोप अभिव्यक्ति सामर्थ्य से संबलित है ।
सहिए धम्ममादाय सेयं समणुपस्सति । अर्थात् सहिष्णुसाधक धर्म को ग्रहण कर श्रेय का साक्षात्कार कर लेता है ।
यहां पर धर्म और श्रेय दोनों भाव पदार्थ या अमूर्त द्रव्य हैं, 'आदाय ( ग्रहण करना) ' और अणुपस्सति (देखना) इन्द्रिय के धर्म हैं, मूर्त के धर्म हैं । मूर्त पदार्थ को ही ग्रहण किया जा सकता है एवं देखा जा सकता है, यहां पर धर्म और श्रेय में मूर्त्तत्वारोप हुआ है। यहां आत्मा के द्वारा स्वीकृति एवं साक्षात्कार अभिव्यंजित है न कि इन्द्रिय साक्षात्कार ।
सेवंता कोहं च माणं च मायं च लोभं च' अर्थात् साधक क्रोध, मान, माया और लोभ का वमन करने वाला होता है।
'वमन करना' मूर्त का धर्म है। मूर्त वस्तुओं का ही वमन संभव है। क्रोधादि अमूर्त हैं, भाव पदार्थ हैं, इन पर मूर्त्तत्व का आरोप हुआ । वमन क्षय का, पूर्ण समापन का अभिव्यंजक है । इसी तरह का उदाहरण आगे है.
वंता लोगस्स संजोगं जंति वीरा महाजाणं ।' अर्थात् लोक के संयोग का वमन करने वाला वीर साधक महायान ( महापथ) पर जाते हैं। 'लोगस्स संजोगं' भाव पदार्थ है, उसका वमन - भाव पदार्थ पर मूर्त्तत्वारोप हुआ है ।
जे कोहदंसी से माणदंसी, जे माणदंसी से मायदंसी । अर्थात् जो क्रोधदर्शी है वह मानदर्शी है, जो मानदर्शी है वह मायादर्शी है, जो मायादर्शी है वह लोभदर्शी है ।
यहां दर्शी – 'देखना ' मूर्त पदार्थ का धर्म है। मूर्त पदार्थ को ही देखा जा सकता है। क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेय, द्वेषादि भाव पदार्थ हैं, इन पर मूर्त्तत्वारोप हुआ है।
जहा जुण्णाई कट्ठाई हव्ववाहो पमत्थति एवं अत्तसमाहिए अणिहे ।' अर्थात् अनि जीर्ण-काष्ठ को शीघ्र जला देती है। वैसे ही समाहित आत्मा तथा कषायों से अप्रताड़ित पुरुष कर्मशरीर को जला देता है, समाप्त कर देता है। यहां पर अग्नि के धर्म का समाहितात्मा पर आरोप हुआ है।
अनि जीर्ण-काष्ठ को जलाकर भस्म कर देती है, तब जीर्ण काष्ठ कभी अस्तित्व में नहीं आता । उसी प्रकार समाहितात्मा पुरुष द्वारा प्रमथित- - जलाया गया कर्मशरीर पुनः अस्तित्व में नहीं है - यह तथ्य अभिव्यंजित है ।
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-काष्ठ मूर्त पदार्थ है, कर्मशरीर – भावपदार्थ पर आरोपित है।
मोणं समाया धुणे कम्मसरीरगं ।" अर्थात् मुनि ज्ञान को प्राप्त कर कर्म शरीर को प्रकम्पित करे ।
‘धुणे कम्मसरीरगं' अर्थात् कर्मशरीर को प्रकंपित करे। प्रकंपित करना मूर्त्त का धर्म है। कर्मशरीर-अमूर्त पदार्थ पर आरोपित है।
सव्वे सराणियति । तक्का तत्थ ण विज्जइ । मई तत्थ ण गाहिया ।" अर्थात् सभी स्वर लौट जाते हैं, तर्क वहां नहीं जाते, मति उसे ग्रहण नहीं कर सकती।
यहां स्वरों का लौटना, तर्क का जाना, मति द्वारा ग्रहण किया जाना - लौटना, जाना और ग्रहण करना मूर्त्त के धर्म हैं, चमत्कारोत्पादन के लिए अमूर्त पर आरोपित है । आत्मा शब्द, तर्क और मति के द्वारा अग्राह्य है - यह अभिव्यंजित है । वह इन्द्रियातीत है ।
तम्हा संगं ति पासह " अर्थात् इसलिए तुम आसक्ति को देखो ।
यहां पर 'संग' शब्द आसक्ति का वाचक है। आसक्ति का अर्थ राग होता है, जो भाव पदार्थ है। संग भाव पदार्थ है और 'पासह' मूर्त का धर्म है। देखने की क्रिया नेत्रेन्द्रिय का विषय है, जो मूर्त होती है। लेकिन 'संग' रूप भाव पदार्थ पर आरोपित है। यहां सम्यक् विवेक, चिंतन आदि क्रियाएं अभिव्यंजित हैं ।
उपधानश्रुत में दो स्थलों पर उपमान प्रयोग में उपचार वक्रता का उत्कृष्ट निदर्शन मिलता है। एक स्थल पर नाग (हाथी) तथा दूसरे स्थल पर शूर (योद्धा) के धर्म का अन्यभगवान् महावीर पर आरोपित किया है । अन्य के धर्म का अन्य पर आरोप विषयक यह उपचारवक्रता का उदाहरण चमत्कार कारक है ।
पर्वत के धर्म का मुनि पर आरोप विषय उपचारवक्रता का उदाहरण आचारचूला में
उपलब्ध है
' तितिक्खणाणी अट्ठचेतसा गिरिव्व वातेण ण संपवेवए" अर्थात् आक्रोश युक्त शब्दों एवं शीतोष्णादि स्पर्शों का भिक्षु प्रशान्तचित्त होकर सहन करे । जिस प्रकार वायु के प्रबल वेग से भी पर्वत कम्पायमान नहीं होता, उसी प्रकार संयमशील मुनि भी परिषहों से विचलित नहीं होता । प्रस्तुत संदर्भ में पर्वत - प्राकृतिक जगत् (निर्जीव पदार्थ) के धर्म का मुनि अर्थात् मनुष्य पर तथा वायु के धर्म का परिषहों पर आरोप किया गया है । पर्वत की स्थिरता, अचंचलता और धैर्यता यहां अभिव्यंजित है। प्रकृति के धर्म का मानव पर आरोप विषयक दृष्टान्त उत्कृष्ट है।
भाव पदार्थ प्रज्ञा, यशादि पर मूर्त्तत्वारोप विषयक उदाहरण द्रष्टव्य है
समाहियस्सऽग्गिसिहा व तेयसा तवो य पण्णा य जसो य वढती । 14 अर्थात् समाहितमुनि के तप, प्रज्ञा और यश अग्निशिखा के तेज की भांति बढ़ते हैं ।
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यहां 'अग्निशिखा के तेज' मूर्त पदार्थ है, उसके धर्म का धर्म प्रज्ञा, यशादि अमूर्त पदार्थों पर आरोपण हुआ है। अग्निशिखा कालुष्यरहित है तथा कलुष्य को जला डालने की शक्ति से परिपूर्ण है। यहां यशादि की पवित्रता, निष्कलुषता आदि अभिव्यंजित है। भाव पदार्थ पर मूर्तत्वारोप विषयक एक उत्कृष्ट उदाहरण द्रष्टव्य है -
दिसोदिसंऽणंतजिणेण ताइणा महव्वता खेमपदा पवेदिता।
महागुरु निस्सयरा उदीरिता तमं व तेऊ तिदिसं पगासगा। अर्थात् सभी दिशाओं में जीवों के त्राता, रागद्वेषविजेता, अनन्त ज्ञानादि से सम्पन्न जिनेन्द्र भगवान् जीवों के लिए क्षेम (रक्षण) स्थान तथा कर्मबन्धन को दूर करने में समर्थ महाव्रतों का निरूपण किया है। जिस प्रकार तेज तीनों दिशाओं में अंधकार को नष्ट करके प्रकाश कर देता है, उसी प्रकार महाव्रत रूप तेज भी अन्धकार रूप कर्म समूह को नष्ट कर तीनों लोकों को प्रकाशमय बना देता है - ज्ञानवान् बना देता है। यहां पर तेज (अग्नि या सूर्य) मूर्त पदार्थ है, उसके धर्म का आरोप अमूर्त महाव्रतों पर किया गया है।
विसुज्झती जंसि मलं पुरेकडं समीरियं रुप्पमलं व जोतिणा।
अर्थात् सर्वासक्ति विमुक्त एवं धैर्यवान् भिक्षु के पूर्वकृत कर्ममल उसी प्रकार अलग हो जाते हैं, जैसे अग्नि के द्वारा चांदी का मैल अलग हो जाता है । यहां पर तापादि भाव पदार्थों पर अग्नि तथा मुनि पर चांदी एवं कर्ममलों पर चांदी के मैल का आरोप किया गया है। भाव पदार्थ— तप एवं कर्मादि पर मूर्तत्व तथा मुनि पर चांदी-का अन्य के धर्म का अन्य पर आरोप विषयक दृष्टान्त रमणीय है।
तिर्यंच् (सर्प) के धर्म का मनुष्य पर आरोप विषयक उदाहरण अधोविन्यस्त हैभुजंगमे जुण्णतयं जहा चए विमुच्चती से दुसहेज्ज माहणे।”
___अर्थात् सर्प अपनी जीर्ण त्वचा (केंचुली) को त्यागकर उससे मुक्त हो जाता है, उसी प्रकार संयमी मुनि कर्मबन्धनों का परित्याग कर मुक्त हो जाता है। सर्प के धर्म का मुनि पर तथा केंचुली के धर्म का बन्धनों (कामादि) पर आरोप किया गया है। सर्प केंचुली का परित्याग कर पुन: उसी को ग्रहण नहीं करता, उसी प्रकार मुनि कामादि का परित्याग कर पुनः उसी का सेवन नहीं करता, वह मुक्त हो जाता है।
संसार की भयंकरता का उद्घाटन उस पर महासमुद्र के धर्म का आरोप कर किया गया है - महा समुदं व भुयाहिं दुत्तरं।
__ अर्थात् जैसे अपार सलिल-प्रवाह वाले समुद्र को भुजाओं से पार करना दुस्तर है, उसी प्रकार इस संसार रूप महासमुद्र को पार पाना दुर्लभ है। जीव पर अजीवत्व का आरोप विषयक दृष्टान्त दर्शनीय है -
देवपरिसं च मणुयपरिसं च आलेक्खचित्तभूतमिव ठवेति।" अर्थात् जब महावीर ने पंचामुष्टिक लोच कर पूर्ण सामयिक चारित्र अंगीकार किया तो देवों और मनुष्यों दोनों की सभाएं चित्रलिखित सी हो गयी।
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यहां चित्र (आलेख्य) निर्जीव पदार्थ है। उसके धर्म का देवादि की सभा पर आरोप है। निश्चेष्टता अभिव्यंजित है।
अन्य वनखंड, पद्मसरादि के धर्म का आकाश पर आरोप रोचक बना है। जब महावीर अभिनिष्क्रमण कर रहे थे, आकाश देवों से भर गया ---
वणसंडं व कुसुमयं पउमसरो वा जहा सरयकाले।
सोभति कुसुमभरेण इय गगणतलं सुरगणेहिं ।। अर्थात् देवों के आगमन से आकाशमण्डल वैसा ही सुशोभित हो रहा था, जैसे खिले हुए पुष्पों से वनखण्ड (उद्यान) या शरत्काल में कमलों के समूह से पद्य सरोवर सुशोभित होता है। यहां पर पुष्प एवं कमल के धर्म का देवों पर तथा वनखण्ड तथा सरोवर के धर्म का आकाश पर आरोप किया गया है। सौन्दर्यातिशयता एवं माधुर्यातिशयता अभिव्यंजित है। प्रकृति के धर्म का मानव पर आरोप विषयक उदाहरण उदाहर्तव्य है
मल्लेणं कप्परुक्खमिव समालंकेति1 अर्थात् विभिन्न प्रकार की पुष्पमालाओं से महावीर को कल्पवृक्ष की तरह सुसज्जित किया गया। कल्पवृक्षत्व का महावीर पर आरोप हुआ है।
भगवान् के जन्मकाल में अनेक रत्नों की वर्षा होती है --- गंधवासं च चुण्णवासं च पुष्फवासं च हिरण्णवासं च रयणवासं च वासिंसु।
अर्थात् महावीर के जन्मकाल में देवों ने अमृत, सुगंधित पदार्थ, सुवासित चूर्ण (पावडर), पुष्प, चांदी और सोने की वृष्टि की। वर्षा हमेशा पानी की ही होती है, यहां रत्नादि स्थूल पदार्थों की हो रही है। उपचारता का उत्कृष्ट निदर्शन, जहां पर प्रसन्नता, रमणीयता आदि का अभिव्यंजन हो रहा है।
सूत्रकृतांगसूत्र में उपचारवक्ता के अनेक उदाहरण मिलते हैं। प्रथम अध्ययन के द्वितीय उद्देशक में म्लेच्छ, मूढ, अंध आदि के धर्म का मिथ्यादृष्टि मुनियों पर आरोप किया गया है। एक स्थल पर छिद्रयुक्त नौका एवं जन्मान्ध के धर्म का आरोप क्रमश: मिथ्या-दर्शन एवं मिथ्या-दृष्टि श्रमण पर किया गया है। छिद्रयुक्त नौका मूर्त पदार्थ है, उसके धर्म का आरोप दर्शन - अमूर्त पदार्थ पर किया है। वहीं पर वर्तमान इन्द्रियसुखोपभोगों में आसक्त श्रमण की उपमा वैशालिक मत्स्य से दी गई है
___ एवं तु समणा एगे वट्टमाणसुहेसिणो।
मच्छा वेसालिआ चेव घातमेसंतमणंतसो॥ अर्थात् वर्तमान सुख के अभिलाषी कई श्रमण वैशालिक मत्स्य के समान अनन्त बार विनाश को प्राप्त होते हैं। यहां वैशालिक मत्स्य के धर्म का आरोप मुनि पर किया गया है। सुखासक्त मत्स्य मृत्यु को प्राप्त होता है, उसी प्रकार सुखभोगी श्रमण की दशा होती है।
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वहीं पर तालफल के धर्म का आरोप कामासक्त पुरुष पर किया गया है
कामेहि य संथवेहि य गिद्धा कम्मसहा कालेण जंतवो।
ताले जह बंधणच्चुते एवं आउक्खयम्मि तुट्टती।। अर्थात् कामभोगों और परिचितजनों में आसक्त प्राणी अवसर आने पर अपने कर्म का फल भोगते हुए आयुष्य के क्षण होने पर ऐसे टूटते हैं (मर जाते हैं) जैसे बन्ध से छुटा हुआ तालफल (ताड़फल) नीचे गिर जाता है।
बन्ध से टुटे तालफल को कोई बीच में में बचा नहीं सकता, उसी प्रकार आयुष्य क्षण होने पर मृत्यु से कोई बचा नहीं सकता।
मोहं जंति नरा असंवुडा। अर्थात् विषयभोगों में मूर्च्छित व्यक्ति मोह को प्राप्त होते हैं। यहां 'जंति' क्रिया मूर्त का धर्म है, 'मोहं' अमूर्तपर आरोपित है। भाव पदार्थ पर मूर्त्तत्वारोप विषयक दृष्टान्त दर्शनीय है -
महयं पलिगोव जाणिया जंवि य वंदण-पूयणा इहं।"
सुहमे सल्ले दुरुद्धरे, विदुमं ता पयहेज्ज संथवं॥ अर्थात् सांसारिक जनों का अतिपरिचय (संसर्ग) महान् पंक (परिगोप) है, यह जानकर तथा जो पूजा और वंदना मिलती है, उसे भी जिन शासन में स्थित मुनि गर्व रूप सूक्ष्म एवं कठिनता से निकाला जा सकने वाला शल्य जानकर उस संस्तव-परिवंदन का परित्याग करे। यहां पर सांसारिक लोगों के साथ आसक्ति पर, जो भाव पदार्थ है, महागोप (महापंक) रूप मूर्त पदार्थ के धर्म का आरोप किया गया है। महापंक से निकलना मुश्किल है, उसी तरह से आसक्ति में फंस जाने पर उससे निकल पाना महा मुश्किल है।
'महावीरत्थुइ' उपचारवक्रता की दृष्टि से उत्कृष्ट है । उपचार वक्रता के अनेक विलक्षण उदाहरण मिलते हैं – जसंसिओ चक्खुपहे ठियस्स।
अर्थात् जो उत्कृष्ट यशस्वी हैं तथा संसार के नयपथ में स्थित है। यहां 'नयन पथ' उपचारमूलक प्रयोग है। पथ का नयन पर आरोप हुआ है। भाव पदार्थ पर मूर्त्तत्वारोप विषयक अनेक उदाहरण प्राप्त हैं --
से पण्णया अक्खये सागरे वा महोदधी वा वि अणंतपारे।" ___ अणाइले वा अकसायिमुक्के सक्के व देवाहिपती जुतीमं॥
अर्थात् वे प्रज्ञा के अक्षय सागर हैं, स्वम्भूरमण समुद्र के समान प्रज्ञा से अनन्त पार हैं। समुद्र जल के समान भगवान् का ज्ञान निर्मल है, कषायों से सर्वथा रहित तथा कर्म बन्धन से मुक्त है एवं देवाधिपति इन्द्र के समान द्युतिमान है।
उपर्युक्त प्रसंग उपचारवक्रता का सुन्दर उदाहरण है। अनेक औपचारिक प्रयोग भाषिक चारुता के साथ-साथ अभिव्यक्ति की सशक्तता को समृद्ध करते हैं। प्रज्ञा के 28 -
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अक्षयसागर - भाव पर मूर्त्तत्वारोप हुआ है। इन्द्र के समान तेजस्वी हैं – मनुष्य पर देवत्वारोप - अन्य के धर्म का अन्य पर आरोप विषयक उत्कृष्ट उदाहरण है।
सुदंसणस्से जसो गिरिस्स पवुच्चती महतो पव्वतस्स।
एतोवमे समणे नायपुत्ते जाती-जसो-दंसण-णाणसीले॥ अर्थात् सुदर्शन पर्वत महान् यश वाला है। ज्ञातपुत्र महावीर की उपमा इससे दी जाती है। जैसे सुदर्शन पर्वत अपने गुणों के कारण सभी पर्वतों में श्रेष्ठ है, वैसे ही भगवान् भी जाति, यश, दर्शन, ज्ञान और शील में सर्वश्रेष्ठ हैं । पर्वत के धर्म का मनुष्य पर आरोप किया गया है। 'महावीरत्थुइ' में अनेक श्रेष्ठ उपमाओं के द्वारा महावीर की महनीयता का उद्घाटन किया गया है। उपचारवक्रता या उपमानवक्रता की दृष्टि से यह अध्ययन स्वतंत्र रूप से विवेचनीय है।
उत्तराध्ययन का ऋषि उपचारवक्रता या धर्म विपर्यय या विचलन की कला में प्रवीण है। प्रथम अध्ययन विनय श्रुत में कणकुण्डगं चइत्ताणं, जहासुणी, हयंभई, स पुज्जसत्थे आदि उपचारवक्रता के उदाहरण हैं, क्योंकि प्रथम तीन में सुअर, कुत्तीआ, भद्राश्व आदि पशु के धर्म का मनुष्य पर आरोप किया गया है, 'पुज्जसत्थे' में गुण के आधार पर गुणी का अभिधान रूपक के माध्यम से किया गया है। हरिकेशबल अध्ययन में अन्य के धर्म (क्षेत्र और बीज के धर्म का) अन्य पर आरोप का एक उत्कृष्ट उदाहरण द्रष्टव्य है -
थलेसु बीयाइ ववन्ति कासगा तहेव निन्नेसु य आससाए।०
एतोवमे समणे नायपुत्ते जाती-जसो-दंसण-णाणसीले॥ । अर्थात् सुदर्शन पर्वत महान् यश वाला है। ज्ञातपुत्र महावीर की उपमा इससे दी जाती है। जैसे सुदर्शन पर्वत अपने गुणों के कारण सभी पर्वतों में श्रेष्ठ है, वैसे ही भगवान् भी जाति, यश, दर्शन, ज्ञान और शील में सर्वश्रेष्ठ हैं । पर्वत के धर्म का मनुष्य पर आरोप किया गया है। 'महावीरत्थुइ' में अनेक श्रेष्ठ उपमाओं के द्वारा महावीर की महनीयता का उद्घाटन किया गया है। उपचारवक्रता या उपमानवक्रता की दृष्टि से यह अध्ययन स्वतंत्र रूप से विवेचनीय है।
उत्तराध्ययन का ऋषि उपचारवक्रता या धर्म विपर्यय या विचलन की कला में प्रवीण है। प्रथम अध्ययन विनयश्रुत में कणकुण्डगं चइत्ताणं, जहासुणी, हयंभई, स पुज्जसत्थे आदि उपचार वक्रता के उदाहरण हैं, क्योंकि प्रथम तीन में सुअर, कुत्तीया, भद्राश्व आदि पशु के धर्म का मनुष्य पर आरोप किया गया है, 'पुजसत्थे' में गुण के आधार पर गुणी का अभिधान रूपक के माध्यम से किया गया है । हरिकेशबल अध्ययन में अन्य के धर्म (क्षेत्र और बीज के धर्म का) अन्य पर आरोप का एक उत्कृष्ट उदाहरण द्रष्टव्य है- .
थलेस बीयाइ ववन्ति कासगा तहेव निन्नेसु य आससाए।1
एयाए सद्धाए दलाह मझं आराहए पुण्णमिणं खु खेत्तं ॥ यहां पर सुक्षेत्र एवं बीज के धर्म का आरोप मुनि और दान में किया गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में प्राप्त उपचारवक्रता को अध्ययन की सुविधा के लिए निम्न रूप में विन्यस्त कर सकते हैं - तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2002 0
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1. अमूर्त अथवा भाव पदार्थ पर मूर्त के धर्म का आरोप- अमूर्त या भाव जगत् के पदार्थों पर मूर्त के धर्म का आरोप करने पर वर्णनीय या स्पष्ट बिम्ब सामाजिक मानस पटल पर अंकित हो जाता है । 'त्वन्नाम कीर्तनजलं श्मयत्यशेषम्' इस भक्तामरी पंक्ति में भक्त मानतुंग ने नामकीर्तन पर जल के धर्मों का आरोप किया है। उत्तराध्ययन में अनेक ऐसे प्रसंग मिलते हैं। कुछ उदाहरणों का विशेषण द्रष्टव्य है --
1.1 ‘विणयं पाउकरिस्सामि'32 अर्थात् विनय को क्रमशः प्रकट करूंगा। प्रकट करना मूर्त पदार्थ का ही धर्म हो सकता है। विनय भाव पदार्थ है, हृदय का धर्म है, कार्यानुमेय है। मूर्त के धर्म का विनय-भाव पदार्थ पर आरोप किया गया है। 1.2 कण कुण्डगं चइत्ताणं विटुं भुंजइ सूयरे।
एवं सीलं चइत्ताणं दुस्सीले रमई मिए। जिस प्रकार सूअर चावलों की भूसी को छोड़कर विष्टा खाता है, वैसे ही अज्ञानी भिक्षु शील को छोड़कर दुःशील में रमण करता है। इस गाथा में चावलों की भूसी में विष्टा के धर्म का शील और दुःशील पर आरोप किया गया है, जो भाव पदार्थ हैं।
1.3 विणए ठवेज अप्पाणं' अर्थात् अपने आप को विनय में स्थापित करें।
यहां ध्यातव्य है कि 'स्थापित करने' की क्रिया किसी मूर्त पदार्थ की ही होती है, जैसे ईंटों को घर में स्थापित करना आदि। यहां पर विनय अमूर्त एवं भाव पदार्थ है, उसमें आत्मा की संस्थापना कैसे? इस वाक्य के द्वारा विच्छित्ति एवं भाषिक लावण्य से विनय की महनीयता समुद्घाटित तो हो ही रही है, उत्तराध्ययन के ऋषि की कवि-प्रतिभा भी अभिलक्षित हो रही है।
___ 1.4 अप्पा चेव दमेयव्वो अर्थात् आत्मा का ही दमन करना चाहिए। यहां पर 'दमन' क्रिया लोक में मूर्त के लिए ही प्रसिद्ध है। जैसे शत्रु का दमन, दुष्ट हाथी का दमन आदि लेकिन यहां पर आत्मा जो भाव पदार्थ है, के लिए दमन क्रिया का उपयोग किया गया है, जो आत्म साधना के अतिशयित महत्त्व को अभिलक्षित करता है। यहां दमन-भेदनात्मक अर्थ का धारक नहीं बल्कि शम एवं शांति अर्थ का अभिव्यंजक है । वस्तुतः दमन शब्द 'दमु उपशमे' धातु से व्युत्पन्न होता है। 1.5 एगप्पा अजिए सत्तु कसाया इन्दियाणि य।
ते जिणित्तु जहानायं विहरामि अहं मुणी॥ अर्थात् एक न जीती हुई आत्मा शत्रु है, कषाय और इन्द्रियां शत्रु हैं। मुने। मैं उन्हें जीतकर नीति के अनुसार विहार कर रहा हूं। यहां जीतना शत्रु मूर्त पदार्थ का धर्म है, उसका आरोप आत्मा-भाव पदार्थ पर किया गया है।
2. चेतन पर अचेतन के धर्म का आरोप- जब अचेतन के धर्म का चेतन पर आरोपण किया जाता है तो कथन में स्पष्टता के साथ विच्छित्ति की भंगिमा भी उपस्थित हो 30 -
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जाती है। उत्तराध्ययन में ऐसे अनेक स्थल हैं, जहां पर अचेतन पदार्थ के धर्म का चेतन पर आरोप किया गया है।
2.1 कठोर संस्पर्श, छेदन-भेदन आदि से निर्जीव पदार्थ अविचल एवं स्थिर होता है, क्योंकि वह अचेतन होता है, इसलिए उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। सजीव पदार्थ में विचलन होना स्वाभाविक है, लेकन यदि सजीव प्राणी भी स्थिर रहे तो उसकी धैर्यता, कष्ट सहिष्णुता एवं गंभीरता का अभिव्यंजन होता है । ऋषि कहते हैं - इह खलु बावीसं परीसहा समणेण भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया
परिव्वयन्तो पुट्ठो नो विहन्नेजा। 2.2 'पंकभूया उ इथिओ' अर्थात् ब्रह्मचारी के लिए स्त्रियां दलदल के समान हैं। यहां पर दलदल-अचेतन के धर्म का स्त्री-चेतन पर आरोप किया गया है। जैसे दलदल में फंसा जीव अपने मार्ग से गिर जाता है, लक्ष्य तक नहीं जाता तथा वहीं विषण्ण होकर घोर मृत्यु को प्राप्त होता है, उसी प्रकार स्त्री में फंसा ब्रह्मचारी कभी त्राण नहीं पा सकता है। बारबार विषण्ण होता हुआ मृत्यु को प्राप्त होता है । इस तथ्य की अभिव्यंजना के लिए इस धर्मविपर्यय मूलक पंकभूया उ इथिओ' वाक्य का प्रयोग किया गया है।
2.3 'विजुसोयामणिप्पभा'37 वह राजवरकन्या राजीमती बिजली जैसी प्रभा वाली थी। यहां राजीमती के सौन्दर्यातिशयत्व को प्रतिपादित करने के लिए विद्युत्सौदामिनी को उपमान बनाया गया है। वह रूपवती थी, उसकी शारीरिक कांति अद्भुत थी. इस तथ्य की अभिव्यंजना के लिए प्रस्तुत विचलनमूलक वाक्य का प्रयोग किया गया है।
2.4 सिरे चूड़ामणी जहा38 – अर्थात् हाथी पर आरूढ़ अरिष्टनेमि सिर पर चूड़ामणि की भांति सुशोभित हुआ। यहां पर चूड़ामणि-अचेतन के धर्म का अरिष्टनेमि-चेतन पर आरोप किया गया है। इस धर्म-विपर्यय मूलक प्रयोग का आधार है - अरिष्टनेमि की श्रेष्ठता एवं शोभाचारूता का समुद्घाटन।
3. अन्य के धर्म पर अन्य का आरोप- इस संवर्ग में चेतन के धर्म का चेतन पर, पशु के धर्म का मनुष्य पर आरोप आदि से सम्बद्ध उपचारवक्रता को दर्शाया गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में अनेक स्थलों पर ऐसे उदाहरण मिलते हैं। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं।
3.1 झसोयरो – अर्थात् अरिष्टनेमि झषोदर-मछली के समान उदर वाला था। इसमें मछली के धर्म को अरिष्टनेमि-मनुष्य पर आरोपित किया गया है। यहां पर विशेषणवक्रता का भी सुन्दर उदाहरण उपस्थित है। 3.2 केसीकुमार समणे गोयमे य महायसे।
उभओ निसण्णा सोहन्ति चंदसूरसमप्पभा॥० अर्थात् महान् यशस्वी कुमार श्रमण केशी और महान् यशस्वी गौतम बैठे हुए थे। वे दोनों चन्द्रमा और सूर्य की तरह सुशोभित हो रहे थे। यहां पर चन्द्रमा और सूर्य दो आकाशीय तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2002 -
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पदार्थों के धर्म का मुनिद्वय पर आरोप किया गया है। इस वक्रता से मुनिद्वय को शारीरिक दीप्ति के साथ आत्मिक सौन्दर्य भी द्योतीत हो रहा है।
इस प्रकार उत्तराध्ययन एवं अन्य आगम ग्रंथों में ऐसे अनेक स्थल हैं, जहां पर उपचारवक्रता का उत्कृष्ट निदर्शन मिलता है । इस पर स्वतंत्र शोध-प्रबन्ध की आवश्यकता है।
सन्दर्भ :
1. वक्रोक्ति जीवितम् 2.13-14 2. आचारांगसूत्र 1.3.3.64 3. तत्रैव 1.3.3.66 4. संस्कृत धातुकोष, पृ. 58 5. आचारांग 1.3.3.67 6. तत्रैव 1.3.4.71 7. वही, 1.3.4.78 8. वहीं, 1.3.4.83 9. वही, 1.4.3.33 10. वही, 1.5.3.59 11. वही, 1.5.6.123-125 12. वही, 1.6.5.108 13. आचारचूला 16.795 14. तत्रैव 16.797 15. वहीं, 16.798 16. वही, 16.800 17. वही, 16.801 18. वही, 16.802 19. वही, 15.766 20. वही, 15.762
21. वही, 15.754 22. वही, 15.738 23. सूत्रकृतांग 1.2.31-32 24. तत्रैव 1.1.3.4 25. वही, 1.2.1.6 26. वही, 1.2.10 27. वही, 1.2.2.11 28. वही, 1.6.3 29. वही, 1.6.8 30. वही, 1.6.14 31. उत्तराध्ययनसूत्र 12.12 32. तत्रैव 1.1 33. वही. 1.5 34. वही, 1.6 35. वही, 1.15 36. वही, 37. वही, 22.7 38. वही, 22.10 39. वही, 22.6 40. वही, 23.18
रीडर, प्राकृत एवं जैन आगम विभाग जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) लाडनूँ -341 306 (राजस्थान)
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अपभ्रंश भाषा और साहित्य का
संक्षिप्त इतिहास
--जैन साध्वी डॉ. मधुबाला
1. लगभग छट्ठी शताब्दी से अठारहवीं शताब्दी तक का इतिहास
अपभ्रंश भाषा का समय भाषा विज्ञान के आचार्यों ने 500 ई. से 1000 ई. तक बताया है किन्तु इसका साहित्य हमें लगभग 8वीं सदी से मिलना प्रारंभ होता है। प्राप्त अपभ्रंश साहित्य में स्वयंभू सबसे पूर्व हमारे सामने आते हैं। अपभ्रंश साहित्य का समृद्ध युग 9वीं से 13वीं शताब्दी तक है। इसी काल में पुष्पदन्त, धवल, धनपाल, नयनन्दि, कनकामर, धाहिल इत्यादि अनेक प्रतिभाशाली कवि हुए हैं। इनमें से यदि पुष्पदन्त को अपभ्रंश-साहित्य का सर्वश्रेष्ठ कवि कहा जाये तो कोई अत्युक्ति न होगी। पुष्पदन्त की प्रतिभा का मूल्य इसी बात से आँका जा सकता है कि इनको अपने महापुराण में एक ही विषय 'स्वप्न दर्शन' को चौबीस बार अंकित करना पड़ा। प्रत्येक तीर्थंकर की माता जन्म सम्बन्धी स्वप्न में अनेक पदार्थ देखती हैं, इसका वर्णन आवश्यक था। इसी से पुष्पदन्त को स्वप्न का चौबीस बार वर्णन करना पड़ा किन्तु फिर भी एक-आध स्थल को छोड़कर सर्वत्र नवीन छन्दों और नवीन पदावलियों की योजना मिलती है और कहीं पिष्ठपेषण नहीं प्रतीत होता। पुष्पदन्त के बाद के कवियों ने इनका आदरपूर्वक स्मरण किया है।
जैनों द्वारा लिखे गये महापुराण, पुराण, चरिउ आदि ग्रंथों में बौद्ध सन्तों द्वारा लिखे गये स्वतंत्र पदों, गीतों और दोहों में, कुमार पाल प्रतिबोध, विक्रमोवंशीय, प्रबन्ध चिंतामणि आदि संस्कृत एवं प्राकृत ग्रंथों में जहाँ-तहाँ कुछ स्फुट पद्यों में
और वैयाकरणों द्वारा अपने व्याकरण ग्रंथों में उदाहरणों के रूप में दिये गये अनेक फुटकर पद्यों के रूप में हमें अपभ्रंश साहित्य उपलब्ध होता है। इसके अतिरिक्त विद्यापति की कीर्तिलता और बअब्दुल रहमान के संदेश रासक आदि काव्य ग्रंथों में अपभ्रंश साहित्य उपलब्ध हैं। संस्कृत और प्राकृत में लिखे गये अनेक शिलालेख उपलब्ध होते हैं किन्तु अपभ्रंश में लिखा हुआ कोई शिलालेख अभी तक प्रकाश में
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नहीं आ सका । बम्बई के संग्रहालय (अजायबघर ) में धारा से प्राप्त एक अपभ्रंश शिलालेख विद्यमान है। यह शिलालेख 13वीं शताब्दी के देवनागरी अक्षरों में लिखा हुआ है। इसमें राधे राघव के वंशज राजकुमार के सौन्दर्य का वर्णन है। इसी प्रकार अपभ्रंश के एक शिलालेख की और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपनी हिन्दी साहित्य की भूमिका में निर्देश किया है।'
अपभ्रंश साहित्य की सुरक्षा का श्रेय वस्तुतः जैन भंडारों को है। इन्हीं भण्डारों में से प्राप्त अपभ्रंश-साहित्य का अधिकांश भाग प्रकाश में आ सका है और भविष्य में भी अनेक बहुमूल्य ग्रंथों के प्रकाश में आने की संभावना है। अपभ्रंश साहित्य की पर्याप्त सामग्री इन भंडारों में छिपी पड़ी है। किसी ग्रंथ की हस्तलिखित प्रति करवाकर, किसी भंडार में श्रावकों के लाभ के लिए रखवा देना जैनियों में परोपकार और धर्म का कार्य समझा जाता है। यही कारण है कि अनेक भंडारों में इस प्रकार के हस्तलिखित ग्रंथ मिलते हैं।
जिस प्रकार जैनाचार्यों ने संस्कृत वाङ्मय में अनेक काव्य लिखे। अनेक पुराण ग्रंथों का प्रणयन किया। पार्श्वाभ्युदय द्विसंधान काव्य, शांतिनाथ चरित्रादि कलात्मक काव्य साहित्य का सृजन किया । चन्द्रदूत, सिद्धदूतादि अनेक दूतकाव्य और उपमिति भवप्रपंच कथा आदि रूपक काव्यों का निर्माण किया। इसी प्रकार इन्होंने अपभ्रंश में भी इस प्रकार के ग्रंथों का प्रणयन कर अपभ्रंश साहित्य को समृद्ध किया ।
जैनियों के अपभ्रंश को अपनाने का कारण यह था कि जैनाचार्यों ने अधिकांश ग्रंथ प्रायः श्रावकों के अनुरोध से ही लिखे। ये श्रावक तत्कालीन बोलचाल की भाषा से अधिक परिचित होते थे, अतः जैनाचार्यों द्वारा और भट्टारकों द्वारा श्रावक गण के अनुरोध पर जो साहित्य लिखा गया, वह तत्कालीन प्रचलित अपभ्रंश में ही लिखा गया। इन कवियों ने ग्रंथ के आरंभ में अपने आश्रयदाता श्रावकों का भी स्पष्ट परिचय दिया है । कवि के कुल एवं जाति के परिचय के साथ-साथ इन श्रावकों का भी विशद वर्णन ग्रंथारंभ की प्रशस्तियों में मिलता है।
जैन, बौद्ध और इतर हिंदुओं के अतिरिक्त मुसलमानों ने भी अपभ्रंश में रचना की। संदेश रासक का कर्त्ता (12वीं - 13वीं शताब्दी) । अब्दुर्रहमान इसका प्रमाण है। मुसलमान होते हुए भी इनके ग्रंथ में मंगलाचरण की कुछ पंक्तियों को छोड़कर अन्यत्र कहीं धर्म का कोई चिह्न भी दृष्टिगोचर नहीं होता ।
संस्कृत में यद्यपि जैनाचार्यों ने अनेक स्तोत्र, सुभाषित, गद्यकाव्य, आख्यायिका, चम्पू, नाटकादि का भी निर्माण किया किन्तु अपभ्रंश में हमें कोई भी गद्य-ग्रंथ और नाटक नहीं उपलब्ध होता ।
जैन कवियों ने किसी राजा, राजमंत्री या गृहस्थ की प्रेरणा से काव्य रचना की है, अतः इन कृतियों में उन्हीं की कल्याण कामना से किसी व्रत का माहात्म्य प्रतिपादन या किसी महापुरुष के चरित्र का व्याख्यान किया गया है। राजाश्रम में रहते हुए भी इन्हें धन की इच्छा न थी, क्योंकि ये लोग अधिकतर निष्काम पुरुष थे और न इन कवियों ने अपने आश्रयदाता के मिथ्या यश का वर्णन करने के लिए या किसी प्रकार की चाटुकारी के लिए कुछ लिखा । संस्कृत साहित्य में यद्यपि अनेक काव्यों का प्रणयन रामायण, महाभारत, पुराण आदि के
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किसी कथानक या उपाख्यान के आधार पर ही हुआ है तथापि ऐसे भी अनेक काव्य हैं जिनमें कवि ने अपने आश्रयदाता की विजय और वीरता का वर्णन किया है। जैनों ने संस्कृत में इन कथानकों या उपाख्यानों के अतिरिक्त अनेक ऐसे भी काव्य लिखे जिनमें किसी तीर्थंकर या जैनों के महापुरुष का जीवन चरित्र अंकित किया गया है। हेमचन्द्र का कुमारपाल चरित, वाग्भट का नेमिनिर्वाण, माणिक्य सूरि का यशोधर - चरित्र आदि इसके उदाहरण हैं। जैनों ने तीर्थंकरों और महापुरुषों के वर्णन के अतिरिक्त जैन धर्म के उपदेश की दृष्टि से भी सिद्धर्षि रचित उपमिति भवप्रपंच कथा, वीरनन्दीकृत चन्द्रप्रभ चरितम् आदि कुछ ग्रंथ लिखे । अपभ्रंश में संस्कृत - प्राकृत की परम्परा बनी रह सकी ।
I
पूर्व भारत में सिद्धों की रचनायें सहजयान के प्रचार अथवा अपने मत का प्रतिपादन करने के लिए लिखी गई। जैनियों के भी अधिकांश ग्रंथ किसी तीर्थंकर या जैन महापुरुष का चरित वर्णन करने, किसी व्रत का माहात्म्य बतलाने या अपने मत का प्रतिपादन करने की दृष्टि से लिखे गये । किन्तु ऐसा होते हुए भी जैन कवि धर्मान्ध या कट्टर साम्प्रदायिक न थे। इनमें सामाजिक सहिष्णुता और उदार भावना दृष्टिगत होती है। इनकी सदा यह अभिलाषा रही कि नैतिक और सदाचार संबंधी जैन धर्म के उपदेश अधिक से अधिक जन-साधारण तक पहुँचे । हिन्दुओं के शास्त्रों और पुराणों का अध्ययन उन्होंने किया हुआ था, इसका निर्देश इनकी रचनाओं में ही मिलता है।
सभी देशों और सभी युगों में काव्य के प्रधान विषय मानव और प्रकृति ही रहे हैं । इनके अतिरिक्त मानव से ऊपर और प्रकृति को वश में करने वाले देवी - देवता भी अनेक काव्यों के विषय हुआ करते थे। अधिकांश संस्कृत काव्यों में किसी महापुरुष के महान् और वीर कार्यों का चित्रण भी दृष्टिगोचर होता है । वाल्मीकिकृत रामायण का विषय महापुरुष रामचन्द्र ही है । इस प्रकार प्राचीनकाल में किसी महापुरुष का महान् और वीर कार्य ही काव्य का विषय होता था । कालान्तर में कोई देवी-देवता या तज्जन्य मानव भी काव्य का विषय होने लगा । कालिदास के कुमार संभव में भगवान् शंकर और पार्वती की अवतारणा है। भारवि के किरातार्जुनीयम् में भगवान् शंकर और देवसंभव अर्जुन का वर्णन है । कालान्तर में जब साहित्य को राजाश्रय प्राप्त हुआ तब उच्चकोटि के कवियों ने महान् और यशस्वी राजाओं को भी काव्य का विषय बना दिया। काव्य का नायक धीरोदात्त क्षत्रिय होने लग गया। अनेक काव्य इसके प्रमाण हैं । इन काव्यों में प्रकृति भी स्वतंत्र रूप से या गौण रूप से वर्णन का विषय रही है। प्रकृति का वर्णन महाकाव्य का एक अंग बन गया। महाकाव्यों में वन, नदी, पर्वत, संध्या, सूर्योदय, चन्द्रोदय आदि के वर्णन आवश्यक हो गये। इन विषयों के अतिरिक्त प्रेम भी कवियों का वर्ण्य विषय रहा। महाकाव्यों में यह तत्त्व इतना अधिक स्पष्ट नहीं दिखाई देता जितना कि नाटकों में। स्वप्नवासवदत्ता, विक्रमोर्वंशीय, शाकुन्तलम्, मालती माघव, 'रत्नावली' आदि नाटकों में इसी प्रेम तत्त्व की प्रधानता है। महाकाव्यों के अतिरिक्त अनेक इस प्रकार के मुक्तक काव्य भी लिखे गये जिनमें, नीति, वैराग्य या श्रृंगारादि का वर्णन है । इस प्रकार संस्कृत और प्राकृत के काव्यों का मुख्य विषय- महापुरुष वर्णन, देवी-देवता वर्णन, प्रकृति वर्णन और प्रेम ही रहा । गौण रूप से नीति, वैराग्य, श्रृंगारादि का भी वर्णन तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2002
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हुआ। इनका संबंध भी मानव के जैसा ही है। इन विषयों के कारण काव्य में वीर, श्रृंगार या शान्त रस ही प्रधान रूप से प्रस्फुटित हुआ।
अपभ्रंश साहित्य में भी संस्कृत और प्राकृत की परम्परा के अनुकूल ही जैनियों ने या तो किसी महापुरुष के अथवा किसी तीर्थंकर के चरित्र का वर्णन या किसी महापुरुष के चरित्र द्वारा व्रतों के माहात्म्य का प्रतिपादन किया है। सिद्धों की कविता का विषय अध्यात्मपरक होने के कारण उक्त विषयों से भिन्न है। अपनी महत्ता प्रतिपादन के लिए प्राचीन रूढ़ियों का खंडन, गुरु की महिमा का गान और रहस्यवाद आदि इनकी कविता के मुख्य विषय हैं।
जैन प्रबंध-काव्यों के कथानक की रचना का आधार जैनियों के कर्म विपाक का सिद्धान्त प्रतीत होता है । इसी को सिद्ध करने के लिए जैन कवि इतिहास की उपेक्षा कर उसे स्वेच्छा से तोड़-मरोड़ देता है। इसी कर्म सिद्धान्त की पुष्टि के लिए जैन कवि स्थल-स्थल पर पुनर्जन्मवाद का सहारा लेता है। अपभ्रंश साहित्य की रचना की पृष्ठभूमि प्रायः धर्मप्रचार है। जैनधर्म के लेखक प्रथम प्रचारक हैं फिर कवि।
अपभ्रंश साहित्य में हमें महापुराण, पुराण और चरित काव्य के अतिरिक्त रूपक काव्य, कथात्मक ग्रंथ, सन्धि काव्य, रासक ग्रंथ, स्तोत्र आदि भी उपलब्ध होते हैं । इनमें से महापुराणों का विषय –चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नौ वासुदेव, नौ बलदेव, नौ प्रति वासुदेवों का वर्णन है । इस प्रकार 63 महापुरुषों के वर्णन के कारण ऐसे ग्रंथों को त्रिषष्ठि श्लाकापुरुष चरित या तिसट्टि महापुरिस गुणालंकार भी कहा गया है। सं. 1016-1022 पुराणों में पद्मपुराण और हरिवंश पुराण के रूप में ही लिखे पुराण मिलते हैं। पद्मपुराण में प्राचीन रामायण कथा का और हरिवंश पुराण में प्राचीन महाभारत की कथा का जैन धर्मानुकूल वृत्तान्त मिलता है। ये दोनों कथायें जैनियों ने कुछ परिवर्तन के साथ अपने पुराणों में ली। ___जैनियों ने रामकथा के पात्रों को अपने धर्म में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। राम, लक्ष्मण और रावण केवल जैन धर्मावलम्बी ही नहीं माने गये अपितु इनकी गणना त्रिषष्ठि महापुरुषों में की गई है। प्रत्येक कल्प के त्रिषष्ठि महापुरुषों में से नौ बलदेव, नौ वासुदेव और नौ प्रतिवासुदेव माने जाते हैं । ये तीनों सदा समकालीन होते हैं । राम, लक्ष्मण और रावण क्रमशः आठवें बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासुदेव माने गये हैं। जैनधर्मानुसार बलदेव और वासुदेव किसी राजा की भिन्न-भिन्न रानियों के पुत्र होते हैं। वासुदेव अपने बड़े भाई बलदेव के साथ प्रतिवासुदेव से युद्ध करते हैं और अन्त में उसे मार देते हैं। परिणामस्वरूप जीवन के बाद वासुदेव नरक में जाते हैं । बलदेव अपने भाई की मृत्यु के कारण दुःखाकुल होकर जैनधर्म में दीक्षित हो जाते हैं और अन्त में मोक्ष प्राप्त करते हैं।
स्थूल दृष्टि से रामायण में दो संप्रदाय दृष्टिगत होते हैं-एक तो विमल सूरि की परम्परा और दूसरी गुणभद्राचार्य की। साहित्य दृष्टि से आचार्य गुणभद्र की कथा की अपेक्षा विमल सूरि की कथा अनेक सुन्दर वर्णनों से युक्त है और अधिक चित्ताकर्षक हैं। अतएव गुणभद्र की कथा की अपेक्षा विमल सूरि की कथा कवियों में विशेष रूप से और लोक में सामान्य
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रूप से अधिक आदृत हुईं। विमलसूरि के पद्मचरिय का संस्कृत रूपान्तरण रविषेणाचार्य ने पद्मचरित नाम से किया।
विमलसूरि की कथा में रावण का चरित्र उदात्त और उज्ज्वल अंकित किया गया है। इसमें रावण सौम्याकार, सौजन्य, दया, क्षमा, धर्मभीरूत्व, गांभीर्य आदि सद्गुणों से युक्त एक श्रेष्ठ पुरुष और महात्मा चित्रित किया गया है।
विमलसूरि की परम्परा के अनुसार रामकथा का स्वरूप इस प्रकार का है -
राजा रत्नश्रवा और केकसी की चार संतान हुई रावण, कुम्भकर्ण, चन्द्रनखा और विभीषण। जब रत्न श्रवा ने प्रथम बार नन्हें पुत्र रावण को देखा तो उसके गले में एक माला पड़ी हुई थी। इस माला में बच्चे के दस सिर दिखाई दिये, इसलिए पिता ने उसका नाम दशानन या दशग्रीव रखा। विमलसूरि ने इन्द्र, यम, वरुण आदि को देवता न मानकर राजा माना है। हनुमान ने रावण की ओर से वरुण के विरुद्ध युद्ध करके चन्द्रनखा की पुत्री अनंगकुसुमा से विवाह किया। खरदूषण किसी विद्याधरवंश का राजकुमार था, रावण का भाई नहीं। उसका रावण की बहिन चन्द्रनखा से विवाह हुआ। इनके पुत्र का नाम शम्बूका था।
पउमचरिय में बतलाया गया है कि राजा दशरथ की-कौशल्या, सुमित्रा, कैकेयी और सुप्रभा नामक चार रानियों से क्रमशः राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न नामक पुत्र उत्पन्न हुए।
राजा जनक की विदेहा नामक रानी से एक पुत्री सीता और एक पुत्र भामंडल उत्पन्न हुए। सीता-स्वयंवर, कैकेयी का वर मांगना आदि प्रसंग वाल्मीकि रामायण के अनुसार ही हैं किन्तु वनवास का अंश नितान्त भिन्न हैं।
विमलसूरि के अनुसार सीताहरण का कारण, सूयंहास खड़ग की प्राप्ति के लिए तपस्या करते हुए शम्बूक का लक्ष्मण द्वारा भूल से मारा जाना था। शम्बूक शूद्र न होकर चन्द्रनखा तथा खरदूषण का पुत्र था। रावण यह समाचार सुन वहाँ पहुँचा और सीता को देखकर उस पर आसक्त हो गया। सीताहरण के समय लक्ष्मण जंगल में थे और राम सीता के पास पर्णकुटी में । लक्ष्मण ने राम को बुलाने के लिए सिंहनाद का संकेत बताया था। रावण ने लक्ष्मण के समान सिंहनाद किया, जिसे लक्ष्मण का सिंहनाद समझकर राम व्याकुल हो सीता को जटायु की रक्षा में छोड़ वहाँ से चल पड़े। पीछे से रावण ने सीताहरण कर लिया।
रामायण के युद्धकांड की घटनाएँ भी पउमचरियं में कुछ परिवर्तित हैं। समुद्र एक राजा का नाम था, जिसके साथ नील ने घोर युद्ध किया और उसे हराया। जब लक्ष्मण को शक्ति लगी तो द्रोणमेघ की कन्या विशल्या की चिकित्सा से वह अच्छा हुआ और लक्ष्मण ने विशल्या के साथ विवाह कर लिया। अन्त में लक्ष्मण ने रावण का संहार किया।
__ अयोध्या में लौटकर राम अपनी आठ हजार और लक्ष्मण अपनी तेरह हजार पत्नियों के साथ राज्य करने लगे। लोकापवाद के कारण सीता-निर्वासन और सीता की अग्नि परीक्षा का प्रसंग वाल्मीकि रामायण के अनुसार ही है। अग्नि-परीक्षा में सफल होकर सीता ने एक आर्यिका के पास जैनधर्म में दीक्षा ले ली और बाद में स्वर्ग सिधारी।
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एक दिन दो स्वर्गवासी देवों ने बलदेव और वासुदेव के प्रेम की परीक्षा के लिए लक्ष्मण को विश्वास दिलाया कि राम का देहान्त हो गया। इससे शोकाकुल होकर लक्ष्मण मर गये और अन्त में नरक सिधारे । लक्ष्मण की अन्त्येष्टि के पश्चात् राम ने जैनधर्म में दीक्षा ले ली और साधना करके मोक्ष को प्राप्त किया।
गुणभद्र की परम्परा के अनुसार रामकथा का रूप निम्न लिखित है। वाराणसी के राजा दशरथ की सुबाला नामक रानी के राम, कैकयी से लक्ष्मण और बाद में साकेतपुरी में किसी अन्य रानी से भरत और शत्रुध्न नामक पुत्र उत्पन्न हुए। गुणभद्र के अनुसार सीता रावण की रानी मंदोदरी की पुत्री थी। सीता को अमंगलकारिणी समझकर उन्होंने उसे एक मंजूषा में डलवा कर मारीच द्वारा मिथिला देश में गड़वा दिया। हल की नोक में उलझी वह मंजूषा राजा जनक के पास ले जाई गई। जनक ने उसमें एक कन्या को देखा और उसका नाम सीता रखकर पुत्री की तरह पालन-पोषण किया। चिरकाल के पश्चात् राजा जनक ने अपने यज्ञ की रक्षा के लिये राम और लक्ष्मण को बुलाया। यज्ञ समाप्ति पर राम और सीता का विवाह हुआ। राम-लक्ष्मण दोनों दशरथ की आज्ञा से वाराणसी में रहने लगे। कैकयी के हठ करने पर राम को वनवास लेने आदि का इस परम्परा में कोई निर्देश नहीं। पंचवटी, दण्डक वन, जटायु, शूर्पणखाँ, खरदूषण आदि के प्रसंगों का भी अभाव है।
राजा जनक ने रावण को अपने यज्ञ में निमंत्रित किया था। इस पराभव से जल कर और नारद के मुख से सीता के सौन्दर्य की प्रशंसा सुनकर रावण ने स्वर्णमृग का रूप धारण किये हुए मारीच द्वारा सीता का अपहरण कर लिया। सीताहरण के समय राम और सीता वाराणसी के निकट चित्रकूट वाटिका में विहार कर रहे थे।
गुणभद्र की कथा में हनुमान ने राम की सहायता की। लंका में जाकर सीता को सांत्वना दी। लंका दहन के प्रसंग का निर्देश नहीं किया गया। युद्ध में लक्ष्मण ने रावण का सिर काटा।
राम और लक्ष्मण दोनों अयोध्या लौटे। राम की आठ हजार और लक्ष्मण की सौलह हजार रानियों का उल्लेख किया गया है। लोकापवाद के कारण सीता-निर्वासन की इसमें चर्चा नहीं। लक्ष्मण एक असाध्य रोग से मरकर रावण वध के कारण नरक को गये। इससे विक्षुब्ध होकर राम ने लक्ष्मण के पुत्र पृथ्वी सुन्दर को राज्य पद पर और सीता के पुत्र अजितंजय को युवराज पद पर अभिषिक्त करके स्वयं जैनधर्म में दीक्षा ले ली और अन्त में अच्युत स्वर्ग प्राप्त किया।
जैन राम कथा में कई असंभव घटनाओं को संभव रूप में व्याख्या करने का प्रयत्न किया गया है। इसमें वानर और राक्षस दोनों विद्याधर वंश की भिन्न-भिन्न शाखा मानी गई हैं। जैनियों के अनुसार विद्याधर मनुष्य ही माने गये हैं। उन्हें कामरूपत्व, आकाशगामिनी आदि अनेक विद्यायें सिद्ध थीं, अतएव उनका नाम विद्याधर पड़ा। वानरवंशी विद्याधरों की ध्वजाओं, महलों और छतों के शिखर पर वानरों के चिह्न हआ करते थे, अतएव उन्हें वानर कहा जाता था। "जैन सिद्धान्त भास्कर" जैन साहित्य और इतिहास में भी यही बात उल्लिखित है।
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अपभ्रंश के कवियों ने इन्हीं में से किसी परम्परा को लेकर राम कथा रची। स्वयंभू ने विमलसूरि के परम चरिय की और पुष्पदन्त ने गुणभद्र के उत्तर पुराण की परंपरा का अपने पुराणों में अनुगमन किया है।
चरित ग्रंथों में किसी तीर्थंकर या महापुरुष के चरित्र का वर्णन मिलता है। जैसे जसहर चरिउ, पासणाह चरिउ, वड्ढमाण चरिउ, णेमिणाह चरिउ इत्यादि । इन 63 महापुरुषों के अतिरिक्त भी अन्य धार्मिक पुरुषों के जीवन-चरित्र से संबद्ध चरित ग्रंथ लिखे गये। जैसे पउमसिरी चरिउ (वि. 1910) भविसयत्त चरिउ, सुदसण चरिउ (वि. 1100) इत्यादि। इनके अतिरिक्त अपभ्रंश साहित्य में अनेक कथात्मक ग्रंथ भी मिलते हैं। अपभ्रंश साहित्य के कवियों का लक्ष्य साधारण के हृदय तक पहुँच कर उनको सदाचार की दृष्टि से ऊँचा उठाना था। जैनाचार्यों ने शिक्षित और पंडित वर्ग के लिए ही न लिखकर अशिक्षित और साधारण वर्ग के लिए भी लिखा। जनसाधारण को प्रभावित करने के लिए कथात्मक साहित्य से बढ़कर अच्छा और कोई साधन नहीं।
यही कारण है कि पुराण चरितादि सभी ग्रंथ अनेक कथाओं और अवान्तर कथाओं से ओतप्रोत हैं। धार्मिक विषय का प्रतिपादन भी कथाओं से समन्वित ग्रंथों द्वारा किया गया है। श्रीचन्द्र का लिखा हुआ कथाकोष अनेक धार्मिक और उपदेशप्रद कथाओं का भंडार है। अमरकीर्ति द्वारा रचित छक्कमोवएस (षड्कर्मोपदेश) में कवि ने गृहस्थों को देव-पूजा, गुरुसेवा, शास्त्राभ्यास, संगम, तप और दान इन षट्कर्मों के पालन का उपदेश अनेक सुन्दर कथाओं द्वारा दिया है। इस प्रकार के कथा-ग्रंथों के अतिरिक्त भविसयत्त कहा, पज्जुण्ह कहा, स्थूलिभद्र कथा आदि स्वतंत्र कथा-ग्रंथ भी लिखे गये। कथायें किसी प्रसिद्ध पुरुष के चरित वर्णन के अतिरिक्त अनेक व्रतादि के माहात्म्य को प्रदर्शित करने के लिए भी लिखी गईं।
जैनियों के लिखे चरिउ ग्रंथों में किसी महापुरुष का चरित अंकित होता है। इन ग्रंथों को कवियों ने रासक नहीं कहा। यद्यपि रासकग्रंथों में भी चरित वर्णन मिलता है, जैसे पृथ्वीराज रासो विरचरिउ काव्य तथा कथात्मक ग्रंथ प्रायः धर्म के आवरण से आवृत्त हैं। अधिकांश चरित्त काव्य प्रेमाख्यान या प्रेमकथापरक काव्य हैं। इनमें वर्णित प्रेमकथाएं या तो उस काल में प्रचलित थीं या इन्हें प्रचलित कथाओं के आधार पर कवियों ने स्वयं अपनी कल्पना से एक नया रूप दे डाला। जो भी हो, इन सुन्दर और सरस प्रेमकथाओं को उपदेश, नीति और धर्मतत्त्वों से मिश्रित कर कवियों ने धर्मकथा बना डाला। जैनाचार्यों द्वारा प्राकृत में लिखित समराइच्च कहा और वसुदेवहिण्डि जैसी आदर्श धर्मकथाओं की परम्परा इन अपभ्रंश के चरित काव्यों में चलती हुई प्रतीत होती हैं । इन विविध चरित काव्यों में वर्णित प्रेमकथा में प्रेम का आरंभ प्राय: समान रूप से ही होता है।
___ नायक और नायिका के सम्मिलन में कुछ प्रयत्न नायक की और से भी होता है। अनेक नायकों को सिंहल की यात्रा करनी पड़ती है और अनेक कष्ट भोगने पड़ते हैं। प्रेम कथा में प्रतिनायक की उपस्थिति भी अनेक चरित ग्रंथों में मिलती है। प्रतिनायक की कल्पना नायक
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के चरित्र को उज्ज्वल करने के लिए ही की जाती है किन्तु अपभ्रंश काव्यों में प्रतिनायक का चरित्रपूर्ण रूप से विकसित हुआ नहीं दिखाई देता। नायक को नायिका की प्राप्ति के अनन्तर भी अनेक बार संकट भोगने पड़ते हैं। इसका कारण पूर्व जन्म के कर्मों का विपाक होता है।
इन सब चरित काव्यों में आश्चर्य तत्त्व अथवा चमत्कार बहलता से दिखाई देते हैं। विद्याधर, यक्ष, गंधर्व, देव आदि समय-समय पर प्रकट होकर पात्रों की सहायता करते रहते हैं। धर्म की विजय के लिए कवि ने इन्हीं तत्त्वों का आश्रय लिया है। विद्याधर, देव आदि का समय पड़ने पर उपस्थिति का संबंध पूर्व जन्म के कर्मों से बतलाकर उस अस्वाभाविकता को दूर करने का प्रयत्न किया गया है। तंत्र-मंत्र में विश्वास, मुनियों की वाणी में श्रद्धा, स्वप्रफल और शकुनों में विश्वास करने वाले व्यक्तियों के प्रसंग भी इन प्रबंध काव्यों में दिखाई देते हैं।
अपभ्रंश साहित्य में धर्म-निरपेक्ष लौकिक-कथानक को लेकर लिखे गये प्रबंधकाव्यों की संख्या अति स्वरूप उपलब्ध हुई है। विद्यापति की कीर्तिलता में राजा के चरित का वर्णन है । वह ऐतिहासिक प्रबन्ध-काव्य कहा जा सकता है। अब्दुल रहमान के सन्देशरासक में एक विरहिणी का अपने प्रियतम के प्रति संदेश है। यह सन्देश काव्य ही पूर्ण रूप से लौकिक प्रबंध-काव्य है। इस प्रकार के अन्य प्रबंध काव्य भी लिखे गये होंगे, जिनका जैन भण्डारों के धार्मिक ग्रंथ समुदाय के साथ प्रवेश न हो सका होगा और अतएव वे सुरक्षित न रह सके।
कथात्मक ग्रंथों के अतिरिक्त अपभ्रंश में जीवन:करण संलाप कथा नामक एक रूपक-काव्य भी लिखा गया। वह सौमप्रभाचार्यकृत कुमारपाल प्रतिबोध नामक प्राकृत ग्रंथ का अंश है। इसमें जीव, मन, इन्द्रियों आदि को पात्र का रूप देकर उपस्थित किया गया है। इसी प्रकार हरिदेवकृत मदन पराजय भी इसी प्रकार का एक रूपक-काव्य है। इसमें कवि ने काम, मोह, अहंकार, अज्ञान, रागद्वेष आदि भावों को पात्रों का रूप देकर प्रतीक रूपक काव्य की रचना की है।
अपभ्रंश साहित्य में कुछ रास ग्रंथ भी उपलब्ध हुए हैं। पृथ्वीराजरासो (वि. 1213वीं शताब्दी) मूल रूप में जिसके अपभ्रंश में होने की कल्पना दृढ़ होती जा रही है और सन्देश रास जो एक सन्देश काव्य है, को छोड़कर प्रायः सभी उपलब्ध रास ग्रंथों का विषय धार्मिक ही है। जिनदत्तसूरिकृत उपदेश रसायन (वि. 1132-1210वीं शताब्दी) रास में धार्मिकों के कृत्यों का उल्लेख किया है और अन्तरंगरास नामक दो अन्य अपभ्रंश रासग्रंथों का भी उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त जंबू स्वामिरास (वि. 1266 शताब्दी वि. 1510 से पूर्व) समरारास, सकेरेवंतगिरिरास (वि. 1200वीं शताब्दी) आदि कुछ प्राचीन गुजराती से प्रभावित अपभ्रंशरास भी लिखे गये। इन सबमें राजयश के स्थान पर धार्मिकता का अंश है। रास ग्रंथों में धार्मिक पुरुष के चरित वर्णन के अतिरिक्त गुरु-स्तुति, धार्मिक उपदेश, व्रत, दान संबंधी कथाओं का उल्लेख भी मिलता है।
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जैन दर्शन में 'नय सिद्धान्त का उद्भव
-डॉ. अनेकान्त कुमार जैन
जैन दर्शन में नय सिद्धान्त का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। वस्तु के बहुआयामी स्वरूप को समझने के लिए 'नय' जैनों की एक मौलिक खोज है। 'नय' सिद्धान्त के चिन्तन के उद्भव एवं विकास की एक सुदीर्घ परम्परा है।
दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों ही मतों के ग्रन्थों में नय विषयक पर्याप्त चिन्तन मिलता है। दोनों ही परम्पराओं में इस विषय पर कोई विशेष मतभेद भी नहीं है। 'नय' जैनदर्शन के द्वारा भारतीय दर्शन को दी गयी मौलिक देन इसलिये है, क्योंकि यह अवधारणा किसी अन्य भारतीय दर्शन में प्राप्त नहीं होती। आचार्य महाप्रज्ञ का मत है कि 'जैन परम्परा में नयों की चर्चा प्राचीन है जबकि प्रमाण की चर्चा अपेक्षाकृत अर्वाचीन है।"
__ यदि हम नयों के उद्भव की खोज करना चाहें तो हमें दो परम्परायें मिलती हैं जो कि कालक्रम की दृष्टि से लगभग समकालिक हैं ---
1. नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र एवं शब्दनय के इन पांच भेदों की चर्चा, जो कसाय पाहुड चूर्णि नामक ग्रन्थ में उपलब्ध है।
2. द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नामक नय के दो भेदों की चर्चा, जिसका उल्लेख भगवती सूत्र में है, जहां पर्यायार्थिक नय को भावार्थिक नय कहा गया है।'
। यद्यपि ये दोनों परम्परायें आपाततः परस्पर असम्बद्ध प्रतीत होती हैं तथापि जैसा कि दिगम्बर' तथा श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं के परवर्ती जैनाचार्यों ने स्पष्ट किया है कि प्रथम परम्परा मान्य पांच नयों का समावेश द्वितीय परम्परा मान्य दो नयों में हो जाता है। उल्लेखनीय है कि जैनदर्शन के इतिहास में ये दोनों ही परम्परायें कषायपाहुड़, षट्खण्डागम, अनुयोगद्वार और तत्त्वार्थसूत्र जैसी प्रामाणिक कृतियों में साथ-साथ पल्लवित पुष्पित होती रहीं।
प्रमाण की अपेक्षा ऐतिहासिक विकास की दृष्टि से हमें नय पहले प्राप्त होता है। नय एवं प्रमाण के सन्दर्भ में हमें एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य प्राप्त हुआ है जिससे
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नय ही सर्वोपरि सिद्ध हो रहा है। तथ्य का स्रोत आचार्य महाप्रज्ञ' का निम्नलिखित वक्तव्य हैं जो विचारणीय है
'अनेकान्त का स्वरूप है नयवाद या दृष्टिवाद । मध्य युग में तर्कप्रधान आचार्यों ने अनेकान्त का प्रमाण के साथ संबंध स्थापित किया है, वह मौलिक नहीं है । अनेकान्तवाद के अनुसार प्रमाण औपचारिक है, वास्तविक है नय । '
आगम युग -
कषायपाहुड, षट्खंडागम, भगवती, अनुयोगद्वार तथा आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रंथों को हम आगम युग का मान रहे हैं। आगम युग में नय का उद्भव हो रहा था । अनुयोगद्वार तथा आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रंथों में नयों का जिस प्रकार प्रयोग दिखता है उससे प्रतीत होता है कि नयों की अवधारणा स्पष्ट रूप से सामने आ चुकी थी ।
कषायपाहुड़
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आचार्य गुणधर द्वारा शौरसेनी प्राकृत भाषा में रचित 'कषायपाहुडसुत्त' नामक जैन कर्म-सिद्धान्त विषयक परम्परा का एक प्राचीनतम आगम ग्रन्थ है, जो कि विक्रम पूर्व की प्रथम शती का ग्रन्थ माना जाता है। 'कषायपाहुडसुत्त' में मुख्यतः कषायों की चर्चा है। जहां तक नयों का संबंध है, राग-द्वेष की चर्चा के प्रसंग में नयों का प्रयोग किया गया है। मूल 'कसायपाहुडसुत्त' की गाथा में नय शब्द का प्रयोग हुआ है। प्रथम पेज्जदोसविहत्ती अधिकार में ही प्रश्न उठाया गया है कि किस-किस कषाय में किस-किस नय की अपेक्षा प्रेय या द्वेष का व्यवहार होता है ? अथवा कौन नय किस द्रव्य में द्वेष को प्राप्त होता है और कौन नय किस द्रव्य में प्रिय के समान आचरण करता है ?
यहां इस सूत्र का यह अभिप्राय है कि प्रेय और द्वेष किसे कहते हैं ? उनका कषायों से क्या सम्बन्ध है? वे प्रेय (राग) और द्वेष किस-किस नय के विषय होते हैं ? और यह रागद्वेष से भरा हुआ जीव किस द्रव्य को द्वेषकर या अपना अहितकारी समझकर उनमें द्वेष का व्यवहार करता है और किस द्रव्य को प्रियकर या हितकारी समझकर उसमें राग करता है ?
इस प्रकार के प्रश्नों को गुणधराचार्य ने उठा तो दिया किन्तु स्वयं उत्तर स्वरूप कोई सूत्र नहीं कहा फिर भी गुणधराचार्य के अभिप्राय को समझकर यतिवृषभाचार्य ने 'कसायपाहुडचूर्णि' की रचना की जिसमें नैगमादि नयों की अच्छी चर्चा भी है तथा इनके माध्यम से गुणधराचार्य के मूल वक्तव्य को स्पष्ट करके नये आयाम प्रस्तुत किये हैं। वे कहते हैं कि इस गाथा के पूर्वार्ध की विभाषा - विशेष व्याख्या करनी चाहिए। चूर्णिकार ने अन्य व्याख्यायें तो प्रस्तुत की ही किन्तु हमारा ध्यान उनके एक विशेष कथन की तरफ गया जिसमें उन्होंने रहस्य खोला कि ग्रन्थ का जो नाम 'कसायपाहुड़' है वह भी नय निष्पन्न है।
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यहां एक बात और ध्यान देने योग्य है कि पूरे ग्रन्थ को नयों में ही व्याख्यायित करने के बाद भी यहां कोई नय की परिभाषा सम्बन्धी गाथा या सूत्र देखने में नहीं आया । षट्खंडागम
'षट्खंडागम' के रचयिता धरसेनाचार्य के शिष्य पुष्पदन्त व भूतबली हैं। इसके छह
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खण्ड हैं। प्रथम खण्ड - जीवस्थान। द्वितीय खण्ड - खुद्दाबन्ध, तृतीय खण्ड - बन्धस्वामित्वविचय, चतुर्थ खण्ड- वेदनाखण्ड, पंचम खण्ड-वर्गणा खण्ड और छठवां खण्ड- महाबन्ध । इसमें चतुर्थ खण्ड-वेदना खण्ड तथा पंचम-वर्गणा खण्ड में नैगमादि नयों का उल्लेख है। विभिन्न विषयों के प्रतिपादन में इनका सहारा लिया गया है । वेदनाखण्ड में वेदना निक्षेप अनुयोगद्वार के अन्तर्गत 'वेदना' शब्द के अनेक अर्थ निर्दिष्ट किये गये हैं। उनमें कहां, कौन-सा अर्थ ग्राह्य है, यह नय भेदों के माध्यम से ही समझाया जा सकता है। इसीलिए वेदना खण्ड में वेदना-नय --विभाषणा नाम का द्वितीय अधिकार ही बना दिया।
पखंडागम ग्रन्थ में भी नय की परिभाषा सम्बन्धी कोई सूत्र देखने में नहीं आया। भगवती
द्वादशांगी के पांचवें अंग का नाम है - 'विआहपण्णत्ती' जो भगवती सूत्र के नाम से प्रसिद्ध है। इस आगम में अनेकांत तथा नय का विवेचन किया गया है । यद्यपि यहां सात नयों का उल्लेख नहीं है और न ही नय सम्बन्धी कोई परिभाषा कही गयी है, तथापि नय सिद्धान्त के मूल को यहां खोजा जा सकता है।
नयों का प्रयोग देखें तो मुख्य रूप से द्रव्यार्थिक नय एवं पर्यायार्थिक नय तथा निश्चयनय एवं व्यवहार नय की चर्चा यहां पर आयी है। भगवती में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-इन चार दृष्टियों का समावेश दो नयों में या दो दृष्टियों में किया गया है। वे दो नय हैं -- द्रव्यार्थिक और भावार्थिक या (पर्यायार्थिक)।" द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दोनों का भगवती में क्या अभिप्राय है? यह बात भगवती के वर्णन से स्पष्ट हो जाती है। भगवती के अनुसार अव्युच्छित्तिनय की अपेक्षा नैरयिक जीव शाश्वत हैं और व्युच्छित्ति नय की अपेक्षा नैरयिक जीव अशाश्वत ।
___ इससे यह स्पष्ट तो हो ही जाता है कि वस्तु की नित्यता का प्रतिपादन द्रव्यदृष्टि से होता है और अनित्यता का प्रतिपादन पर्यायदृष्टि से अर्थात् द्रव्य नित्य है और पर्याय अनित्य । इसी से यह भी फलित हो जाता है कि द्रव्यार्थिक दृष्टि अभेदगामी है और पर्यायार्थिक दृष्टि भेदगामी, क्योंकि नित्य में अभेद होता है और अनित्य में भेद।
भगवती में व्यावहारिक और नैश्चयिक नयों के माध्यम से भी वस्तु स्वरूप को समझाने का प्रयास किया गया है। यहां फाणित प्रवाही (गीला) गुड़ को दो नयों में समझाया गया है। व्यावहारिक नय की अपेक्षा से तो वह मधुर कहा जाता है पर नैश्चयिक नय से वह पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस और आठ स्पर्शों से युक्त है।'
इससे यह स्पष्ट होता है कि व्यावहारिक दृष्टि बाह्य गुण (सामान्य गुण) को तथा नैश्चयिक दृष्टि आन्तरिक गुणों को ग्रहण करती है। आचार्य कुन्दकुन्द ने व्यवहार-निश्चयनय का अध्यात्म तथा तत्त्वज्ञान के अनेक विषयों में प्रयोग किया है। अनुयोगद्वार सूत्र
अनुयोगद्वार सूत्र आर्यरक्षित द्वारा रचित माना जाता है। विषय और भाषा की दृष्टि से यह सूत्र काफी अर्वाचीन मालूम होता है। इस ग्रन्थ पर जिनदासगणि महत्तर की चूर्णि तथा तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2002 -
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हरिभद्र और अभयदेव के शिष्य मलधारि हेमचन्द्र की टीकायें हैं। अनुयोग द्वार का मुख्य विषय चौदह अनुयोगद्वार हैं। प्रश्नोत्तर की शैली में इसमें प्रमाण, पल्योपम, सागरोपम, संख्यात, असंख्यात और अनन्त के प्रकार तथा निक्षेप, अनुगम और नय का प्ररूपण है।
अनुयोगद्वार सूत्र में नय सम्बन्धी विशद विवेचन है। अनुयोगद्वार सूत्र में ही प्रथम बार सातों नयों की पृथक्-पृथक् स्पष्ट परिभाषाएँ मिलती हैं।
वस्तुत: अनुयोगद्वार आवश्यक-सूत्र के सामायिक नामक प्रथम अध्ययन की टीका है। वहां यह कहा गया है कि सामायिक में उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय नामक.अनुयोगद्वार हैं। इनमें भी विशेषकर चार निक्षेपों पर बल दिया गया है। द्रव्य और भाव को क्रमश: बाह्यपक्ष और आन्तरिक पक्ष बतलाया गया है।
___अनुयोगद्वार में नय की चर्चा नय प्रमाण के रूप में हुई है। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार यहां प्रमाण का प्रयोग व्यापक अर्थ में हुआ है। इससे प्रतीत होता है कि आर्यरक्षित के काल में नय को प्रमाण का अंश मानने का सिद्धान्त स्थापित ही नहीं हुआ था, क्योंकि उत्तरवर्ती जैन दार्शनिकों ने नय को प्रमाण नहीं माना बल्कि उसको अंश स्वीकार किया है। वे मानते हैं कि प्रमाण का विषय है – अनन्तधर्मात्मक अखण्ड वस्तु और नय का विषय है उसका एक धर्म। एक दृष्टि से नय न प्रमाण है और न अप्रमाण है किन्तु प्रमाणांश है।"
नय प्रमाण को प्रस्थक, वसति तथा प्रदेश ----- इन तीन दृष्टान्तों से समझाया गया है।"
आगम परम्परा में अभी तक जो ज्ञात हो पाया है उसके अनुसार सात नयों की परिभाषा पहली बार अनुयोगद्वार में ही देखने को मिली । उसका विवरण निम्न प्रकार से है - 1. नैगम नय-जो अनेक मानों (प्रकारों) से वस्तु के स्वरूप को जानता है,
अनेक भावों से वस्तु का निर्माण करता है, वह नैगम नय है। 2. संग्रह नय- सम्यक् प्रकार से गृहीत एक जाति को प्राप्त अर्थ जिसका विषय
है, वह संग्रह नय का वचन है।" 3. व्यवहार नय-व्यवहार नय सर्वद्रव्यों के विपय में विनिश्चय (विशेष भेद
रूप में निश्चय) करने के निमित्त प्रवृत्त होता है। ऋजुसूत्र नय-ऋजुसूत्रानयविधि-प्रत्युत्पन्नग्राही (वर्तमान पर्याय को ग्रहण
करने वाली) जानना चाहिए। 5. शब्द नय-शब्द नय (ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा सूक्ष्मतर विषय वाला होने से)
पदार्थ को विशेषतर मानता है।" 6. समभिरूढ़ नय- समभिरूढ़ नय वस्तु का अन्यत्र संक्रमण अवस्तु
(अवास्तविक) मानता है।' 7. एवंभूत नय --- एवंभूत नय व्यञ्जन (शब्द), अर्थ एवं तदुभय को विशेष रूप
से स्थापित करता है। इस प्रकार अनुयोगद्वार में अपेक्षाकृत अधिक व्यवस्थित रूप से कुछ विकसित रूप
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में नयों का प्ररूपण है। किन्तु कठिनाई यह है कि अनुयोगद्वार के प्रारम्भिक सूत्रों में जिस प्रकार से नयों का प्रयोग है और ग्रन्थ के उत्तरार्द्ध में गाथा रूप से नयों की परिभाषायें जिस प्रकार से दिखती हैं वे एक लेखक की प्रतीत नहीं हो रही हैं । कुछ पाठान्तर भेद से ये ही गाथायें ज्यों की त्यों विशेषावश्यक भाष्य में भी उपलब्ध हैं । 25 यह भी संभव है कि ये गाथायें प्रक्षिप्त हों। जो भी हो, यह तो स्पष्ट हो गया है कि अनुयोगद्वार सूत्र से नय का विकास प्रारम्भ हो चुका था।
आचार्य कुन्दकुन्द के परमागम (विक्रम की प्रथम शती)
आचार्य कुन्दकुन्द जैन धर्म के महान् आचार्य थे। समयसार, नियमसार, प्रवचनसार, पञ्चास्तिकाय तथा पाहुडों जैसे महान् आध्यात्मिक तथा दार्शनिक आगमों का प्रणयन करके जैनदर्शन को एक नयी दिशा प्रदान की । यद्यपि आचार्य कुन्दकुन्द ने नैगमादि सात नयों का विशेष उल्लेख नहीं किया तथापि निश्चय नय, व्यवहार नय – इन दो आध्यात्मिक नयों को लेकर उनके द्वारा की गयी विवेचना अद्वितीय है। 'कसायपाहुड' तथा 'षट्खण्डागम' में ओघ और निर्देश नयों के प्रयोग मिलते हैं ।" ये नय कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा प्रयुक्त व्यवहार नय और निश्चय नय के तुल्य हैं। आचार्य कुन्दकुन्द से पूर्व भगवती सूत्र में निश्चय नय और व्यवहार नय के उल्लेख मिलते हैं । 7
इस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द ने नयों के माध्यम से आध्यात्मिक यात्रा का शुभारम्भ किया । निष्कर्षत: हम यह कह सकते हैं कि आगम युग नय के उद्भव का युग था जो कालान्तर में दर्शन युग में अपने विकसित स्वरूप को लिये हुए हमारे सामने है। दर्शन युग में भीनय के विकास की अपनी अलग परम्परा है। 'नय' न्यायशास्त्र को जैनदर्शन की मौलिक देन होने के कारण अभी इस विषय पर और अधिक अनुसंधान अपेक्षित है।
सन्दर्भ सूची
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'गम-संगह-ववहारा सव्वे इच्छंति। उजुसुदो ठवणवज्जे । (सद्दणयस्स) णामं भावो च।' कसायपाहुडसुत्त (चूर्ण) संपादक - पं. हीरालाल जैन, निक्षेपसूत्र 24-26, पृ. 17, प्रकाशक- वीर शासन्न संघ, कलकत्ता
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सद्वेधा द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्चेति । द्रव्यं सामान्यमुत्सर्गः अनुवृत्तिरित्यर्थः । तद्विषयो द्रव्यार्थिकः । पर्यायो विशेषोऽपवादो व्यावृत्तिरित्यर्थः । तद्विषयः पर्यायार्थिकः । तयोर्भेदा नैगमादयः ।
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ते च द्विधा द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकभेदात् । तत्र द्रव्यार्थिकस्त्रिधा नैगमसंग्रहव्यवहारभेदात् । पर्यायार्थिकश्चतुर्धा ऋजुसूत्रशब्दसममिरूदैवं भूतभेदात् । जैन तर्कभाषा, उपा. यशोविजय, नयपरिच्छेद पृ. 59, प्रका. श्री त्रिलोकरत्न स्थानकवासी जैन धार्मिक परीक्षा बोर्ड, अहमदनगर, 1964
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दुट्ठो व कम्मि दव्वे पियायदे को कहिं वा वि॥'-कसायपाहुड, गाथा-21, पृ. 34 8. एदिस्से गाहाए पुरिमद्धस्स विहासा कायव्वा।- कसायपाहुडसुत्त, गाथा-21 पर यतिवृषभाचार्य की
चूर्णि, सूत्र संख्या 88, पृ. 34 9. णयदो णिप्पण्णं कसायपाहुडं। वही, चूर्णिसूत्र-22, पृ. 16
वेदणात्ति। तत्थ इमाणि वेयणाए सोलसं अणियोगददाराणिणादव्वाणि भवंति वेदणणिक्खेवे वेदणणयविभासणाए..............। षट्खण्डागम, चतुर्थ वेदनाखंड, द्वितीय वेदना अनुयोगद्वार, संपादिका
ब्र. समति बाई शहा, प्रकाशक-श्रुतभंडार ग्रंथप्रकाशन समिति, फलटण (सातारा), 1965 11. देखें सन्दर्भ संख्या-3 12. से केणटेणं भंते, एवं वुच्चइ नेरतिया सिय सासया, सिस असासया? गोयमा, अव्वोच्छित्तिणयट्ठयाए
सासया, वोच्छित्तिणयट्टयाए, असासया।- भगवती (द्वितीय खण्ड), सातवां शतक, उद्देशक-3,
पृ. 146 13. गोयमा। एत्थ दो नया भवंति । तं जहा-नेच्छयिनए या वावहारियनए य । वावहारियनयस्स गोड्डे फाणियगुले,
नेच्छइयनयस्स पंचवण्णे दुगंधे पंचरसे अट्ठफासे पन्नत्ते । --- भगवती (तृतीय खण्ड), अठारहवां शतक,
उद्देशक-6, पृ. 704 14. तत्थ पढमं अज्झयणं सामाइयं । तस्स पं इमे चत्तारि अणुओगदारा भवति, तं जहा- 1. उपकम्मे, 2.
निक्खेवे, 3. अणुगमे, 4. नए।– अणुओगदाराइं. तीसरा प्रकरण, सूत्र-75. पृ. 63 15. वही, टिप्पण, पृ. 32
नाप्रमाणं प्रमाणं वा नयो ज्ञानात्मको मतः । स्यात्प्रमाणेकदेशस्तु सर्वथाप्यविरोधतः ।। ----नय विवरण, आचार्य विद्यानन्द (माइल्लधवलकत णयचक्को. संपा. पं. कैलाशचन्द का परिशिष्ट).
भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, द्वितीय संस्करण, 1999 17. से किं तं नयप्पमाण? नयप्पमाणे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा पत्थगदिटुंतेणं वसहिदिटुंतेणं पएसदिटुंतेणं।
अणुओगदाराई, 11 प्रकरण, सूत्र-554, पृ. 299-300 18. 'णेगेहिं माणेहिं मिणइ त्ति णेगमस्स य निरूत्ती'
- वही, नयनिरूपण, गा9 136, पृ. 467 19. 'संगहियपिंडियत्थं संगहवयणं समासओ बिंति ।'– वही, गा. 137, पृ. 467 20. 'वच्चइ विणिच्छियत्थं ववहारो सव्वदव्वेसुं।'- वही, गा. 137, पृ. 467 21. 'पच्चुप्पन्नग्गाही उज्जुसुओ णयविही मुणेयव्वो।'-वही. गा. 138, पृ. 467 22. 'इच्छइ विसेसियतरं पच्चुप्पण्णं णओ सद्दो॥'- वही, गा. 138, पृ. 467 23. 'वत्थुओ संकमणं होइ अवत्थु णये समभिरूढ़े' -वही, गा. 139, पृ. 468 24. 'वंजण-अत्थ-तदुभयं एवंभूओ विसेसेइ ।'- वही, गा. 139, पृ. 468 25. देखें-विशेषावश्यक भाष्य, भाग-2, गाथा-2182 से 2185 तक, पृ. 448, प्रकाशक दिव्यदर्शन ट्रस्ट,
मुम्बई, वि.सं. 2039 26. संतपरूवणदाए दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य। - षट्खण्डागम, 1/1/8, शोलापुर, 1965, पृ. 5 27. देखें-संदर्भ-13
व्याख्याता ---जैन दर्शन, दर्शन संकाय श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ नई दिल्ली-110016
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जैन साधना पद्धति :मनोऽनुशासनम्
-डॉ. हेमलता बोलिया
साधना वह वैचारिक प्रक्रिया, सामाजिक आचरण अथवा धार्मिक अनुशासन है, जिसके अभ्यास द्वारा अपने व्यक्तित्व को सार्थक करते हुये अपने ध्येय को प्राप्त करना चाहते हैं । साधना शब्द की निष्पत्ति सिध-से प्रेरणार्थ में णिच् प्रत्यय लगने पर धातु को साध से भावकर्मार्थ यच प्रत्यय और स्त्रीत्व विवक्षा में टाप् प्रत्यय लगकर हुई है, जिसका अर्थ है निष्पन्नता, पूर्ति, पूजा, अर्चना, संराधना या प्रसादन। मानवीय क्षमता के विकास को ध्यान में रखकर तत्त्ववेत्ता महापुरुषों ने खान-पान से लेकर जीवन के प्रत्येक क्षेत्र के विषय में होने वाली क्रियाओं पर सूक्ष्म विचार किया। प्रत्येक क्रिया को धर्ममय कहकर उसे सावधानी पूर्वक सचेत रूप से करने का निर्देश दिया। इन आचार्यों द्वारा निर्देशित सम्पूर्ण जीवन ही साधना बन गया।
साधना को आचार्यों ने तीन भागों में विभाजित किया है - 1. भौतिक साधना, 2. नैतिक साधना और 3. आध्यात्मिक साधना । भौतिक साधना के अन्तर्गत वे सब वस्तुएँ आती हैं, जो शरीर संरचना से लेकर संरक्षण तक जुड़ी हैं। इसमें शरीर-शुद्धि, शरीर की आवश्यकता एवं उपभोग की वस्तु की प्राप्ति के लिये किया गया प्रयास भी सम्मिलित है। नैतिक साधना का क्षेत्र व्यक्ति से बढ़कर समाज तक जाता है। सामाजिक दायित्वों का निर्वाह एवं मर्यादाओं के पालन में प्रयोग होने वाले व्रत, मैत्री आदि भावना, परस्पर उपग्रह नैतिक साधना के अंग हैं। आध्यात्मिक साधना में व्यक्ति शरीर एवं सामाजिक मर्यादाओं से ऊपर उठकर आत्मस्वरूप की उपलब्धि को अपना लक्ष्य बना लेता है। वह आसन, प्राणायाम, ध्यान आदि का प्रयोग इसी क्षेत्र का विषय है।
आध्यात्मिक साधना को प्रायः सभी धर्मों और दार्शनिक सम्प्रदायों ने महत्त्व दिया है। अपने-अपने दृष्टिकोण एवं सरणि के अनुसार ज्ञान, जगत् से विराग, आत्मस्वरूप में विलय अथवा प्राप्ति हेतु विभिन्न साधना मार्ग सुझाये। मैत्रायणी
उपनिषद् में साधना की इस पद्धति को योग नाम देते हुये उसके छ: अंगों का तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2002
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विवचन किया ह - 1. प्राणायाम, 2. प्रत्याहार, 3. ध्यान, 4. धारणा, 5. तर्क, 6. समाधि । महर्षि पतञ्जलि' ने इसमें यम, नियम और आसन नामक तत्त्वों को जोड़ा तथा तर्क को हटाकर योग को अष्टांग बना दिया।
जैन साधना पद्धति के सूत्र आगमों में भी मिलते हैं जहाँ शुद्ध सात्विक जीवन का आधार त्रिरत्न को माना गया है। जैन दर्शन का भव्य प्रासाद सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन एवं सम्यक् चारित्र, इन्हीं तीन आधारों पर अवस्थित है। फिर तप को चारित्र के एक अतिरिक्त अंग के रूप में सम्मिलित कर इसे चतुष्पाद बना दिया गया। जैन साधना वीतरागता को प्रमुखता देती है। अतः वह सांसारिक आकर्षण को कषाय का स्वरूप मानते हुये साधक को इनसे बचाने की सलाह देती थी । यह व्यवहार और निश्चय के रूप में तो द्विविध है ही परन्तु श्रमण धर्म एवं श्रावक धर्म के रूप में भी द्विविध है। जिसे सर्वविरति और देशविरति के रूप में व्याख्यायित किया गया है। आचार्य महाप्रज्ञ के शब्दों में 'साधना का क्रम प्राप्त मार्ग यह है कि हम पहले असत् प्रवृत्ति से हटकर सत् प्रवृत्ति की भूमिका में आयें और फिर निवृत्ति की भूमिका को प्राप्त करें। "
तप साधना के विकास क्रम में जैन, बौद्ध और शैव दर्शन छट्ठी-सातवीं शताब्दी के मध्य योग के समीप आये । बौद्धों में वज्रयान शाखा तंत्र-मंत्र साधना द्वारा लोक-परलोक विजय की कामना करने लगी तो शैवों में पातञ्जल योग का सहारा लेकर हठयोग की प्रवृत्ति बनी। सिद्ध और नाथों की परम्परा के समकाल में ही जैन आचार्यों ने जैन योग की दृष्टि से विचार करना प्रारम्भ किया। तप के अन्तर्गत पंच महाव्रत, द्वादशव्रत और अनुप्रेक्षा को ध्यान में रखते हुए जैन साहित्य में यौगिक क्रियाओं का साहित्यिक और प्रात्यक्षिक अनुप्रयोग होने लगे ।
जैनयोग की परम्परा को व्यवस्थित रूप आचार्य हरिभद्र ने दिया । उन्होंने योगबिन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय आदि यौगिक ग्रंथों की रचना कर योग को एक नया रूप दिया । पतञ्जलि के अष्टांगों की भाँति आठ दृष्टियों की चर्चा की है तथा मोक्षप्राप्ति के साधन के रूप में धर्म व्यापार को मानकर अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षय योग नामक पाँच भेद किये। आचार्य देवनंदि पूज्यपाद ने इष्टोपदेश, समाधितंत्र, आचार्य हेमचंद्र ने योगशास्त्र, शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव, श्री नागसेनमुनि ने तत्त्वानुशासन, यशोविजय ने अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद्, मंगलविजय ने योगप्रदीप, अमितगति ने योगसारप्राभृत, सोमदेवसूरि ने योगमार्ग, आचार्य भास्करनंदि ने ध्यानस्तव तथा योगीन्दुदेव ने परमात्मप्रकाशयोगसार की रचना कर जैन योग की परम्परा को समृद्ध किया ।
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तेरापंथ के नवम आचार्य आचार्य श्री तुलसी का महत्त्व सर्वातिशायी है। वे तत्त्ववेत्तामनीषी, चिन्तक, साधक, शिक्षाशास्त्री, धर्माचार्य, बहुभाषाविज्ञ, समाजसुधारक, आशुकवि, प्रकाण्डपण्डित और दार्शनिक थे। इन्होंने जैनसिद्धान्तदीपिका, भिक्षुन्यायकर्णिका, पंचसूत्रम्, शिक्षा षण्णवति तथा कर्त्तव्य षट्त्रिशिंका का प्रणयन किया। योग एवं मन को अनुशासित करने के लिए
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आचार्यश्री ने मनोऽनुशासन की रचना में दर्शनशास्त्र में बहुप्रचलित सूत्र शैली का आश्रय ग्रहण किया है। सूत्र शैली की विशेषता है -- गूढ़ से गूढ़ भावों को कम से कम शब्दों में अभिव्यक्ति प्रदान करना । सूत्रकार विषय की संक्षिप्तता का इतना ध्यान रखते हैं कि किसी बात को कहने में वे एक शब्द भी कम प्रयोग कर सके तो यह उनके लिए उतना ही सुखकारक होता है, जितना सुखकारक पुत्रोत्सव होता है। आचार्य के सूत्र कण्ठस्थ करने के लिये उपयोगी होते हैं, उन्हीं सूत्रों की व्याख्या कर वे अपने विषय को कितना भी विस्तार दे सकते हैं।
आचार्यश्री तुलसी ने साधक एवं सुधी विद्वानों के सहज स्मरण रखने के लिए 181 सूत्रों में 'मनोऽनुशासन' का संस्कृत में प्रणयन किया, वहीं उनके पट्टधर शिष्य मुनि नथमल (आचार्य महाप्रज्ञ) ने इसकी विशद हिन्दी व्याख्या कर सर्वबोधगम्य बना दिया।
'मनोऽनुशासन' के प्रणयन में आचार्य तुलसी महर्षि पतञ्जलि से प्रभावित हैं जिसे निम्न विवेचन से समझा जा सकता हैपतञ्जलि'
आचार्य तुलसी अथ योगानुशासनम्। अथ मनोऽनुशासनम्।
योगाश्चित्तवृत्तिनिरोधः। इन्द्रियसापेक्षं सर्वार्थग्राहित्रैकालिकं संज्ञानं मनः । मनोऽनुशासन का परिचय
यह ग्रन्थ सात प्रकरणों में विभाजित है। प्रथम प्रकरण में मन, इन्द्रिय और आत्मनिरूपण के साथ योग के लक्षण, शोधन और निरोध की प्रक्रिया और उपायों का वर्णन है। द्वितीय प्रकरण में मन के प्रकार और निरोध के उपाय । तृतीय प्रकरण में ध्यान का लक्षण
और उसके सहायक तत्त्व, स्थान (आसन), प्रतिसंलीनता (प्रत्याहार) की परिभाषा, स्वाध्याय, भावना, व्युत्सर्ग की प्रक्रिया। चतुर्थ प्रकरण में ध्याता, ध्यान, धारणा, समाधि, लेश्या आदि का विवेचन है। पंचम प्रकरण में प्राणायाम का विस्तृत विवेचन के साथ होने वाली सिद्धियाँ वर्णित हैं । षष्ठम प्रकरण में महाव्रतों (यमों) के साथ संकल्प का निरूपण है
और श्रमण धर्म के प्रकारों के रूप में नियम का वर्णन है । सप्तम प्रकरण में भावना एवं फल निष्पत्ति का विवेचन है।
'मनोऽनुशासनम्' को आचार्य तुलसी कृत जैनयोग का सूत्र ग्रंथ कहा जा सकता है। इसके विषय में तेरापंथ के दसवें आचार्य महाप्रज्ञजी ने कहा है — "इसमें योग शास्त्र की सर्वसाधारण द्वारा अग्राह्य सूक्ष्मताएँ नहीं हैं किन्तु जो हैं, अनुभवयोग्य और बहुजनसाध्य हैं। इस मानसिक शिथिलता के युग में मन को प्रबल बनाने की साधना-सामग्री प्रस्तुत कर आचार्यश्री ने मानव-जाति को बहुत ही उपकृत किया है।''। यह आकार में लघु और प्रकार में गुरु है।
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मनोऽनुशासन का प्रयोजन
आचार्यश्री तुलसी' ने 'मनोऽनुशासनम्' की रचना के पीछे अपना मंतव्य स्पष्ट करते हुए लिखा है -
मानिसक सन्तुलन के अभाव में व्यक्ति का जीवन दूभर बन जाता है । सब संयोगों में भी एक विचित्र खालीपन की अनुभूति होती है। अनेक व्यक्ति पूछते हैं - शांति कैसे मिले? मन स्थिर कैसे हो? मैं उन्हें यथोचित समाधान देता हूँ। मैं यह भ जानता हूँ कि ये प्रश्र कुछेक व्यक्तियों के नहीं हैं। ये व्यापक प्रश्न हैं। इसलिए इनका समाधान भी व्यापक स्तर पर होना चाहिए । 'मनोऽनुशासनम्' निर्माण का यही प्रयोजन है।
___ जैसा कि कहा भी जाता है - 'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।' मनुष्य का मन ही बन्धन और मोक्ष का कारण है। वह अनुशासन से ही प्राप्त होता है। बल-प्रयोग से वे (इन्द्रिय और मन) वशवर्ती नहीं किये जा सकते। हठ से उन्हें नियंत्रित करने का यत्न करने पर वे कुण्ठित बन जाते हैं। उनकी शक्ति तभी हो सकती है, जब वे प्रशिक्षण के द्वारा अनुशासित किए जाएं।'' 'मनोऽनुशासनम्' की विशेषताएँ
1. आचार्य श्री तुलसी ने इसे सर्वग्राह्य बनाने के लिए सीधे मन से प्रारम्भ किया। मन को प्राथमिकता देने के कारण सर्वप्रथम मन की परिभाषा दी, अनन्तर मन और इन्द्रियों का सम्बन्ध निरूपण करते हुए आत्मा का स्वरूप देकर मन के स्वामी आत्मा द्वारा मन के अनुशासन की प्रक्रिया को योग कहा। ऐसी स्थिति में मन को इन्द्रिय और आत्मा को मध्यस्थ मानकर इन्द्रियों के द्वारा मन से प्राप्त ज्ञान शुद्ध हो, इस हेतु मन के संसाधन स्वरूप इन्द्रियों के शोधन की बात प्रथम प्रकरण में कही है। इस प्रथम प्रकरण में वे अनेक स्थलों पर पतञ्जलि से भिन्न दृष्टिकोण लिये हुए भी हैं, यथा
1. जहाँ दर्शन में मन को संकल्प-विकल्पात्मक माना जाता है वहीं आचार्यश्री तुलसी ने इसकी परिभाषा में लिखा है - 'इन्द्रिय सापेक्षं सर्वार्थग्राहि त्रैकालिकं संज्ञानं मनः'। यहाँ मन की स्थिति ज्ञान के संग्राहक की है। अतः मन के संग्राहक के शोधन और निरोध की प्रक्रिया इसमें महत्त्वपूर्ण हो गई है।
2. योग की परिभाषा भी विशिष्ट है। जहाँ योगदर्शनकार पतञ्जलि चितवृत्तिनिरोधः को योग कहते हैं वहीं मन, वाणी, कार्य, आनापान (प्रणापान), इन्द्रिय और आहार के निरोध को योग कहते हैं।” अत: वे इन्द्रिय आहार के निरोध से पूर्व शोधन की बात करते हैं।
द्वितीय प्रकरण में मन के छः भेदों का वर्णन है-मूढ़, विक्षिप्त, यातायात, शिष्ट, सुलीन, और निरुद्ध, जबकि आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में चार प्रकारों का वर्णन किया है। योगदर्शन में मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध भेद से चित्त की पांच भूमियाँ (अवस्थाएँ) मानी गयी हैं। मन के छः प्रकार आचार्यश्री तुलसी की अपनी मौलिक
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उद्भावना है। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने एकाग्र भूमि के ही दो स्तर माने हैं: (स्थिर मन ) और 2. सुलीन (सुस्थिर मन ) ।
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3. महर्षि पतञ्जलि'" ने चित्तवृत्तियों के निरोध का साधन जहाँ अभ्यास और वैराग्य बतलाया है वहीं जैनाचार्यो ने ज्ञान और वैराग्य । आचार्यश्री तुलसी 23 ने ज्ञान-वैराग्य के साधन के रूप में श्रद्धाप्रकर्ष, शिथिलीकरण, संकल्प -निरोध, ध्यान, गुरुपदेश और प्रयत्न की बहुलता का निरूपण किया है।
1. श्रिष्ट
4. मन को नियंत्रित करने की प्रक्रिया में ध्यान को विशेष महत्त्व देते हुए आचार्यश्री ने अपने तीसरे प्रकरण का विषय ध्यान की सामग्री को बनाया है। ध्यान की परिभाषा मन को आलम्बन पर टिकाना अथवा योग का निरोध करना ही है।” साधना में मन लगा रहे, इसलिये इन्द्रिय तप को आधार बनाकर एकाग्र सन्निवेष की सामग्री के रूप में ऊनोदरिका, रस परित्याग, उपवास, स्थान, मौन प्रतिसंलीनता, भावना, व्युत्सर्ग आदि का समावेश कर दिया गया है । यह आचार्यश्री की अपनी स्वयं की उद्भावना है। इतना ही नहीं, उन्होंने स्थान (आसन) को भी तीन भागों में विभक्त किया है – ऊर्ध्व, निषीदन एवं शयन के रूप में और इन्हीं के अन्तर्गत योगवर्णित आसनों का वर्णन किया है।
5. इसी प्रकरण में ध्यान की समग्र सामग्रियों की परिभाषा एवं उसकी उपयोगिता प्रतिपादित की है। इसी क्रम में प्रतिसंलीनता का विवेचन किया है जो योग के प्रत्याहार के समकक्ष प्रतीत होती है। जो जैन योग का अपना पारिभाषिक शब्द है, जिसका भाव है अशुभ प्रवृत्तियों से शरीर, इन्द्रिय तथा मन का संकोच करना। दूसरे शब्दों में स्व को अप्रशस्त से हटा प्रशस्त की ओर प्रयाण करवाना। इसके चार भेद हैं 26. 1. इन्द्रियप्रतिसंलीनता, 2. मन - प्रतिसंलीनता, 3. कषाय- प्रतिसंलीनता और 4. उपकरण प्रतिसंलीनता । आचार्य श्री तुलसी ने " इन्द्रिय-कषायनिग्रहो - विविक्तवासश्च प्रतिसंलीनता ''27 - लक्षण किया है जिसके अनुसार तीन रूप हैं। मन का अन्तर्भाव इन्द्रिय में कर दिया और उपकरण को विविक्तवास का ही रूप माना है । इन्द्रिय निग्रह के उपाय के रूप में द्वादश भावना और मैत्री- प्रमोद-करुणा-माध्यस्थ आदि चार भावना का, 29 कषाय निग्रह के लिये व्युत्सर्ग का निरूपण किया गया है। द्वादश भावना और व्युत्सर्ग जैन धर्म की अपनी विशेषता है । व्युत्सर्ग का आचार्यश्री ने विशेष विवेचन किया है ।
6. चतुर्थ प्रकरण में ध्याता, ध्यान स्थल, ध्यान के भेद, धारणा, प्रेक्षा का विवेचन किया गया है। जहाँ पिण्डस्थ ध्यान के अन्तर्गत आचार्य हेमचन्द्र", शुभचन्द्र” और श्री नागसेन मुनि ने धारणा के पार्थिवी, आग्नेयी, मारुति, वारुणी और तात्त्विकी (तत्त्वभू) के भेद से पाँच प्रकार माने, वही आचार्यश्री ने धारणा के चार प्रकार ही माने ।4 धारणा के बाद समाधि का विवेचन भी आचार्यश्री ने इसी प्रकरण में कर दिया और लेश्या से अभिन्न बताया है।
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7. पंचम प्रकरण में प्राणायाम का 27 सूत्रों में विशद विवेचन किया जो उसके महत्त्व का सूचक है। इसे जैनाचार्यों ने भी स्वीकार किया है। इस प्रकरण में जिस कुशलता से आचार्यश्री ने प्राणायाम के प्रकार, वर्ण, स्थान, ध्वनि, बीज, किस स्थान पर निरोध से क्या लाभ होता है ? आदि का विवेचन किया, जो अपने आप में विशिष्ट है । प्राणायाम के लिये एक स्वतंत्र प्रकरण का प्रणयन इस बात का भी द्योतक है कि योगांगों में उसका कितना महत्त्व है ? आचार्य की दृष्टि में चित्त (मन) प्राणायाम से ही स्थिर होता है।"
8. षष्ठम प्रकरण में योगांगों में यम के नाम से प्रसिद्ध पञ्च महाव्रतों की मीमांसा की गई है। इनको साधना के साधन मानने के स्थान पर साध्य मान लिया गया है। आचार्यश्री मन के नियमन से प्रारम्भ की गई यात्रा को ध्यान की सामग्री, ध्याता, ध्याता के भेद, धारणा, समाधि और प्राणायाम से बढ़कर पंच महाव्रतों और श्रमण धर्म'' के रूप में नियमों की सिद्धि तक ले आये हैं। इसी प्रकरण में समाधि से प्राप्त होने वाली 'अहं ब्रह्मरूपाऽस्मि' की भावना के समान ज्योतिर्मयोऽहं, आनन्दमयोऽहं, निर्विकारोऽहं, वीर्यवानहं की भावना का उदय दिखाया जो आत्मा के विकास की अन्तिम सीढ़ी है।
(a) सप्तम प्रकरण तो एक प्रकार से साधना से होने वाली फल-क्षति के समान जिन भावना का उदय" और कायोत्सर्ग का विवेचन करता है।
आचार्यश्री तुलसी ने 'मनोऽनुशासनम्' की रचना कर जैन जगत् की एक अलौकिक योगदृष्टि का विकास किया है। आचार्यश्री का 'मनोऽनुशासनम्' उसी प्रकार जैन योग का सूत्र ग्रन्थ सिद्ध होगा जिस प्रकार वैदिक योग दर्शन का सूत्र ग्रन्थ पतञ्जलि का योगसूत्र है। इन्होंने पतञ्जलि की शैली अपनायी, उनके विषय भी लिये परन्तु वे उन्होंने अपनी दृष्टि, अपने क्रम से प्रस्तुत किये हैं। एक तरह से उन्होंने योग को जैन तत्त्व मीमांसा के आलोक में देखकर तदनुरूप व्यवस्थित किया है, जो जैन एवं जैनेतर सभी साधकों के लिये उपयोगी है। आचार्यश्री तुलसी पर हेमचन्द्राचार्य और श्रीनागसेन मुनि आदि का पर्याप्त प्रभाव परिलक्षित होता है फिर भी उनकी अपनी सर्वातिशायी शेमुषी दृष्टि और सर्वंकषा प्रज्ञा ने 'मनोऽनुशासनम्' को एक नवीन रूप प्रदान किया है।
संदर्भ सूची1. संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश-वामनशिवराम आप्टे. पृ. 1095 2. पुष्कर मुनि अभिनन्दन ग्रंथ, जमनालाल जैन-जैनसाधना का रहस्य, पृ. 417-418 3. प्राणायाम : प्रत्याहारो : ध्यानं धारणा तर्क : समाधि षड्ग इत्युच्यते। 6/18
यमनियमासनप्रणायामप्रत्याहार धारणध्यानसमाधयोऽष्टा वांगानि।
योगसूत्र-2/29 5. उत्तराध्ययनसूत्र, 28/2 6. मनोऽनुशासनम् - आचार्य तुलसी, पृ. 14
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7. मिजा तारा बाला दीप्रा स्थिरा कान्ता प्रभा परा।
नामानि योगदृष्टिनां लक्षणं च निबोधतः ।।
---- योगदृष्टिसमुच्चयः -14 8. अध्यात्म भावना ध्यानं समता वृत्तिसंक्षयः ।
मोक्षण योजनाद्योगः, एष श्रेष्ठो यथोतरम् ॥
- योग बिन्दुः 31 9. योगसूत्र 1/1.2 10. मनोऽनुशासनम् 1/1.2 11. मनोऽनुशासनम्- आचार्य महाप्रज्ञ आमुख 12. वहीं 13. वही, आचार्य तुलसी, भूमिका 14. मनोऽनुशासनम् आचार्य तुलसी, भूमिका 15. मनोऽनुशासनम्, 1/2 16. योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः । योगसूत्र- 1/2
17. मनोऽनुशासनम् 1/11 • 18. मृढ विक्षिप्त- यायायात शृिष्ट-सुलीन-निरुद्धभेदामनः घोढा
मनोऽनुशासनम् 2/1 19. इह विक्षिप्तं यायायातं शृिष्टं तथा सुलीनं च।
चंतश्चतः प्रकारं तज्झ चमत्कारकारी भवेत । 12/2 20. क्षिप्तं मूढं विक्षिप्तमेकाग्रं निरुद्धमिति चित्तभूमयः । योगसूत्र, व्यासभाष्य 1/2
क्षिप्तं मूढं विक्षिप्तं एकाग्रं निरुद्धं चित्तस्य भूमयः चित्तस्य अवस्थां विशेषाः । भोजवृत्ति 1/2 21. अभ्यास वैराग्याभ्यां तन्निरोधः । योगसूत्र- /12 22. ज्ञान वैराग्यजूभ्यां नित्यमुत्पथवर्तिनः ।
त्रितचित्तंन श्क्यन्ते धर्तुमिन्दियवाजिनः॥ - तत्त्वानुशासनम्-शोक, 77 ज्ञान वैराग्याभ्यां तन्निरोधः। मनोऽनुशासनम-2/16 श्रद्धाप्रकर्पण। शिथिलीकरणे न च। संकल्पनिरोधेन। ध्यानेन च।
गुरुपदेश:प्रयत्नबाहुल्याभ्यां तदुपलब्धिः । वही, 2/17 से 21 सूत्र 24. एकाग्रे मनः सन्निवेशनं योगनिरोधी वा ध्यानम्। वही, 3/1 25. ऊनोर्दारका- रसपरित्यागोपवास- स्थान मौन प्रतिसंलीनता स्वध्याय- भावना व्युत्सर्गास्तत् सामग्रयम्।
वही, 3/2 26. औपपातिकसूत्र, बाह्य तप अधिकार तथा व्याख्या प्रज्ञप्ति सूत्र, 25/7/7 27. मनोऽनुशासनम्, 3/13 28. अनित्य-अशरण-भव-एकत्व-अन्यत्व-अशैच आस्रव-संवर-निर्जरा-धर्म-लोक-संस्थान-बोधिदुलर्भता।
वही, 3/19 29. मैत्री- प्रमोद-कारुण्य मध्यस्थताश्च। वही, 3/20 30. शरीर-गण-उपधि-भक्तपात कषायाणां विसर्जनं व्यत्सर्गः।
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31. पार्थिवी स्यादथाग्रेयी मारुती वारुणी । वही 3/22
तत्त्वभू : पंचमी चेति पिंडस्थे पंच धारणाः ॥ योगशास्त्र, 7/1
32. ज्ञानार्णव, सर्ग -37
33. तत्त्वानुशासनम्, लोक- 183/187
34. पार्थिवी - आग्नेयी - मारुति वारुणीति चतुर्था । वही, 4/16
35. शुद्धचैतन्यानुभवः समाधिः । विकल्पशून्यत्वेन चित्तस्य समाधानं वा। संतुलनं वा । मनोऽनुशासनम्,
4/27 से 28
36. सुनिर्णीतसुसिद्धान्तैः प्राणायामः प्रशस्यते । मुनिभिर्ध्यानसिद्धयर्थं स्थैयार्थं चान्तरात्मनः ॥
- ज्ञानार्णवक्र 29/1
37. स्थिरी भवन्ति चेतांसि प्राणायामावलम्बिनाम् । वही, 29 / 14
38. सर्वथा हिंसाऽनृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहम्यो विरतिर्महाव्रतम् ।
मनोऽनुशासनम, 6/1
39. क्षमा मार्दव- आर्जव - शौच-सत्य-संयम--तपस्त्याग- आकिंचन्य - ब्रह्मचर्याणि श्रमणधर्मः ॥ वही 6/15
40. मनोऽनुशासनम्, 6/27
41. वही, 7/15
42. वही, 7/6-8
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अध्यक्ष-संस्कृत विभाग सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर (राजस्थान )
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महर्षि पाराशर का नैतिक दर्शन
- डॉ. आनन्दप्रकाश त्रिपाठी 'रत्नेश'
I
दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण अंग है - नैतिक दर्शन । नैतिक दर्शन के अभाव में किसी भी दर्शन को पूर्णता नहीं मिल सकती। चूँकि व्यक्तित्व विकास के तीन आयाम हैं --- आध्यात्मिकता, नैतिकता और बौद्धिकता। ये तीनों आयाम क्रमशः तत्त्वमीमांसा, नीतिमीमांसा एवं ज्ञानमीमांसा को पुष्ट करते हैं । इनमें जीवन के अत्यधिक सन्निकट होने के कारण नीतिमीमांसा का अत्यधिक महत्त्व है 1
नैतिकता की दृष्टि से व्यक्ति के जीवन में अनेक प्रश्न उठते रहते हैं, जैसे1. कौन व्यक्ति अच्छा है और कौन बुरा ?
2. शुभ - अशुभ और उचित - अनुचित क्या है ?
3. मनुष्य को कर्म करने की स्वतन्त्रता है या नहीं ?
4. मनुष्य के कर्त्तव्य क्या हैं और उनके निर्धारण के आधार क्या हैं ?
5. व्यक्ति, समाज में क्या सम्बन्ध है ?
6. कर्म का आधार स्वहित है या परहित ?
.
7. परम साध्य या परम शुभ क्या है ?
व्यक्ति के जीवन से जुड़े इन सारे प्रश्नों का अध्ययन जिस शास्त्र के अन्तर्गत होता है उसे ही नीति-शास्त्र या नैतिक-दर्शन कहते हैं। इस तरह यह कहा जा सकता है कि नैतिक दर्शन व्यवहार की अच्छाई या बुराई का विज्ञान है । नैतिक दर्शन आदत या चरित्र का शास्त्र है ।
नैतिक दर्शन को अंग्रेजी में 'मॉरेल फिलासफी' भी कहते हैं। मॉरेल शब्द लैटिन शब्द मोर्स से बना है। मोर्स का अर्थ रीति-रिवाज या अभ्यास है । इस प्रकार शाब्दिक अर्थों में नीतिशास्त्र (नैतिक दर्शन) रीति-रिवाज अथवा अभ्यास का शास्त्र हुआ जो आदत और चरित्र से सम्बंधित है। मेकेन्जी के अनुसार नैतिकता का अर्थ चरित्र निर्माण से है ।'
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नैतिकता के संदर्भ में पाश्चात्य विचारकों में सुखवादी सुख को उपयोगितावादी समष्टि के अधिकतम सुख को, हर्ट स्पेन्शर ने क्रमिक विकास को', थामस हिल ने विकसित समाज को", इमेन्युअलकाण्ट ने शुभ संकल्प को' श्रेष्ठ माना है। भारतीय संस्कृति अध्यात्म की संस्कृति रही है। ऋषियों, महर्षियों ने अपने आपको तपा-खपाकर, साधना में लगाकर स्व का परिष्कार किया, आत्मिक विकास किया और संसार के कल्याण के लिए अपनी दिव्य वाणी से उनका मार्गदर्शन किया। इन ऋषियों, महर्षियों की आर्षवाणी स्मृति साहित्य के रूप में युग की धरोहर बनी हुई हैं। स्मृतियों में प्रत्येक वर्ण, आश्रम और व्यक्ति के जो कर्तव्य बतलाये गये हैं, उनसे यह ज्ञात होता है कि एक भारतीय का रहन-सहन और चरित्र कितना शुद्ध, पवित्र और उदात्त हुआ करता है। श्रीराम शर्मा आचार्य के अनुसार इसी सदाचार और परोपकारमय जीवन से प्रभावित होकर अन्य देशों के यात्रियों ने भारतवासियों को 'देवता' की संज्ञा से अभिहित किया था। जहाँ का आम जन 'देवता' समझा जाता था उसका मूल कारण था ऋषिवाणी के आधार पर उनका जीवन । अनेक ऋषियों की दिव्य वाणी स्मृति साहित्य में सुरक्षित होकर आज भी हमारा मार्गदर्शन कर रही है। उसी में द्वैपायन व्यास के पिता महर्षि पाराशर की पाराशर स्मृति भी है, जिसमें जीवन को शुद्ध और सात्विक बनाने पर विशेष बल दिया गया है।
वैदिक व्यवस्था वर्णाश्रम प्रधान व्यवस्था थी। अत: उसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के अपने-अपने कार्य निर्धारित थे। चारों वर्गों के आचार या नैतिकता को व्यक्त करते हुए स्वयं पाराशर ऋषि ने कहा है -
अहमद्यैव तद्धर्ममनुस्मृत्य ब्रवीमि वः। चातुर्वर्ण्य समाचारं श्रृणुध्वं मुनिपुङ्गवाः ।।
पाराशरमतं पुण्यं पवित्रं पापनाशनम्।
चिन्तितं ब्राह्मणार्थाय, धर्मसंस्थानाय च॥" अर्थात् पाराशर ऋषि कहते हैं कि हे मुनि श्रेष्ठों। मैं अब उसी धर्म का अनुसरण करके बतलाता हूँ। आप लोग चारों वर्गों के सम्यक् आचार सुनो । ब्राह्मणों की भलाई और धर्म की स्थापना का कार्य ही मेरे मत में पुण्य है और पाप का नाश करने वाला है।
पाराशर के अनुसार चूँकि सभी वर्गों के अपने अलग-अलग कर्त्तव्य हैं और जब वे अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं तो समाज का आचार पक्ष प्रबल होता है और सभी व्यवस्थाएं समुचित रूप से चलती रहती हैं, इसलिए ऋषिवर ने कहा जो कर्त्तव्य भ्रष्ट है वह धर्मविरुद्ध, नीतिविरुद्ध कार्य करता है और जो कर्तव्यनिष्ठ है वह धर्मयुक्त और नीतियुक्त कार्य करता है जिससे व्यक्ति एवं समाज का हित होता है, यथा---
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"चतुर्णामपि वर्णानामाचारो धर्मपालकः। आचारभ्रष्ट देहानां भवेद्धर्मः पराङ्मुखः॥ षट् कर्माभिरतो नित्यं देवतातिथिपूजकः । हुतशेषन्तु भुंजानो ब्राह्मणो नावसीदति॥ संध्यास्नान जपो होम स्वाध्यायो देवतार्चनम्।
वैश्वदेवातिथेयञ्च षट्कर्माणि दिने-दिने॥12 अर्थात् ब्राह्मण के संध्या स्नान, जप, वेदों का स्वाध्याय, देवताओं की पूजा, वैश्वदेव और अतिथि सत्कार – ये छ: कर्म प्रतिदिन के होते हैं। क्षत्रिय कर्त्तव्य के संदर्भ में कहा गया है -
क्षत्रियो हि प्रजा रक्षन् शस्त्रपाणि प्रचण्डवत्।
विजित्य परसैन्यानि क्षिति धर्मेण पालयेत्॥ अर्थात् क्षत्रिय को प्रजा की रक्षा करते हुए प्रचण्ड की भाँति हाथ में शस्त्र रखकर दूसरे की सेना को जीतकर पृथ्वी का नीतिपूर्वक पालन करना चाहिए। वैश्य और शूद्र के कर्त्तव्य
लोहकर्म तथा रत्नं गवाच्च प्रतिपालनम्। वाणिज्यं कृषिकर्माणि वैश्यवृत्तिसदाहृता।
शूद्राणां द्विजशुश्रूषा परोधर्मः प्रकीर्तितः ।
अन्यथा कुरुते किंचित्तद् भवेत्तस्य निष्फलम्॥4 अर्थात् लोहा तथा रत्नों का कर्म, गौओं का पालन, वाणिज्य और खेती का काम ये ही वैश्यों के कर्तव्य हैं तथा द्विजों की सेवा शूद्रों का परम कर्त्तव्य है और यदि इसके अतिरिक्त वह कोई कार्य करता है तो वे सभी निष्फल होते हैं।
ऋषि पाराशर ने जहाँ सभी वर्गों के कार्य वैदिक परम्परा के अनुसार निर्धारित किये हैं वहीं सभी वर्गों के अकरणीय कर्म का भी उल्लेख किया है जो किसी भी स्थिति में नहीं करने चाहिए, यथा
"अविक्रेयं मद्यमांसमभक्ष्यस्य च भक्षणम्।
अगम्यागमनञ्चैव शूद्रोऽपि नरकं व्रजेत्॥" यदि कोई मद्य-मांस का व्यापार करता है, अभक्ष्य का भक्षण करता है तथा न जाने योग्य स्थान पर गमन करता है तो वह चाहे शूद्र ही क्यों न हो, वह नरकगामी ही होता है
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अर्थात् अन्य वर्ण के लोग तो नरकगामी होते ही हैं। नैतिकता के लिए हम क्या खाते हैं, कहाँ जाते हैं और क्या करते हैं, ये तीनों बातें ध्यातव्य हैं। यदि हम अभक्ष्य खायेंगे तो 'जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन' के आधार पर मन बुरे विचार आयेंगे और उन्हें करने की प्रेरणा मिलेगी तो बुरा करके सदैव बुरा ही कहलायेंगे। इसी प्रकार यदि कुसंगति, वैश्यालय, मदिरालय आदि अगम्य स्थानों पर जायेंगे तो बुरा करने और बुरा बनने से अपने आपको नियंत्रित कैसे कर सकते हैं ? व्यक्ति की पहचान उसके कार्य के आधार पर बनती है। यदि वह मद्य- -माँस का व्यापार करता है तो समाज में उसकी पहचान अच्छे व्यक्ति के रूप में कभी नहीं बन सकती। इसलिए पाराशर नैतिक दर्शन में इस बात पर बल दिया गया है कि अखाद्य को न खायें, अगम्य में न जायें और अकार्य को न करें। जैसे काण्ट के दर्शन में नैतिकता की अनिवार्य मान्यता संकल्प की स्वतन्त्रता, आत्मा की अमरता और ईश्वर का अस्तित्व है, 15 उसी प्रकार पाराशर नैतिक दर्शन में नैतिकता अनिवार्य है कि हर क्षण हम यह ध्यान रखें कि हमें क्या खाना है, कहाँ जाना है और क्या करना है ?
पाराशर स्मृति में नैतिक मूल्यों के अन्तर्गत दान की महिमा का गुणगान किया गया। है 1 ऐसा माना जाता है कि जहाँ दान परहित के लिए उपयोगी होता है वहीं अपने लिए भी उपयोगी होता है, क्योंकि जो दान दूसरों को दिया जाता है वह असमय में किसी-न-किसी रूप में अपने पास वापिस आता है। अतः कलयुग में इसे प्रमुख नैतिक गुण मानते हुए कहा गया है
अर्थात् सतयुग में तप ही परमधर्म था, त्रेता में ज्ञान, द्वापर में यज्ञादि तथा कलयुग में दान । दान को सामाजिक, नैतिक गुणों में अनिवार्य माना जा सकता है, क्योंकि पर हित एवं सामाजिक कल्याण की भावना के बिना दान दिया ही नहीं जा सकता। दान से अनासक्ति जैसे सद्गुण का भी विकास होता है ।
तपः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुच्यते । द्वापरे यज्ञमित्यूचुर्दानमेकं कलौ युगे ॥ "
नैतिकता के लिए यह आवश्यक है कि जितनी अपेक्षा हो उतना ही ग्रहण करें। प्रायः यह देखा जाता है कि स्वार्थ में अन्धा हुआ व्यक्ति यह भूल जाता है कि उसी की तरह ही अन्यों की भी अपेक्षा है। अगर हम अपनी न्यूनतम आवश्यकता को ध्यान में रखकर आवश्यक को ग्रहण करेंगे तो दूसरों की अपेक्षा की पूर्ति में सहयोग करेंगे। तभी पाराशर ऋषि ने कहा है.
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पुष्पं पुष्पं विचिनुयान्मूलनच्छेदं न कारयेत् । मालाकार इवोद्याने न तथाङ्गारकारकः ॥7
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अर्थात् माली की भाँति उद्यान में केवल पुष्पों को ही चुनना चाहिए और मूल का उच्छेद नहीं करना चाहिए और अंगार धरने वाला नहीं बनना चाहिए। अंगार धरने से तात्पर्य दूसरों के अहित से ले सकते हैं। अतः दूसरों का अहित न करने जैसे सामाजिक सद्गुण के विकास की अपेक्षा यहाँ की गयी है।
1
ऋषिवर पाराशर के अनुसार हमें वैयक्तिक एवं सामाजिक सद्गुणों के प्रति सदैव जागरूक रहना चाहिए। कभी-कभी जाने-अनजाने अनैतिक कार्य भी व्यक्ति से हो जाते हैं । जहाँ पुण्य कार्य की संभावना है, वहाँ कभी- कभी पाप कार्य भी हो जाते हैं । प्रायः लोग पुण्य कार्य का तो प्रदर्शन करते हैं और पाप कृत्य को छिपाते हैं। महर्षि पाराशर के अनुसार यह नैतिक धर्म नहीं है। नैतिक धर्म तो यह है
कृत्वा पापं न गूहेत गुह्यमानं विवर्द्धते । स्वल्पं वा प्रभूतं वा धर्मविद्धयो निवेदयेत् ॥
अर्थात् पाप करके कभी छिपाना नहीं चाहिए। ऐसा करने से छिपाया पाप बढ़ जाता है । पाप थोड़ा हो या अधिक, बिना किसी भय के धर्म के ज्ञाता को निवेदन कर देना चाहिए। वैसे किसी भी प्रकार के पाप कृत्य की यहाँ मनाही है किन्तु यदि मानवीय कमजोरी के कारण कोई पाप हो भी जाता है तो उसे प्रकट करने पर यहाँ जोर दिया गया है। ऐसा करने से भविष्य में पाप कार्य की संभावना भी नहीं रह जाती और उसका निदान भी मिल जाता है।
इस प्रकार संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि महर्षि पाराशर ने वैदिक धर्म के अनुरूप ही वर्ण व्यवस्था के अनुसार कर्त्तव्यनिष्ठा को ही परम शुभ माना है । इनके अनुरूप कार्य करने वाला ही अच्छा और प्रतिकूल कार्य करने वाला बुरा है। मनुष्य को अपने-अपने वर्ण के अनुरूप कार्य करने की यहाँ स्वतन्त्रता है। चूँकि व्यक्ति के कार्यों से समाज प्रभावित होता है, अत: यह अपेक्षा की गयी है कि व्यक्ति अपने वैयक्तिक सद्गुणों के विकास के साथ-साथ सामाजिक सद्गुणों पर भी ध्यान रखें, क्योंकि व्यक्ति और समाज का आपस में अनिवार्य सम्बन्ध है। इसीलिए यहाँ दान की महिमा का भी संगान हुआ है । यहाँ यह भी अपेक्षा की गयी है कि हर कर्म का आधार स्वहित और परहित दोनों होना चाहिए। अपने प्रति आसक्ति और दूसरों के प्रति अनासक्ति जहाँ व्यक्ति को समाज से अलग करती है वहीं अपने प्रति अनासक्ति व्यक्ति को समाज से जोड़ती है। कोई समाज निरपेक्ष व्यक्ति समाज का भला कैसे कर सकता है ? अतः आज के परिप्रेक्ष्य में यह आवश्यक है कि सभी अपने पद और प्रतिष्ठा के अनुरूप अपने कार्य अपनी सम्पूर्ण निष्ठा के साथ करें। यदि ऐसा होता है तो समाज में चारों ओर शांति और प्रसन्नता का वातावरण बनेगा और समाज का, राष्ट्र का बहुमुखी विकास होगा।
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संदर्भ सूची
1. नीतिशास्त्र के मूल्य सिद्धान्त, पृ. 1
2. नीतिशास्त्र, पृ. 1
3.
4.
5. नीतिशास्त्र, पृ. 74
6.
नीतिशास्त्र, पृ. 81
7.
डाटा ऑफ एथिक्स, पृ. 35
8.
9.
10. बीस स्मृतियां, द्वितीय खण्ड, दो शब्द से
नीतिशास्त्र की रूपरेखा, पृ. 2
ए मैनुअल ऑफ एथिक्स, पृ. 75
एथिक्स इन थ्योरी एण्ड प्रैक्टिस, पृ. 107
ग्राउण्ड वर्क ऑफ दि मेटाफिजिक्स ऑफ मारेल्स, पृ. 61
11. पाराशर स्मृति, श्लोक 35-36
12. वही, 37, 38, 39
13. वही, 58
14. वही, 61, 62
15. क्रिटिक ऑफ प्रैक्टिकल रीजन
60
16. पाराशर स्मृति, 23
17. वही, 60
18. वही, 66
उपनिदेशक
दूरस्थ शिक्षा निदेशालय
जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय ) लाडनूँ - 341306 (राजस्थान)
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आचार्य हरिभद्र की समन्वयात्मक दृष्टि
-डॉ. जिनेन्द्र जैन
आचार्य हरिभद्र जैनधर्म, दर्शन, योग, आचार, उपदेश, व्यंग्य और चरित तथा कथा काव्यों के सृजन में अपना विशेष स्थान रखते हैं। संस्कृत, प्राकृत भाषाओं में प्राप्त इनका साहित्य उनके बहुआयामी व्यक्तित्व एवं मौलिक सर्जनाशक्ति का परिचायक है। जैनागमों पर लिखे गये व्याख्या साहित्य और स्वतंत्र दर्शन विषयक चिंतन से उनके तलस्पर्शी अध्ययन/ज्ञान का बोध होता है। आचार्य हरिभद्र ने दर्शन के चिंतन में जहाँ खण्डन-मण्डन की शैली को अपनाया, वहीं उदारता, सहिष्णुता, समदर्शिता, समभाव और समन्वयात्मक दृष्टिकोण उनके व्यक्तित्व को वृद्धिंगत करते हैं। हरिभद्र के लिए विद्या विवादाय न होकर सत्यान्वेषण की पृष्ठभूमि से आप्लावित है। इसलिए आचार्य हरिभद्र पक्षाग्रही न होकर सत्याग्रही प्रतीत होते हैं। लोकतत्त्वनिर्णय, षड्दर्शनसमुच्चय, शास्त्रवार्तासमुच्चय, संबोधप्रकरण, धूर्ताख्यान, अनेकान्तजयपताका और आगमों पर व्याख्याएं प्रमुख ऐसे ग्रंथ हैं, जिनमें समन्वयात्मक दृष्टिकोण के संदर्भ अंकित हैं। उन्होंने भ्रमर की तरह अनेक धार्मिक एवं दार्शनिक परम्पराओं से बहुत कुछ लिया और उसे जैन परम्परा में अनेकान्तिक दृष्टि के अन्तर्गत समाहित भी किया।
आचार्य हरिभद्र की समन्वयात्मक दृष्टि का मूल्यांकन करने के लिए आवश्यक है कि हम उनके धर्म और दर्शन के क्षेत्र में दिये गये योगदान पर चर्चा करें। उनके ग्रन्थों में वर्णित समन्वयात्मक बिन्दुओं में प्रमुख विषय हैं :• धर्म एवं दर्शन विषयक परम्पराओं का निष्पक्ष प्रस्तुतीकरण।
अन्य दर्शनों की समीक्षा में भी शिष्ट भाषा का प्रयोग तथा अन्य धर्मों एवं दर्शनों के प्रवर्तकों के प्रति बहुमानवृत्ति। शुष्क दार्शनिक समालोचनों के स्थान पर उन अवधारणाओं के सार-तत्त्व और मूल उद्देश्यों को समझने का प्रयत्न । अन्य दार्शनिक मान्यताओं में निहित सत्यों को एवं इनकी मूल्यवत्ता को स्वीकार करते हुए जैन दृष्टि के साथ उनके समन्वय का प्रयत्न ।
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अन्य दार्शनिक परम्पराओं के ग्रंथों का निष्पक्ष अध्ययन करके उन पर व्याख्या और टीका का प्रणयन करना। उदार और समन्वयवादी दृष्टि रखते हुए पौराणिक अंधविश्वासों का निर्भीक रूप से खण्डन करना। दर्शन और धर्म के क्षेत्र में आस्था या श्रद्धा की अपेक्षा तर्क एवं युक्ति पर अधिक बल, किन्तु शर्त यह कि तर्क और युक्ति का प्रयोग अपने मत की पुष्टि के लिए नहीं, अपितु सत्य की खोज के लिए हो। धर्म साधना को कर्मकाण्ड के स्थान पर चरित्र की निर्मलता के साथ जोड़ने का प्रयत्न । मुक्ति के सम्बंध में एक उदार और व्यापक दृष्टिकोण ।
उपास्य के नाम-भेद को गौण मानकर उसके गुणों पर बल।
दार्शनिक और धार्मिक परम्पराओं का अध्ययन मुख्यतः दो दृष्टियों से किया जाता है-एक तो उन परम्पराओं की आलोचना करने की दृष्टि से और दूसरा उनका यथार्थ के रूप में परिचय पाने और उनमें निहित सत्य को समझने की दृष्टि से । आलोचना एवं समीक्षा की दृष्टि से लिखे गये ग्रंथों में भी आलोचना के शिष्ट और अशिष्ट ऐसे दो रूप मिलते हैं।
यद्यपि हरिभद्र ने भी अपनी कुछ कृतियों में अन्य दर्शनों एवं धर्मों की समीक्षा की है। अपने ग्रंथ धूर्ताख्यान में वे धर्म और दर्शन के क्षेत्र में पनप रहे अंधविश्वासों का सचोट खण्डन भी करते हैं, फिर भी इतना निश्चित है कि वे न तो अपने विरोधी विचारों को भ्रान्त रूप में प्रस्तुत करते हैं और न उनके सम्बंध में अशिष्ट भाषा का प्रयोग ही करते हैं। यह उनकी दार्शनिक समन्वयात्मक दृष्टि का परिचायक है। वैचारिक समन्वयशीलता और धार्मिक उदारता की जिस ऊँचाई का स्पर्श हरिभद्र ने अपनी कृतियों में किया है वैसा उनके पूर्ववर्ती जैन एवं जैनेतर दार्शनिकों में हमें परिलक्षित नहीं होता । यद्यपि हरिभद्र के परवर्ती जैन दार्शनिकों में हेमचन्द्र, यशोविजय, आनन्दघन आदि अन्य धर्मों और दर्शनों के प्रति समभाव और उदारता का परिचय देते हैं, किंतु उनकी यह उदारता उन पर हरिभद्र के प्रभाव को ही सूचित करती है। "लोकतत्त्वनिर्णय" नामक ग्रंथ में आचार्य हरिभद्र कहते हैं
पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु। युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥38॥
आचार्य हेमचंद्र पर उक्त श्लोक का स्पष्टतः प्रभाव दृष्टिगोचर होता है, जहाँ वे ब्रह्मा, विष्णु, महेश अथवा जिन (तीर्थङ्कर) को नमस्कार करते हुए कहते हैं -
भव-बीजांकुरजनना, रागाद्याक्षयमुपागता यस्य। ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै॥
- महादेव-स्तोत्र, 44 वस्तुतः 2500 वर्ष के सुदीर्घ जैन इतिहास में ऐसा कोई भी समन्वयवादी उदारचेता व्यक्तित्व नहीं है, जिसे हरिभद्र के समतुल्य कहा जा सके। यद्यपि हरिभद्र के पूर्ववर्ती और
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परवर्ती अनेक आचार्यों ने अनेकान्तिक दृष्टि के प्रभाव के परिणामस्वरूप उदारता का परिचय अवश्य दिया है, फिर भी उनकी सृजनधर्मिता उस स्तर की नहीं हैं जिस स्तर की हरिभद्र की है। उनकी कृतियों में दो चार गाथाओं या श्लोकों में उदारता के चाहे संकेत मिल जाएं, किंतु ऐसे कितने हैं जिन्होंने समन्वयात्मक और उदारदृष्टि के आधार पर षड्दर्शनसमुच्चय, शास्त्रवार्तासमुच्चय और योगदृष्टिसमुच्चय जैसे महान् कृतियों का प्रणयन किया हो।
दर्शन संग्राहक ग्रंथों की परम्परा में आचार्य हरिभद्र एक ऐसे महान् दार्शनिक व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने पूर्ण निष्पक्षता एवं उदारतापूर्वक बिना किसी खण्डन-मण्डन के निरपेक्ष भाव से दार्शनिक सिद्धान्तों का प्रस्तुतीकरण किया। जैनेतर दार्शनिक ग्रंथ आचार्य शंकर विरचित 'सर्वसिद्धांतसंग्रह' को लें अथवा माध्वाचार्य कृत 'सर्वदर्शन संग्रह' को, साथ ही जैन परम्परा के राजशेखरकृत (वि.सं. 1405) षड्दर्शनसमुच्चय, आचार्य मेरुतुंगकृत षड्दर्शननिर्णय, जिनदत्तसूरि के 'विवेक-विलास', अज्ञातकर्तृक 'सर्वसिद्धांत प्रवेशक' आदि सभी पश्चात्वर्ती आचार्यों की कृतियों को लें, उन सभी में दर्शन के क्षेत्र में आचार्य हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय जैसी उदारता, निरपेक्षभाव एवं समन्वयवादी दृष्टिकोण का पूर्णतः अभाव परिलक्षित होता है अपने परवर्ती ग्रंथों में वे अन्य परम्पराओं और उनके प्रवर्त्तकों के प्रति अत्यन्त सम्मान सूचक भाषा का प्रयोग करते हैं तथा उनके प्रति बहुमान सूचित करते हैं। अपने ग्रंथ ‘शास्त्रवार्तासमुच्चय' के प्रारम्भ में ही ग्रंथ-रचना का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं. यं श्रुत्वा सर्वशास्त्रेषु प्रायस्तत्त्वविनिश्रव्यः । जायते द्वेषशमनः स्वर्गसिद्धिसुखावहः ॥
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अर्थात् इसका अध्ययन करने से अन्य दर्शनों के प्रति द्वेष-बुद्धि समाप्त होकर तत्त्व का बोध हो जाता है। इस ग्रंथ में वे कपिल को दिव्य पुरुष एवं महामुनि के रूप में सूचित करते हैंकपिलो दिव्यो हि स महामुनिः (शास्त्रवार्तासमुच्चय, 237 )
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इसी प्रकार वे बुद्ध को भी अर्हत्, महामुनि, सुवैद्य आदि विशेषणों से अभिहित करते हैंयतो बुद्धो महामुनिः सुवैद्यवत् (शास्त्रवार्तासमुच्चय, 465-66 )
यहाँ हम देखते हैं कि जहाँ एक ओर अन्य दार्शनिक अपने विरोधी दार्शनिकों का खुलकर परिहास करते हैं, यथा - न्यायदर्शन के प्रणेता महर्षि गौतम को गाय का बछड़ा या बैल और महर्षि कणाद को उल्लू कहते हैं, वहीं दूसरी ओर हरिभद्र अपने विरोधियों के लिए महामुनि और अर्हत् जैसे सम्मानसूचक विशेषणों का प्रयोग करते हैं । इस प्रकार आचार्य हरिभद्र ने अन्य परम्पराओं के प्रति जिस शिष्टता और आदरभाव का परिचय दिया है, वह हमें जैन और जैनेतर किसी भी परम्परा के अन्य ग्रंथों में उपलब्ध नहीं होता।
आचार्य हरिभद्रसूरि ने ईश्वरवाद की अवधारणा में कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्यों को देखने का प्रयास किया है। उन्होंने ईश्वर कर्तृत्ववाद की अवधारणा को अपने ढंग से स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। वे कहते हैं कि जो व्यक्ति आध्यात्मिक निर्मलता के फलस्वरूप अपने विकास की उच्चतम भूमिका को प्राप्त हुआ हो वह असाधारण आत्मा है और वही ईश्वर या सिद्ध पुरुष है । उस आदर्श स्वरूप को प्राप्त करने के कारण कर्त्ता तथा भक्ति का विषय होने से वह उपास्य
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है।' इस कथन से स्पष्ट है कि वे मानव-मन की शरणागति की मूलभावना में किसी तरह का ठेस नहीं पहुँचाना चाहते, बल्कि ईश्वरवादी अवधारणा का समन्वयात्मक दृष्टि से विवेचन करते हैं। इसके साथ ही हरिभद्र यह भी मानते हैं कि प्रत्येक जीव तत्वत: अपने शुद्ध रूप में परमात्मा और भविष्य का निर्माता है और इस दृष्टि से यदि विचार करें तो वह 'ईश्वर' भी है
और 'कर्ता' भी है। इस प्रकार ईश्वर-कर्तृत्ववाद भी समीचीन सिद्ध होता है। उन्होंने सांख्य दर्शन के प्रकृतिवाद की समीक्षा करते हुए प्रकृति को जैन परम्परानुसार कर्मप्रकृति माना है
और समन्वयात्मक दृष्टिकोण रखते हुए प्रकृतिवाद (कर्म प्रकृति) को उचित ठहराया है, क्योंकि उसके (प्रकृति) वक्ता कपिल दिव्य-पुरुष व महामुनि हैं।'
यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि अन्य दार्शनिक अवधारणाओं की समीक्षा का उनका प्रयत्न समीक्षा के लिए ही है । उन्होंने शास्त्रवार्तासमुच्चय में कहा भी है कि इस ग्रंथ का उद्देश्य अन्य परम्पराओं के प्रति द्वेष का उपशमन करना और सत्य का बोध करना है।'
जैन परम्परा में साधना के अंगों के रूप में दर्शन (श्रद्धा), ज्ञान और चरित्र (शील) को स्वीकार किया गया है। हरिभद्र भी धर्म-साधना के क्षेत्र में इन तीनों का स्थान स्वीकार करते हैं, किन्तु वे मानते हैं कि न तो श्रद्धा को अन्धश्रद्धा बनना चाहिए, न ज्ञान को कुतर्क आश्रित होना चाहिए और न आचार को केवल बाह्य कर्मकाण्डों तक सीमित रखना चाहिए। वे कहते हैं कि 'जिन' पर मेरी श्रद्धा का कारण राग-भाव नहीं अपितु उनके उपदेश की युक्तिसंगतता है। हरिभद्र के अनुसार अंधश्रद्धा से मुक्त होने के लिए तर्क एवं युक्ति को सत्य का गवेषक होना चाहिए, न कि खण्डन-मण्डनात्मक। खण्डन-मण्डनात्मक तर्क या युक्ति साधना के क्षेत्र में उपयोगी नहीं है। इस तथ्य की विस्तृत चर्चा उन्होंने अपने ग्रंथ 'योगदृष्टिसमुच्चय' में की है। वस्तुतः वे सम्यग्ज्ञान और तर्क में एक अन्तर स्थापित करते हैं। तर्क केवल विकल्पों का सृजन करता है, अतः उनकी दृष्टि में निरी तार्किकता आध्यात्मिक विकास में बाधक ही हैं।
हरिभद्र के समस्त उपदेशात्मक साहित्य को देखने पर ऐसा लगता है कि श्रावक एवं मुनि आचार के सम्बन्ध में वे हमेशा सदाचार पर अधिक बल देते रहे हैं। उन्होंने मुख्यतया व्यक्ति की चारित्रिक निर्मलता और कषायों के शमन का निर्देश ग्रंथों में किया है। साधनागत विविधताओं के बीच समन्वय स्थापित करते हुए वे लिखते हैं कि जिस प्रकार राजा के विभिन्न सेवक अपने आचार और व्यवहार में अलग-अलग होकर भी राजा के सेवक हैं, उसी प्रकार सर्वज्ञों द्वारा प्रतिपादित आचार पद्धतियाँ बाह्यतः भिन्न-भिन्न होकर भी तत्त्वतः एक ही हैं। सर्वज्ञों की देशना में नाम आदि का भेद होता है, तत्त्वतः भेद नहीं होता। वे पुनः कहते हैं कि ऋषियों के उपदेश की भिन्नता, उपासकों की प्रकृतिगत भिन्नता अथवा देशकालगत भिन्नता के आधार पर होकर तत्त्वतः एक ही होती है। उनकी दृष्टि में धर्म साधना का अर्थ है -
अध्यात्म भावना ध्यानं समता वृत्तिसंक्षयः। मोक्षेण योजनाद्योग एष श्रेष्ठो यथोत्तरम्।। --- योगबिन्दु, 31
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वस्तुतः हरिभद्र की मान्यता है कि व्यक्ति अपने जीवन में वासनाओं का कितना शमन कर सका है और उसके जीवन में समभाव और अनासक्ति कितनी सधी है।
मुक्ति के संदर्भ में आचार्य हरिभद्र अन्य आचार्यों के समान यह अभिनिवेश नहीं रखते हैं कि मुक्ति केवल हमारी साधना पद्धति या हमारे धर्म से ही होगी। उनकी दृष्टि में मुक्ति केवल हमारे धर्म में हैं – ऐसी अवधारणा ही भ्रान्त है । वे स्पष्ट रूप से कहते हैं किनासाम्बरत्वे ना सिताम्बरत्वे, ना तर्कवादे न च तत्त्ववादे ।
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ना पक्षासेवाश्रयेन मुक्ति, कषाय मुक्ति किल मुक्तिरेव ॥
अर्थात् मुक्ति न श्वेताम्बर, न दिगम्बर, न तार्किक वाद-विवाद और न ही तत्त्वचर्चा से हो सकती है। किसी एक सिद्धान्त विशेष में आस्था रखने या किसी व्यक्ति विशेष की सेवा करने से भी मुक्ति असंभव है। मुक्ति तो वस्तुतः कषायों से मुक्त होने में है, मुक्ति का आधार कोई धर्म, सम्प्रदाय अथवा विशेष वेशभूषा आदि नहीं है बल्कि जो समभाव की साधना, वीतराग दशा को प्राप्त करेगा, वही मुक्त होगा। वे कहते हैं
सेयंबरो य आसंबरो य, बुद्धो य अहव अण्णो वा । समभावभावि अप्पा लहइ मुक्खं न संदेहो ॥ योगदृष्टिसमुच्चय में वे लिखते हैं कि
सदाशिव: परं ब्रह्म सिद्धात्मा तथेती च । शब्देस्तद् उच्यतेअन्वर्थाद् एकं एवैवमादिभिः ॥
अर्थात् सदाशिव, परमब्रह्म, सिद्धात्मा, तथागत आदि नामों में केवल शब्द भेद हैं, उनका अर्थ तो एक ही है। जो उस परमतत्त्व की अनुभूति कर लेता है उसके लिए यह शब्दगत समस्त विवाद निरर्थक हो जाते हैं ।
आचार्य हरिभद्रसूरि में यद्यपि एक धार्मिक की श्रद्धा है, किंतु वे श्रद्धा को तर्क विरोधी नहीं मानते हैं। वे स्पष्ट रूप से यह कहते हैं कि बुद्धि और तर्क का उपयोग केवल अपनी मान्यताओं की पुष्टि के लिए ही नहीं किया जाना चाहिए, अपितु सत्य की खोज के लिए किया जाना चाहिए
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आग्रही बत। निनीषति युक्तिं तत्र यत्र तस्य मतिर्निविष्टा ।
निष्पक्षपातस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र तस्य मतिरेति निवेशम् ॥'
अर्थात् आग्रही व्यक्ति अपनी युक्ति (तर्क) का भी प्रयोग वहीं करता है, जिसे वह सिद्ध अथवा खंडित करना चाहता है। जबकि अनाग्रही या निष्पक्ष व्यक्ति जो उसे युक्तिसंगत लगता है, उसे स्वीकार करता है। सत्य के गवेषक एवं साधना के पथिकों को पूर्वाग्रहों से युक्त होकर विभिन्न मान्यताओं की समीक्षा करनी चाहिए और उनमें जो भी युक्तिसंगत लगे उसे स्वीकार करना चाहिए। इस प्रकार वे शुष्क तार्किक न होकर सत्यनिष्ठ तार्किक थे ।
अनेकान्तिक एवं समन्वयात्मक दृष्टि के कारण अन्य दर्शनों के गम्भीर अध्ययन की
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परम्परा का विकास सर्वप्रथम जैन दार्शनिकों ने किया है। ऐसा लगता है कि हरिभद्र ने समालोच्य प्रत्येक दर्शन का ईमानदारी पूर्वक गम्भीर अध्ययन किया था, क्योंकि इसके बिना वे न उन दर्शनों में निहित सत्यों को समझा सकते थे, न उनकी स्वस्थ समीक्षा ही कर सकते थे
और न उनका जैन मन्तव्यों के साथ समन्वय कर सकते थे। हरिभद्र अन्य दर्शनों के अध्ययन तक ही सीमित नहीं रहे, अपितु उन्होंने उनके कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रंथों पर तटस्थ भाव से टीकाएं
भी लिखीं। दिडनाग के 'न्यायप्रवेश' पर उनकी टीका महत्त्वपूर्ण मानी जाती है । पतञ्जलि के 'योगसूत्र' का उनका अध्ययन गंभीर प्रतीत होता है, जिसके आधार पर नवीन दृष्टिकोण से उन्होंने योगदृष्टिसमुच्चय, योगबिन्दु, योगविंशिका आदि ग्रंथों की रचना की थी। इस तरह आचार्य हरिभद्र जैन-जैनेतर परम्पराओं के गंभीर अध्येता एवं व्याख्याकार भी हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि उदारचेता, समन्वयशील और सत्यान्वेषी आचार्यों में हरिभद्र के समतुल्य किसी अन्य आचार्य को खोज पाना कठिन है। अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण भारतीय दार्शनिकों के इतिहास में वे अद्वितीय व अनुपम हैं।
संदर्भ 1. ततश्चेश्वर कर्तृत्त्ववादोऽयं युज्यते परम्। . सम्यान्यायाविरोधेन यथाऽऽहुः शुद्धबुद्धतः ॥
ईश्वरः परमात्मैव तदुक्तव्रतसेवनात्। यतो मुक्तिस्ततस्तस्याः कर्ता स्याद्गुणभावतः ।। तदनासेवनादेव यत्संसारोऽपि तत्त्वतः ।
तेने तस्यापि कर्तृत्वं कल्प्यानं न दुष्यति ॥ शास्त्रवार्तासमुच्चय, 203-205 2. परमैश्वर्ययुक्तत्वान्मतः आत्मैव चेश्वरः।
स च कर्तेति निर्दोषः कर्तृवादो व्यवस्थितः ॥ वही 207 3. प्रकृतिं चापि सन्न्यायात्कर्मप्रकृतिमेव हि ॥
एवं प्रकृतिवादोऽपि विज्ञेयः सत्य एव हि।
कपिलोक्तत्वतश्चैव दिव्यो हि स महामुनिः ॥ वही 236, 237 4. (क) वही, 21
(ख) योगदृष्टिसमुच्चय, 87-88 5. योगदृष्टिसमुच्चय, 86-101 6. वही, 107-109 7. वही, 138 8. वही, 130 9. योगशतकम् ----- गाथा 89. की स्वोपज्ञ टीकान्तर्गत
प्राकृत एवं जैनागम विभाग जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) लाडनूं-341 306 (राजस्थान)
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साधना के दो तट : उत्सर्ग और अपवाद
-साध्वी पीयूषप्रभा
जीवन का परम ध्येय है मोक्ष की उपलब्धि और उसका मार्ग है राग-द्वेष से निवृत्ति अर्थात् समत्व भाव में अवस्थिति । बाह्य आचार के नियमोपनियम साधना पथ को गतिशील बनाने में प्रेरक तत्व का काम करते हैं किन्तु वे मुख्य नहीं हैं। मुख्य हैं आत्मशुद्धि, समाधि और समता । साधक के मन में उद्विग्नता और वियोग की स्थितियां पैदा न हो, इस बात को केन्द्र में रखते हुए द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार साधना के रूप अतीत में बदलते रहे हैं, वर्तमान में बदल रहे हैं और भविष्य में बदलते रहेंगे। भगवान् पार्श्व और भगवान् महावीर का चातुर्याम और पंच शिक्षात्मक धर्म-भेद और सचेलक और अचेलक के रूप में लिंग-भेद इस तथ्य के पुष्ट प्रमाण हैं । यद्यपि दोनों महापुरुषों द्वारा प्रवर्तित साधना मार्ग का लक्ष्य एक था बंधनमुक्ति। इसी परिप्रेक्ष्य में मूल सूत्रों के बारे में कुछ विचारणा आवश्यक प्रतीत होती है। जैन तीर्थंकर केवल अर्थ का उपदेश करते हैं । गणधर उसे सूत्र रूप में ग्रथित करते हैं, उन्हें शब्द देते हैं अर्थात् मूलभूत अर्थ है न कि शब्द।
अरहा अत्थं भासति तमेव सुत्तीकरेंति गणधारी।
अत्थेण विणा सुत्तं अणिरिसयं केरिसं होंति ?' वैदिकों में शब्द मूल है, उसके बाद अर्थ की मीमांसा होती है किन्तु जैनों में शब्द बाद में जाता है, मूलभूत है अर्थ । अतः सूत्रगत शब्दों से अधिक महत्त्व उनके अर्थों का है। यही कारण है कि आचार्य शब्द से आगे तात्पर्यार्थ की ओर बढ़े। इस दिशा में वे कितने समर्थ हुए, यह अलग प्रश्न है किन्तु उन्हें तात्पर्यार्थ की ओर जाने की छूट थी, यह बात अति महत्त्वपूर्ण है। अगर सूत्र के मूल शब्दों में ही आचार के समस्त विधि-निषेधों का कथन हो जाता तो फिर व्याख्या की आवश्यकता नहीं रहती। अतः द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार कारकताओं को इस प्रश्न पर विचार करना पड़ा। सूत्र में अनेक अर्थों की सूचना रहती है। आचार्य उन विविध अर्थों का निर्देश व्याख्या में कर देते हैं तभी आचार का औचित्य सिद्ध हो सकता है। इसी संदर्भ में कहा गया है
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सुत्तस्स मग्गेण चरेज भिक्खू। सुत्तस्स अत्थो जह आणवे- भिक्षु सूत्रोक्त मार्ग पर चले। सूत्र का अर्थ --- जैसे अनुमति दे, भिक्षु वैसा ही आचरण करे। चूर्णिकार (अगस्त्य चूर्णि) ने इसका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा – सूयणामेत्तेण सव्वं ण बुज्झति विकीरति ---- सुतस्स अत्थो जह आणवेति --- "तस्स सुत्तासय मासकप्पादि सउस्सग्गापवाया गुरुहिं निरुविजंति अत्थो जह आणेवति जघा सो करणीयं-मग्गं निरुवेति अर्थात् गुरु उत्सर्ग (सामान्य विधि) अपवाद ( विशेष निधि) से जो मार्गदर्शन दे, उसी के आधार पर चल''।
जिस प्रकार एक ही मिट्टी के पिंड में से कुंभकार अनेक प्रकार की आकृति वाले बर्तनों की सृष्टि करता है, उसी प्रकार आचार्य भी एक सूत्र शब्द में से नाना अर्थों की उत्प्रेक्षा करता है। जिस प्रकार गृह में जब तक अंधकार है तब तक वहां स्थित अनेक पदार्थ दृष्टिगोचर नहीं होते हैं उसी प्रकार उत्प्रेक्षा के अभाव में शब्द के अनेकानेक विशिष्ट अर्थ अप्रकाशित ही रह जाते हैं।
__अर्थ की सार्थकता इसी में है कि उत्सर्ग-अपवाद आदि अनेकांत-दृष्टि से सूत्र के आशय को समझा जाये। यह सूत्र के मार्ग का आलोक है । इसे जानकर ही साधक सूत्रोक्त मार्ग पर चल सकता है। यह एक निश्चित सच्चाई है कि चाहे लौकिक क्षेत्र हो या आध्यात्मिक, कोई भी नियम सार्वभौम नहीं होता। उसमें अपवाद और छूटें होती ही हैं। कानून व्यवस्था भी कहती है -
Where there is rule. there is exception. जहां नियम होता है, वहां अपवाद होता ही है। कानून की प्रत्येक धारा के Explanation (स्पष्टीकरण) में Proviso (अपेक्षा) रहती है। इसी प्रकार अध्यात्म शास्त्र में भी विभिन्न अपवाद होते हैं और प्रत्येक नियम की सापेक्ष व्याख्या होती है।
उपर्युक्त विचारणा के फलस्वरूप ही आचार्यों ने यह निश्चय किया कि कौन से सूत्र उत्सर्ग सूत्र हैं, कौन से अपवाद सूत्र और कौन से तदुभय । तदुभय सूत्र के चार प्रकार हैं ---
1. उत्सर्गापवादिक 2. अपवादौत्सर्गिक 3. उत्सर्गोत्सर्गिक 4. अपवादापवादिक
साधना की सरिता उत्सर्ग और अपवाद – इन दो तटों के मध्य प्रवहमान रहती है। सरिता के प्रवाह की निरन्तरता के लिए दोनों तटों का स्वीकार आवश्यक है। यथोचित विधि और निषेध का पालन करने पर साधक अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। सामान्य उत्सर्ग और अपवाद - ये दोनों शास्त्रों के एक ही अर्थ को लेकर प्रयुक्त होते हैं। जैसे ऊँच-नीच आदि का व्यवहार सापेक्ष होने से एक ही अर्थ का साधक है वैसे ही सामान्य और अपवाद परस्पर सापेक्ष होने से एक ही प्रयोजन को सिद्ध करते हैं। जैसे सामान्य विधि संयम की रक्षा
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के लिए है वैसे ही अपवाद भी संयम की रक्षा के लिए है। साधना के महापथ पर गतिशील रहने के लिए जीवन रथ के दोनों चक्र उत्सर्ग और अपवाद सशक्त होने आवश्यक हैं।
दोनों ही चक्र आत्म-विकास में होने वाली क्षति से साधक को बचाते हैं अन्यथा पतन के मार्ग के लिए खुला अवकाश है। साधना के पथ पर बढ़ते हुए अनेक अवरोध आ सकते हैं और आते हैं। उन अवरोधों को पार करने के लिए मार्ग की अपेक्षा रहती है। अपवाद उसी
अपेक्षित मार्ग का नाम है। उत्सर्ग मार्ग चारित्रिक जीवन की आचार-संहिता है तो अपवाद संभावित समस्या का एक समाधान है। शास्त्रकारों ने नियमों का कोई खोल तैयार नहीं किया है, जो ऊपर से धारण किया जाये अथवा पदार्थ की सुरक्षा करे। उन्होंने तो नियमों को आचरणगत बनाने की प्रक्रिया सुझाई है, जिसमें विफलताएं भी अवकाश-प्राप्त हो सकती हैं। उन विफलताओं से पार पाना ही अपवाद मार्ग है । उत्सर्ग और अपवाद की परिभाषा -
उत् उपसर्ग का अर्थ उद्यत और सर्ग का अर्थ है विहार अर्थात् जो उद्यत विहार चर्या है उसका नाम है उत्सर्ग। उत्सर्ग का प्रतिपक्ष अपवाद है। अपवाद दुर्भिक्ष आदि विकट परिस्थितियों में उत्सर्ग मार्ग से च्युत साधक को ज्ञानादि अवलम्बन पूर्वक धारण करता है अर्थात् उत्सर्ग में रहते हुए साधक ज्ञानादि गुणों का संरक्षण नहीं कर पाता है तो अपवाद सेवन के द्वारा उनका संरक्षण कर सकता है।'
आचार्य हरिभद्र का कहना है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि की अनुकूलता से युक्त समर्थ साधक के द्वारा किया जाने वाला कल्पनीय (शुद्ध), अन्नपान गवेषणा रूप उचित अनुष्ठान उत्सर्ग है और द्रव्यादि की अनुकूलता से रहित का यतनापूर्वक तथाविध अकल्प्य सेवन रूप उचित अनुष्ठान अपवाद है।
सर्वार्थ सिद्धि में विशेष रूप से कहीं गई विधि को अपवाद कहा है।
उत्सर्ग और अपवाद के सम्बन्ध में आचार्य मल्लिपेण' स्याद्वाद मंजरी, कारिका में लिखते हैं -
सामान्य रूप से संयम की रक्षा के लिए नवकोटि विशुद्ध आहार ग्रहण करना उत्सर्ग है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावजन्य अपराधों से ग्रस्त मुनि को अन्य कोई उपाय न सूझ पड़े तो वह उचित यतन के साथ पंच कोटि विशुद्ध अभदय उद्दिष्ट आहार आदि का ग्रहण कर सकता है - यह अपवाद है। यह अपवाद भी उत्सर्ग की तरह संयम की रक्षा के लिए ही होता है। कहा भी है
सव्वत्थ संजमं संजमाओ अपाणमेव रक्खंतो।
मुच्चति अतिवाताओ पुणो विसोही ण तादिर त्ती। मुनि को सर्वत्र संयम की रक्षा करनी चाहिए। संयम की अपेक्षा अपनी ही रक्षा करनी चाहिए। इस तरह मुनि संयम भ्रष्टता से मुक्त हो जाता है । वह फिर विशुद्ध हो सकता
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है और अविरति का भागी नहीं होता है। जैसा कि स्पष्ट किया जा चुका है कि उत्सर्ग और अपवाद ---दोनों का लक्ष्य एक है । उत्सर्ग चरित्र-शुद्धि के लिए प्रमुख नियमों का विधान है तो अपवाद चरित्र-शुद्धि के लिए बाधक नियमों का विधान है। यथापरिस्थिति विधिनिषेध हो जाता है और निषेध विधि । निशीथ भाष्यकार इस सम्बन्ध में बड़ी महत्त्वपूर्ण बात लिखते हैं
उस्सग्गेण णिसिद्धाणि, जाणि दव्वाणि संथरे मुणिनो।
कारणजाए जाते सव्वाणि वि ताणि कप्पंति॥' समर्थ साधक के लिए उत्सर्ग स्थिति में जिन द्रव्यों का निषेध किया गया है, असमर्थ साधक के लिए अपवाद की परिस्थिति में विशेष कारण से वह वस्तु ग्राह्य भी हो जाती है।
निशीथ चूर्णि में आचार्य जिनदास इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए लिखते हैं,"
"जो उत्सर्ग में प्रतिसिद्ध हैं वे सबके सब कारण उत्पन्न होने पर कल्पनीय ग्राह्य हो जाते हैं। ऐसा करने में किसी प्रकार का भी दोष नहीं है। (जाणि उस्सग्गो पडिसिज्झति, उप्पण्णे करणे सव्वाणि वि ताणि कप्पंति)"
आचार्य उमास्वाति लिखते हैं, । “भोजन, शय्या, वस्त्र, पात्र तथा औषध आदि कोई भी वस्तु शुद्धकल्प्य-ग्राह्य होने पर भी अकल्प्य-अशुद्ध हो जाती है और अकल्प्य होने पर भी कल्प्य हो जाती है।"
देश, काल, क्षेत्र, पुरुष, अवस्था, उपघात और शुद्ध भावों की समीक्षा के द्वारा ही वस्तु कल्प्य ग्राह्य होती है। कोई भी वस्तु सर्वथा एकांत रूप से कल्प्य नहीं होती है।
आयुर्वेद में भी जो वस्तु रोग की एक अवस्था में अपथ्य मानी गई है, दूसरी अवस्था में वही वस्तु पथ्य कही गई है। चरक संहिता में कहा गया है
उत्पद्यते हि सावस्था देशकालायमान् प्रति।
यस्यामकार्य कार्यं स्यात् कर्म कार्यं तु वर्जयेत्॥ देश, काल और रोग के कारण ऐसी अवस्था उत्पन्न होती है जब अकार्य कार्य बन जाता है और कार्य अकार्य बन जाने से त्याज्य हो जाता है। जैसे बलवान ज्वर के रोगी को लंघन स्वास्थ्यप्रद है किन्तु क्षीण धातु रोगी को वही लंघन घातक है । इसी तरह किसी देश में ज्वर के रोगी को दही खिलाना पथ्य समझा जाता है परन्तु वहीं दही दूसरे देश में ज्वर के रोगी के लिए अपथ्य है।
भाष्यकार शंकर ने भी उत्सर्ग और अपवाद मार्ग की चर्चा की है। उनके अनुसार धर्म और अधर्म के विज्ञान का हेतु शास्त्र है। यह धर्म है, यह अधर्म है, इसके विज्ञान में शास्त्र ही कारण है, क्योंकि धर्म और अधर्म अतीन्द्रिय है और उनका देश, काल और निमित्त अनियत है। जिस देश, काल और निमित्त में जिस धर्म का अनुष्ठान होता है वही धर्म अन्य देश, काल और निमित्त में अधर्म हो जाता है। न हिंस्यात् सर्व भूतानि - किसी भी जीव की हिंसा मत
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करो - यह उत्सर्ग है और 'अग्निसोमीयं पशुमलभेत्' अग्नि और सोम के लिए पशु के वध को - यह अपवाद है । उत्सर्ग और अपवाद का विषय व्यवस्थित है । इसीलिए वैदिक कर्म विशुद्ध है, क्योंकि शिष्ट उनका अनुष्ठान करते हैं और निंदा के योग्य नहीं है ।
निष्कर्षत: सामान्य विधि उत्सर्ग है और विशेष विधि अपवाद है किन्तु दोनों ही विधि एक ही प्रयोजन से सिद्ध करती है, इसलिए अपवाद विधि उत्सर्ग विधि से बलवान नहीं हो सकती। दोनों मिलकर ही मूल ध्येय को सिद्ध करते हैं । यदि कोई विधि अहिंसा के लिए है तो उसका निषेध भी अहिंसा के लिए ही है। सापेक्ष दृष्टि से व्याख्या करने पर यद्यपि निषेधक स्थान पर विधि और विधि के स्थान पर निषेध प्राप्त होते हैं पर वैसी ही स्थिति में वे विधिनिषेध सम्मत होते हैं जहां तक साधक की साधना में बाधा उपस्थित न हो।
संक्षेपतः उत्सर्ग और अपवाद – दोनों मार्ग हैं साधना पथ पर बढ़ने के । दोनों का लक्ष्य है जीवन की शुद्धि, पवित्रता, संयम की रक्षा, ज्ञानादि गुणों का संपोषण । एक राजमार्ग की तरह सीधा है तो दूसरा थोड़ा घुमावदार । राजमार्ग पर विशेष प्रतिरोध उत्पन्न होने की स्थिति में साधक पगडंडी को स्वीकार करता है किन्तु तब तक ही, जब तक प्रतिरोध बना रहे । प्रतिरोध समाप्ति के बाद वह पुनः राजमार्ग पर लौट आया है। निशीथ चूर्णि में उत्सर्ग के लिए प्रतिषेध शब्द है और अपवाद के लिए अनुज्ञा शब्द है । 'उस्सग्गो पडिसेहो अवतावो अण्णा' साधु के लिए जो अकरणीय कार्य कहे गये हैं वे सारे प्रतिषेध के अन्तर्गत आते हैं और परिस्थिति विशेष में उन्हीं निषिद्ध कार्यों को करने की अनुज्ञा दी जाती है। वे निषिद्ध कार्य भी विधि बन जाते हैं।
प्रवचनसार" में बताया है – सर्वथोत्सर्गापवादमैत्र्य सौस्थित्यमाचरणस्य विधेयम्उत्सर्ग और अपवाद, इन दोनों में परस्पर मैत्री होने से मुनि आचार में अच्छी तरह से स्थिरता आ सकती है।
निशीथ भाष्यकार लिखते हैं - शास्त्र में न सर्वथा अनुज्ञा है और न सर्वथा निषेध है, अतः साधक को लाभार्थी वणिक की भांति आय-व्यय का हिसाब कर किसी कार्य में प्रवृत्त होना चाहिए ।
भाष्य एवं चूर्णि साहित्य में अपवाद सेवन के कारणों का उल्लेख मिलता है | 5 असिवे ओमोदरिए रायदुट्टे भये गेलण्णे ।
अद्धाण रोधए वा कप्पिया तीसु वी जतणा ॥
महामारी, दुर्भिक्ष, प्रशासकीय प्रतिकूलता, सामाजिक अपराध, चोरी, डकैती, लूटपाट आदि का भय, बीमारी, छोटे-छोटे राज्यों का आपसी तनाव, विग्रह इत्यादि से साधक के लिए अपवाद सेवन अनुज्ञात है। कारण समाप्त होने पर जैसा कि ऊपर निर्दिष्ट किया जा चुका है कि साधक को अपवाद मार्ग से पुनः उत्सर्ग मार्ग में आ जाना चाहिए, यही विवेकपूर्ण आचरण है।
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संदर्भ सूची
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2.
वृहत्कल्प पीठिका, गाथा 193
(क) निशीथ गाथा. 5233
(ख) दशवैकालिक चूर्णि 2/11
निशीथ भाष्य 5234
स्याद्वाद मञ्जरी 11/138/6
वृहद् कल्प भाष्य पीठिका 319
उपदेश - पद गा 784
सर्वार्थसिद्धि 1/33
स्याद्वाद मंजरी कारिका 11, पृ. 99 100
निशीथ चूलिका पीठिका 451
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10. निशीथ भाष्य 5245
11. fagterafof 5245
12. प्रशमरतिप्रकरण 145 146 चरक संहिता अ. 2/26
13.
14. निशीथभाष्यचूर्णि गाथा 364 15. प्रवचनसार 3/30 टीका, पृष्ठ 313 16. निशीथ भाष्य, गाथा 458
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सम्पर्क सूत्र
जैन विश्वभारती संस्थान
(मान्य विश्वविद्यालय ) लाडनूँ - 341306 (राजस्थान)
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संस्कृत जैन स्तोत्र काव्य
--- प्रकाश वर्मा (सोनी)
भारतीय वाङ्मय में स्तोत्र-स्तवन की धारा अनादिकाल से चली आ रही है। इनका मूल ऋग्वेद में है जिसमें विभिन्न देवी-देवताओं की स्तुतियों में अनेक सूक्त मिलते हैं । वैदिक कवियों की स्तुतियां विश्वमानव की स्तुतियां हैं जिनमें विश्वकल्याण और मानवीय उत्थान से प्रेरित होकर विविध देवों का आह्वान किया गया है। जैसे अग्नि, इन्द्र. वरूण, हिरण्यगर्भ. उषा आदि में सुरक्षित सूक्त स्तवन ही है। यजुर्वेद की वाजसनेयी संहिता 41वां अध्याय ऋग्वेद का पुरुष सूक्त है। यह स्तुति की दृष्टि से महनीय है । यजुर्वेद का अंतिम अध्याय ईशावास्योपनिषद् है । इसमें परम प्रभु की सर्वव्यापकता का प्रतिपादन किया गया है। आठवें मंत्र में प्रभु के निर्गुण
और सगुण दोनों रूपों का प्रतिपादन हुआ है। सामवेद को गेय स्तोत्रों का संकलन कह सकते हैं। ऋग्वेदिक ऋचाओं का इसमें संग्रह है। ऋक् मंत्रों के ऊपर गाए जाने वाले भाव ही साम शब्द के वाच्य हैं। यज्ञ के अवसर पर जिस देवता के लिए हवन किया जाता है, उसे बुलाने के लिए उद्गाता उचित स्वर में उस देवता का स्तुति मंत्र गाता है। सामवेद में 1875 ऋचाएं हैं, जिसमें केवल 99 ऋचाएं नवीन हैं। सामवैदिक स्तुतियां संगीत की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण हैं । इसमें दो गान हैं - पूर्वार्चिक और उत्तरार्चिक । अथर्ववेद का पृथ्वीसूक्त एक राष्ट्रीय स्तोत्र है। ब्राह्मणों तथा उपनिषदों में भी इसके प्रयोग मिलते हैं। निरूक्त में अनेक स्थलों पर स्तुति शब्द का विनियोग हुआ है। वहीं पर स्तुति अर्थ में 'संस्तव' शब्द का भी प्रयोग किया गया है। आदिकाव्य रामायण में अनेक भक्तों द्वारा अपने उपास्य के प्रति स्तोत्र समर्पित किए गए हैं। विश्वकोश महाभारत में विभिन्न प्रकार के भक्त अपनेअपने उपास्य के चरणों में स्तुत्यांजलि समर्पित करते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में स्तुति का प्रयोग मिलता है तथा पुराणों में अनेक स्थलों पर यह शब्द उपलब्ध होता है। महर्षि वाल्मीकि एवं लोकसंग्रही व्यास के पश्चात् महाकाव्यों में कविताकामिनीविलासकविकुलगुरु महाकवि कालिदास अपनी काव्यप्रतिभा तथा कल्पनाचातुरी
के लिए प्रख्यात हैं। विश्वप्रसिद्ध महाकाव्य रघुवंश तथा प्रख्यात नाटक तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2002 -
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अभिज्ञानशाकुन्तमलम् का प्रारम्भ शिव स्तुति से ही होता है। कुमारसंभव में हिमालय की महिमा, ब्रह्मा की स्तुति अत्यन्त कमनीय है। यह आर्त स्तुति है।' महाकाव्य के दसवें सर्ग में विष्णु भगवान् की स्तुति की गई है। किरातार्जुनीयं अलंकृत शैली का उत्कृष्ट महाकाव्य है। महाभारतीय आख्यान पर विरचित यह ग्रंथ महाकवि भारवि की अर्थगौरवपूर्ण अमर कृति है। इस महाकाव्य के अंत में अर्जुन ने भगवान् शंकर की स्तुति की है। 2 उपमा, अर्थगौरव एवं पदलालित्य के तीनों गुणों से विभूषित महाकवि माघ संस्कृत साहित्याकाश के देदीप्यमान नक्षत्र हैं। सुरभारती के वरदवत्स हैं। 'शिशुपालवध' महाकाव्य के चतुर्दशसर्ग में पितामह भीष्म ने सर्वनियन्ता अर्जुन सखा भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति उदात्त स्तुति समर्पित की है। नैषधीयं चरितम् महाकाव्य महाकवि हर्ष की अनुपम रचना है। "नैषधं विद्वदौषधम्" सूक्ति जो सम्पूर्ण विदग्ध --- संसार में प्रथित है। इस महाकाव्य में मत्स्यावतार, कच्छपावतार, वारादावतार, नृसिंहावतार, वामनावतार एवं अन्य भगवदवतारों की स्तुतियां संग्रथित हैं। रत्नाकर कवि ने 'हरिविजयम्' नामक महाकाव्य में देवताओं तथा चण्डी की स्तुति करायी है। किन्तु इन्हें स्तोत्र साहित्य का अंश ही कहा जा सकता है। इनके अतिरिक्त स्वतंत्र रूप से भी स्तोत्र साहित्य लिखे गये, जैसे--- पुष्पदन्त विरचित 'शिवमहिम्न स्तोत्र', मयूर कवि द्वारा 'सूर्यशतक', महाकवि बाणभट्ट द्वारा रचित 'चण्डीशतक', शंकराचार्य द्वारा विरचित 'आनन्द लहरी' (सौन्दर्य लहरी), मोहमुदगर', 'अपराध-भजन', 'कनकधारा-स्तोत्र', 'आत्मबोध', 'यतिपंचक', आदि प्रसिद्ध हैं। आचार्य कुलशेखर की ‘कुन्दमालास्तोत्र', यमुनाचार्य का 'अलबंदारस्तोत्र', लीलाशुक्र का 'कृषकर्णामृत' स्तोत्र आदि प्रसिद्ध हैं। जैन संस्कृत स्तोत्रों में मुख्य तत्त्व 1. भक्त अपने सांसारिक सुख-दुःखात्मक अनुभूति को प्रभु के चरणों में उड़ेलकर
अपना समस्त कार्यभार उसी पर छोड़ देता है। यह आत्मानुभूति जब स्वाभाविक स्वर लहरी में निजी हर्ष-विषाद की अभिव्यंजना के लिए प्रस्तुत होती है और
आराध्य से सहायता की अपेक्षा करती है तब स्तुति काव्य का प्रारम्भ होता है। 2. उपास्य के दिव्यशील, सौन्दर्य और अलौकिक गुणों की महत्ता। 3. एकाग्रता स्तुति का मूल है। जब तक चित्तवृत्तियां स्थिर नहीं हो जाती तब तक
स्तुति का प्रणयन नहीं हो सकता। बाह्य विषयों से निवर्तित होकर चित्तवृत्तियां जब उपास्य के चरणों में एकत्रावस्थित हो जाती हैं तभी भक्त के हार्द धरातल से उसके उपास्य से सम्बंधित नाम-गुण-रूपात्मक स्वर लहरियां स्वतः ही निःसृत
होने लगती हैं। 4. कर्मावरण के कारण पैदा होने वाली विकृति का कथन । 5. आध्यात्मिकता या दार्शनिक विचारों की प्रधानता।
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6. शरणागति की स्तुतियों में प्रधानता होती है। सांसारिक भय से पीड़ित होकर जीव
सत्यात्मक प्रभु की शरणागति ग्रहण करता है। 7. असंभव अलौकिक और चमत्कारपूर्ण कार्यों को आराध्य द्वारा सम्पन्न कराने की
आकांक्षा। स्तोत्रों में तत्त्व-स्तुति में उपास्य के गुणों का संकीर्तन निहित रहता है। सर्वात्मना प्रभु चरणों में समर्पित एवं मनसा, वाचा तथा कर्मणा अपने प्रियतम में अधिष्ठित भक्त हृदयस्थ भावों को उस उपास्य किंवा प्रियतम के चरणों में शब्दों के माध्यम से विनिवेदित करता है, उसे ही स्तुति कहते हैं । स्तुति की भाषा सरल हृदय की भाषा होती है। उसमें बाहरी वृत्तियों का सर्वथा अभाव पाया जाता है। स्तोत्र पाठ करने से चित्त में निर्मलता उत्पन्न होती है, जिससे पुण्य का बंध होता है। शुद्धात्माओं की उपासना या भक्ति का आलम्बन पाकर मानव का चंचल चित्त क्षणभर के लिए स्थिर हो जाता है, आलम्बन के गुणों का स्मरण कर अपने अन्दर उन्हीं गुणों को विकसित करने की प्रेरणा पाता है तथा उनके गुणों से अनुप्राणित होकर मिथ्या परिणति को दूर करने के पुरुषार्थ में रत हो जाता है।
जैनधर्म में भक्ति का रूप आराध्य को प्रसन्न कर कुछ पा लेने का नहीं, इसलिए यहां भक्ति का रूप दास्य, सख्य एवं माधुर्यभाव से सर्वथा भिन्न है। उत्तराध्ययन में स्तोत्र के फल के विषय में एक बड़ा ही रोचक संवाद प्राप्त होता है - "स्तुति करने से जीव ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप बोधिलाभ प्राप्त करता है। बोधिलाभ से उच्च गतियों में जाता है। उसके रागादि भाव शांत होते हैं।" आचार्य समन्तभद्र ने स्वयम्भूचरितं में लिखा है
"तथापि ते मुनीन्द्रस्य यतो नामापि कीर्तितम्।
पुनाति पुण्यकीर्तेर्नस्ततो ब्रूयाम किंचन॥" अर्थात् तुम पुण्यकीर्ति और मुनियों के इन्द्र से यदि तुम्हारे नाम का उच्चारण कर लिया जाए तो वह हमें शुद्ध बना देता है, यही तुम्हारे स्तवन का प्रयोजन है। आचार्य समन्तभद्र स्तुति को प्रशस्ति-उत्पादिका बतलाते हैं । जैनधर्म के अनुसार आराध्य तो वीतरागी होता है, वह न तो कुछ लेता है और न देता है परन्तु भक्त को उसके सान्निध्य से एक ऐसी प्रेरक शक्ति मिलती है जिससे वह सब कुछ पा लेता है।
जैनदर्शन में शुद्ध आत्मा का नाम ही परमात्मा है। प्रत्येक जीवात्मा कर्मबंधनों के विलग हो जाने पर परमात्मा बन जाता है। अतः अपनी उन्नति और अवनति का दायित्व स्वयं अपना है। अपने कार्यों से ही यह जीव बंधता है और अपने कार्यों से ही बंधनमुक्त होता है। उपासना या भक्ति अकिंचन या नैराश्य की भावना नहीं है। साधक संयम, त्याग, तप और ध्यान द्वारा कर्मबंधन को नष्ट कर जीवनमुक्त अवस्था को प्राप्त कर लेता है। जैन भक्तिकाल की पृष्ठभूमि में बताया है - वीतरागी भगवान् भले ही कुछ न देता हो, परन्तु उसके सान्निध्य में वह प्रेरक शक्ति है, जिससे भक्त स्वयं सब कुछ पा लेता है। जैनदर्शन में निष्काम भक्ति को
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महत्त्व प्राप्त है। जहां सांसारिक स्वार्थ रहता है, वहां कर्मबंध जरूर होता है। जैन स्तोत्रों में भक्ति का रूप वर्णित है, वह दीनता से दूर है। संस्कृत जैन स्तोत्र साहित्य
जैन साहित्य में प्राकृत स्तोत्रों के लिए 'थुई' और 'थुति' (उत्तराध्ययन सूत्र, अध्याय 29, सूत्र 14)- ये दो शब्द मिलते हैं। संस्कृत स्तोत्रों के लिए स्तुति, स्तव, स्तवन, स्तोत्र आदि शब्द व्यवहत है। अदादिगणीय “ष्टञ् स्तुतौ'' धातु से स्त्रियां क्तिन् से भाव में क्तिन् प्रत्यय करने पर स्तुति शब्द निष्पन्न होता है । स्तुतिः शब्द स्तु क्तिन्", स्तवः शब्द स्तु अप, स्तोत्रम् शब्द स्तुष्टन् से बना है, जिनका अर्थ स्तोत्र-प्रशंसा, स्तुति, स्तुतिगान, स्तुतिप्रशंसा, गुण कीर्तन, श्लाघा, स्तोत्र, प्रशंसा करना, सूक्त और स्तव-प्रशंसा करना, विख्यात करना, स्तुति करना, प्रशंसा, स्तुति और स्तोत्र है । स्तव्य' का अर्थ है जो स्तवन स्तुति किये जाने योग्य है, जिसका स्तवन किया जाये। संस्कृत का स्तोत्र साहित्य अत्यंत विपुल और समृद्ध है। ऋग्वेद से चली आ रही स्तोत्र परम्परा अविच्छिन्न रूप से अब तक चली आ रही है। सत्कवियों ने अपनी वाणी को अपने आराध्य के गुणानुवाद से सहज रूप में पवित्र बनाया है।
कोश- अमरकोश के अनुसार स्तुति का अर्थ स्तव, स्तोत्र और नुति है । हलायुध कोश में प्रयुक्त अर्थवाद, प्रशंसा, स्तोत्र, ईडानुति, स्तव, शूाघा, विकथन, वर्णना आदि शब्द स्तुत्यर्थक हैं।' बाणभट्ट के शब्द रत्नाकर में प्रशंसा, ईडा, नुति आदि शब्द स्तुति के पर्याय के रूप में उपन्यस्त है । वैजयंतीकोश के अनुसार साम, शस्त्र और स्तोत्र स्तुति शब्द के अर्थ हैं।
प्रारम्भ में स्तुति और स्तव में अन्तर रहा है, यथा - एकः शोकः द्विीको त्रिशोका: वा स्तुतिर्भवति । परतश्चतुःश्रोकादिक: स्तवः । अन्येषामाचार्याणां मतेन एक लोकादि : सप्तथोकपर्यन्ताः स्तुतिः । ततः परमष्ट लोकादिकाः स्तवाः ।24
अर्थात् एक श्रोक से तीन श्रीक पर्यन्त स्तुति और उसके अनन्तर चार श्रोक आदि स्तवन हैं। मतान्तर से एक शोक से सात शोक पर्यन्त स्तुति और आठ श्रीक अथवा इससे अधिक शोक स्तव कहलाते हैं।
श्री शांतिसूरि ने स्तव और स्तोत्र में भेद बतलाते हुए लिखा है – 'स्तव गम्भीर अर्थ वाला और संस्कृत भाषा में निबद्ध किया जाता है तथा स्तोत्र की रचना विविध छन्दों के द्वारा प्राकृत भाषा में होती है। परन्तु बाद में ये सभी भेद समाप्त हो गये और स्तुति और स्तवन, स्तोत्र समानार्थी हो गये।'
वस्तुतः इस चराचर क्षणभंगुर जगत् में स्तव्य तो एक ही है, जिसका स्तुतिगान कर कवि की वाणी परम विश्राम, परमानन्द को प्राप्त करती है। वह है समग्र ऐश्वर्य, वीर्य, श्री, यश
और विराग स्वरूप भगवत् तत्त्व, परमात्म तत्त्व, जिसे शैव-शिव, वेदान्ती-ब्रह्म, वैष्णवविष्णु, शाक्त-शक्ति, बौद्ध-बुद्ध, मीमांसक-कर्म, नैयायिक-कर्ता और जैनदर्शन नैसर्गिक शुद्ध रूप स्वरूप, अनन्तगुण, चतुष्टय, स्वरूप जीव मानते हैं। जिन, अर्हत् और महावीर मानते हैं।
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संस्कृत का स्तोत्र साहित्य बड़ा ही विशाल, सरस और हृदयस्पर्शी है। प्रमुख जैन संस्कृत स्तोत्रकार निम्न हैं --
___ 1. स्वयंभूस्तोत्र-जैन संस्कृत स्तोत्रकारों में आचार्य समन्तभद्र अग्रण्य है। स्वयंभू स्तोत्र तार्किक शैली में लिखा गया एक दार्शनिक स्तोत्र है। इसमें चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति की गयी है। कवित्व शक्ति स्वाभाविक है। स्तोत्र का पहला शब्द स्वयम्भू होने से इसका नाम स्वयम्भूस्तोत्र पड़ा है। कुल 143 पद्य हैं । इस स्तोत्र में भक्तिरस में गम्भीर अनुभूति का तारल्य विद्यमान है। इसलिए इसे सरस्वती की स्वच्छन्द विहारभूमि कहा जा सकता है। प्रस्तुत स्तोत्र के संस्कृत टीकाकार प्रभाचन्द्र ने इसे "निश्शेषजिनोक्त धर्म" कहा है। स्तोत्रशैली में कवि ने प्रबंध पद्धति के बीजों को निहित कर इतिवृत्त सम्बंधी अनेक तथ्यों को प्रस्तुत किया है। ऋषभदेव को प्रजापति के रूप में असि, मषि, कृषि, सेवा, शिल्प और वाणिज्य का उपदेष्टा कहा है । वंशस्थ, उपेन्द्रवज्रा, इन्द्रवज्रा, वसन्ततिलका, उपजाति आदि 13 प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया है। भक्तिभावना, रागात्मक वृत्तियों का उदात्तीकरण, जीवन के अनुरंजनकारी चित्रण एवं ललितपदावली के मनोरम विन्यास के साथ दार्शनिक तत्त्वों का विवेचन प्रशंसनीय है। दार्शनिक तथ्यों की अभिव्यंजना मधुर-कोमल भावनाओं के वातावरण में की गयी है। काव्य के मधुमय वातावरण में दार्शनिक-गूढ मान्यताओं का समवाय द्रष्टव्य है।
2. युक्त्यनुशासन-समन्तभद्रकृत इस स्तोत्र काव्य में वीर के सर्वोदय तीर्थ की महत्ता प्रतिपादित करने के लिए उनकी स्तुति गयी है। युक्तिपूर्वक महावीर के शासन का मंडन और वीरविरुद्ध मतों का खण्डन किया गया है। अर्थगौरव की दृष्टि से यह काव्य उत्तम कोटि का है। गागर में सागर भर देने वाली कहावत इस पर चरितार्थ होती है। सम्पूर्ण जिनशासन को 64 पद्यों में ही समाविष्ट कर दिया है। प्रतिपादन शैली तर्कपूर्ण है । एक सामान्य तथ्य को अनेक युक्तियों के साथ वैदर्भी शैली में अंकित करने में निपुण है।
3. स्तुतिविद्या (जिनशतकालंकार)-समन्तभद्र द्वारा रचित इस स्तोत्र काव्य की शतक काव्यों में भी इसकी गणना की गयी है। 100 पद्यों में किसी एक विषय से सम्बद्ध रचना लिखना प्राचीन काल में गौरव की बात मानी जाती थी। चित्रकाव्य और बन्धरचना का अपूर्व कौशल समाहित है। इस जिनशतकालंकार में चौबीस तीर्थंकरों की चित्रबन्धों में स्तुति की गयी है। कलापक्ष और भावपक्ष दोनों नैतिक एवं धार्मिक उपदेश के उपस्कारक बनकर आये हैं। प्रस्तुत स्तोत्र में मुरजबन्ध, अर्धभ्रम, चक्रबन्ध, गतप्रत्यागतार्ह, अनुलोम-प्रतिलोमक्रम
और सर्वतोभद्र चित्रों का व्यवहार उपलब्ध है। एकाक्षर पद्यों की सुन्दरता कला की दृष्टि से प्रशंसनीय है। इसमें 116 पद्य हैं।
4. आप्तमीमांसा ( देवागमस्तोत्र)-समन्तभद्र की महनीय कृति है। स्तोत्र के रूप में तर्क और आगम परम्परा की कसौटी पर आप्त-सर्वज्ञ देव की मीमांसा की गई है। समन्तभद्र अंधश्रद्धालु नहीं है, वे श्रद्धा को तर्क की कसौटी पर कसकर युक्तिआगम द्वारा आप्त की
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विवेचना करते हैं । इसमें 115 पद्य हैं । 'देवागम' पद द्वारा इस स्तोत्र का प्रारम्भ होने से यह 'देवागम स्तोत्र' कहलाता है ।
आचार्य सिद्धसेन (ईस्वी सन् चौथी शती ) – कवि सिद्धसेन की कुछ द्वात्रिंशिकाएं हैं । जैसे महावीर द्वात्रिंशिका । द्वात्रिंशिकाओं की भाषा अत्यंत प्रौढ़ और परिमार्जित हैं । स्तवन प्रसंग में दीप्तियुक्त अक्षरों या शब्दों का प्रयोग कर आह्लादकता का समुचित समावेश किया गया है। द्वात्रिंशिकाओं में उपेन्द्रवज्रा, इन्द्रवज्रा, उपजाति, वंशस्थ, शार्दूविक्रीड़ित, शिखरिणी आदि छन्दों का प्रयोग किया गया है। इसके अतिरिक्त इनका प्रसिद्ध स्तोत्रकाव्य "कालु कल्याणमंदिर स्तोत्र" भी है।
दैवनन्दि पूज्यपाद (वि.सं. छठी शती) - सिद्धिप्रियस्तोत्र, शान्त्यष्टक, सरस्वती स्तोत्र देवनन्दि पूज्यपाद ने श्रुतभक्ति, चरित्रभक्ति, सिद्धभक्ति, निर्वाणभक्ति, योगभक्ति, पंचगुरुभक्ति, आचार्यभक्ति, शांतिभक्ति, समाधिभक्ति, तीर्थंकरभक्ति, चैत्यभक्ति तथा नन्दीश्वरभक्ति की रचना की है। प्रस्तुत बारह भक्तियां बारह स्तोत्र हैं । प्रस्तुत काव्यों में अध्यात्म, आचार, स्तुति, प्रार्थना और नीति का प्रतिपादन किया है ।
पात्रकेसरी (ईस्वी सन् छठी शती ) जिनेन्द्र गुण संस्तुति (पात्रकेसरी) नामक स्तोत्र की रचना पात्रकेसरी नामक कवि की है। अर्हन्त भगवान् की संयोगिकेवली अवस्था का अत्यंत मनोरम चित्रण किया है। वीतरागी का ज्ञान एवं संयम आदि की महत्ता का विवेचन अनेक प्रकार से संयोजित किया गया है। प्रसंगवश अनेक दार्शनिक सम्प्रदायों की भी समीक्षा की है। इस स्तोत्र में 50 पद्य हैं। प्रस्तुत स्तोत्र की भाषा शैली प्रौढ़ है । चारपांच पदों तक के समस्यंत पद प्राप्य हैं । इसमें आत्मनेपदी क्रियाओं का व्यवहार किया है । संगच्छते, विरुध्यते, अश्नुते, संविधास्ये, उपपद्यते, विद्यते, युज्यते, गम्यते, अनुषज्यते, छिद्यते, उह्यते आदि क्रियाएं प्रयुक्त हैं।
वज्रनन्दी (ईस्वी सन् छठी शती ) – वज्रनन्दीकृत एकमात्र 'नवस्तोत्र' काव्य उपलब्ध है।
मानतुंगाचार्य ( ईस्वी सन् सातवीं शती) – मानतुंगाचार्य ने 'भक्तामर स्तोत्र' की रचना की। आचार्य रूद्रदेव त्रिपाठी के अनुसार मानतुंगाचार्य ने आठवीं शती में भक्तामर स्तोत्र की रचना की । इनका भक्तामर स्तोत्र श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों में समान रूप से समादृत है । यह कृति इतनी लोकप्रिय रही कि इस पर 20 टीकाएं तथा 22 से अधिक पादपूर्तिमूलक काव्यों की सृष्टि हुई। इसके प्रत्येक पद्य के आद्य या अंतिम चरण को लेकर समस्यापूर्ति - आत्मक स्तोत्र काव्य लिखे जाते रहे हैं। इस स्तोत्र की रचना/ महत्ता के संदर्भ में विभिन्न उल्लेख मिलते हैं । प्रस्तुत स्तोत्र में 48 पद्य हैं। प्रत्येक पद्य में काव्यत्व रहने के कारण 48 काव्य कहे जाते हैं। इसमें भगवान् आदिनाथ की स्तुति वर्णित है। लेखक की रचनाओं में भक्ति के साथ ही मंत्र, तंत्र, यंत्र, आभाणक तथा अन्यान्य शास्त्रीय विषयों का मंथन भी हुआ और इस प्रकार स्तोत्र साहित्य में एक नये प्रयोग का सूत्रपात हो गया। जैन संस्कृत स्तोत्र परम्परा के क्षेत्र में (विकास) लोकप्रिय स्तोत्रकार मानतुंगाचार्य का अवदान अत्यंत स्पृहणीय है ।
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हरिभद्रसूरि (आठवीं शती)- हरिभद्रसूरि ने एक लघु परन्तु महनीय कृति "संसारदावानल स्तुति" की 'भाषासमक' पद्धति में रचना की।" अभिनवपद्धति में स्तोत्र रचना की दृष्टि से हरिभद्रसूरि का योगदान उल्लेखनीय है।
बप्पभट्टि-इनका समय 743-838 बताया जाता है। इन्होंने सरस्वती स्तोत्र, वीरस्तव, शांतिस्तोत्र और चतुर्विंशति जिनस्तुति की रचना की है। सरस्वती स्तोत्र में 13 पद्य और वीरस्तव में 11 पद्य है। चतुर्विंशतिका में 96 पद्य हैं और यमकालंकार में स्तोत्र का गुम्फन किया है। दो चरणों की तुल्य आवृत्ति वाले यमक का व्यवहार यहां सर्वप्रथम हुआ है। पांचालदेश में डुम्बतिथि ग्राम में बप्प नाम का क्षत्रिय रहता था, उसकी पत्नी का नाम भट्टि था। माता-पिता के संयुक्त नाम के आधार पर इनका नाम बप्पभट्टि रखा गया। वि.सं. 807 में मोढरक में सिद्धसेनाचार्य के पास दीक्षा धारण की थी। गुरु ने इनका नाम भद्रकीर्ति रखा परन्तु प्रसिद्धि बप्पट्टि के नाम से ही हुई। जैन संस्कृत स्तोत्र परम्परा को विकसित करने में बप्पभट्टि की भूमिका प्रेरणादायक रही है।
धनजंय ( आठवीं शती)-महाकवि धनंजय ने 'विपापहार' नामक स्तोत्र की रचना की है। इस स्तोत्र में 40 इन्द्रवज्रा पद्य हैं, अंतिम पद्य का छन्द पुष्पिताग्रा है और उसमें कर्ता ने अपना नाम सूचित किया है। कहा जाता है कि इस स्तोत्र के प्रभाव से सर्प विष दूर हो जाता है। तीर्थंकर ऋषभ की स्तुति की गई है । भाषा शैली सरल, सरस, प्रभावशाली तथा वैदर्भी मंडित है।
विद्यानन्द (783-841 ई.) नवम शती - आचार्य विद्यानन्द ने "श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र'' का प्रणयन किया। इसमें 30 पद्य हैं । दार्शनिक स्तोत्र होते हुए भी काव्य तत्त्वों की प्रधानता विद्यमान है। कवि ने आराध्य की प्रशंसा में रूपकालंकार की सफल योजना की है। कवि ने भक्ति-निष्ठा के साथ दार्शनिकों द्वारा अभिमत आप्त का निरसन किया है। प्रवाहपूर्ण भाषा एवं शैली की उदात्तता आचार्य विद्यानन्द की महत्त्वपूर्ण विशेषता है। स्रग्धरा, शिखरिणी, शार्दूलविक्रीड़ित और मन्दाक्रान्ता छन्दों का उपयोग किया गया है।
जिनसेनद्वितीय ( नवम शताब्दी )30 - जिनसेन द्वितीय द्वारा जिनसहस्रनाम स्तोत्र विरचित है । इस स्तोत्र के प्रारम्भ में 34 श्रोकों में नाना विशेषणों द्वारा तीर्थंकर का स्तवन किया गया है। तत्पश्चात् दश शतकों में सब मिलाकर जिनेन्द्र ने 1008 नाम गिनाये हैं। इन नामों में ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र, बुद्ध, बृहस्पति आदि नाम भी आये हैं । सुदीर्घस्तोत्रकार के रूप में जिनसेन द्वितीय अविस्मरणीय आचार्य है।
नंदिषेण ( नौवीं शती)-नंदिषेण द्वारा अर्जित शांति स्तव (प्राकृत) रचित रचना है।
जम्बूमुनि/जम्बूसुरि (948 ई.) --- जम्बूमुनि ने 'जिनशतक' नामक स्तोत्र की रचना की। प्रस्तुत कृति में स्रग्धरा छन्द का प्रयोग तथा शब्दालंकारों का सुन्दर समावेश किया है।
शोभनमुनि- ग्यारहवीं शताब्दी में धनपाल कवि के अनुजबन्धु शोभनमुनि ने
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"चतुर्विंशतिजिनस्तुति" का प्रणयन किया। शोभनमुनि ने इसमें यमकमय स्तुति परम्परा को आगे बढ़ाया। इस कृति पर 8 टीकाकृतियों की रचना हुई। कवि धनपाल ने भी इस पर टीका की है। याकोबी ने जर्मन में तथा प्रो. कपाड़िया ने गुजराती और अंग्रेजी में इस स्तोत्र का अनुवाद किया। एकाधिक भाषा में अनुवाद तथा टीकाएं इसकी लोकप्रियता के प्रमाण हैं।
शिवनाग(ग्यारहवीं शती)33 – शिवनाग ने "पार्श्वनाथमहास्तव", "धरणेन्द्रोरगस्तव" या"मन्त्रस्तव"का प्रणयन कर जैनस्तोत्र संस्कृत परम्परा के विकास में अपना अवदान दिया है।
कुमुदचन्द्र ( 11वीं शती)-स्तोत्र साहित्य में प्रसिद्ध कल्याणमन्दिर स्तोत्र की रचना कुमुदचन्द्र ने की। श्वेताम्बर परम्परा में इसके रचयिता सिद्धसेन दिवाकर स्वीकार किये गये हैं। किंतु कुछ सैद्धांतिक वर्णनों के कारण इसे श्वेताम्बर स्तोत्र नहीं कहा जा सकता। प्रबंधकोषकार ने सिद्धसेन का अपरनाम कमदचंद्र लिखा है। इसमें 44 पद्य हैं तथा भगवान पार्श्वनाथ की स्तुति की गई है। इसमें आराध्य की उदारता तथा स्तोत्र की विनयशीलता का वर्णन अत्यंत सुन्दरता से किया है। शैली समास रहित और प्रसाद गुण मण्डित है। भक्तामर स्तोत्र की तरह परवर्तीकाल में यह स्तोत्र भी अत्यंत लोकप्रिय रहा। फलतः इसकी पादपूर्ति में अनेक स्तोत्र रचे गये, जिनमें भावप्रभसूरिकृत जैनधर्मवर-स्तोत्र, अज्ञातकर्तृक पार्श्वनाथ स्तोत्र, वीर स्तुति विजयानन्दसूरिश्वर-स्तवन आदि प्रमुख हैं।
वादिराजसूरि ( 11वीं शताब्दी)- वादिराजसूरि ने ज्ञानलोचन स्तोत्र और एकीभाव स्तोत्र की रचना की है जो कि अपने पार्श्वनाथचरित महाकाव्य के कारण संस्कृत जगत् में प्रसिद्ध है। वादिराज दिगम्बर सम्प्रदाय के महान् तार्किक थे। यही कारण है कि उक्त स्तोत्र में भी उनकी तर्क- शक्ति ने विराम नहीं लिया। अन्य देव श्रृंगार सहित होते हैं तथा वनिता गदादि चिह्नों से जाने जाते हैं।
विनयहंसगणि ( ग्यारहवीं शती)-विनयहंसगणि ने 'जिनस्तोत्र कोश' की रचना की जो कि अपनी सरल-मधुर शैली के कारण अपना अलग ही स्थान रखती है।
भूपालकवि- भूपालकवि के द्वारा प्रतिपादित कृति 'जिनचतुर्विंशतिका' है जो कि एक प्रसिद्ध स्तोत्र है।
भट्टारक सकलकीर्ति - 'परमात्मराज स्तोत्र' ---- यह एक लघुस्तोत्र है, जिसमें 16 पद्य हैं । स्तोत्र सुन्दर एवं भावपूर्ण हैं । इसकी एक प्रति जयपुर के दि. जैन मन्दिर पाटोदी के शास्त्र भंडार में संग्रहीत है । (संवत् 1443 को जन्म एवं 1499 में मृत्यु) सकलकीर्ति रास' में विस्तृत जीवन गाथा है।
'संस्कृत प्राचीन स्तवन' सन्दोह में अनिर्दिष्ट लेखक नामवाले ऋषभस्तवन, अजितस्तवन, सम्भवस्तवन, अभिनन्दनस्तवन, साधारण-जिनस्तवन, श्रीविंशति-जिनस्तवन, सप्तति-जिनस्तवन, त्रिकाल-जिनस्तवन, शाश्वताशाश्वत जिनस्तवन, शत्रुजयस्तवन, गिरिनारस्तवन, अष्टापदस्तवन आदिशताधिक स्तोत्रमुद्रित हैं ।
इसी प्रकार जैन स्तोत्र समुच्चय और जैन स्तोत्र सन्दोह में भी अनेक स्तोत्र संगृहीत हैं। 20वीं शताब्दी में भागेन्दु कृत 'महावीराष्टक एवं मंगलाष्टक' आदि स्तोत्र उल्लेखनीय हैं।
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प्राचीन स्तोत्र (20वीं सदी से पूर्व )
देवागम स्तुति (आप्तमीमांसा)
शती)
समन्तभद्र (लगभग द्वितीय
स्वयंभूस्तोत्र – समन्तभद्र (लगभग द्वितीय शती) युक्त्यनुशासन समन्तभद्र (लगभग द्वितीय शती) जिनशतकालंकार (स्तुतिविद्या)
समन्तभद्र ( लगभग द्वितीय
मानदेव (तीसरी शती)
शती) शांतिस्तव महावीर द्वात्रिंशिका सिद्धसेन क्षपणक (चौथी शती) शाल्यष्टक - पूज्यपाद (पांचवीं शती) सरस्वती स्तोत्र I-- पूज्यपाद (पांचवीं शती) जैनाभिषेक--- पूज्यपाद (पांचवीं शती) दशभक्ति -- पूज्यपाद (पांचवीं शती) पात्रकेशरी स्तोत्र – पात्रकेशरी स्वामी (6 शती ) नवस्तोत्र वज्रनन्दी (6 शती)
भक्तामर (आदिनाथ स्तात्र ) - -मानतुंग (सातवीं शती) अकलंकाष्टक - भट्टाकलंकदेव (सातवीं शती) विषापहार स्तोत्र धनंजय (सातवीं शती) जिनेन्द्रगुणसंस्तुति- - जिनसेन पुत्राट (प्रथम) (सातवीं शती) चतुर्विंशति जिन स्तुति- -वप्यभट्ट (आठवीं शती) शक्ति स्तोत्र - बप्पभट्ट (आठवीं शती)
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सरस्वती स्तोत्र - बप्पभट्टि (आठवीं शती) वीरस्तव - वप्पभट्टि (आठवीं शती) श्रीपुर पार्श्वनाथ स्तोत्र - विद्यानन्द (आठवीं शती) श्री जिनसहस्रनाम स्तोत्र - जिनसेनस्वामी (नौवी शती) अजितशांति स्तव (प्राकृत ). - नंदिषेण (नौवीं शती) जिनशतक- जम्बूसूरि (943) शोभन स्तुति शोभनमुनि (970) ऋषभ पंचाशिका - धनपालकाश्यप (970 1015) भूपाल चतुविंशति गोल्लाचार्य भृपाल (985) भावना द्वात्रिंशिका -अमितगति (9751020 )
एकीभाव स्तोत्र ( कल्याण कल्पद्रुम) - वादिराज ( 1025) अध्यात्माष्टक स्तोत्र - वादिराज (1025)
जानलोचन स्तोत्र - वादिराज (1025) जिनशतक - रामनन्द ( 1028 ) ऋषिमण्डलस्तोत्र - मल्लिपंग (1047 ) पद्मावती स्तोत्रादिमल्लिषेण (1047) जिनशतक स्तोत्र वसुनन्दि (1045) पार्श्वनाथ स्तोत्र इन्द्रनन्दि ( लगभग 1050 )
जयतिहु आण स्तोत्र ( प्राकृत ) -- अभयदेवसूरि (1063-79)
संवेग रंगशाला - जिनचन्द्रमृति (1063 ) अर्हनुतिमाल माघनन्दि मुनि (1100) चतुर्विंशतिस्तुति-माघनन्दित मुनि (1100) वीतरागस्तोत्र – हेमचन्द्राचार्य (110972) महादेवस्तोत्र - हेमचन्द्राचार्य (1109-72)
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अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका - हेमचन्द्राचार्य ( 1109-72 ) अन्ययोग व्यवच्छेद द्वात्रिंशिका - हेमचन्द्राचार्य ( 1107 72 ) प्राभातिक स्तुति मुनिचन्द्रसूरि ( 1111 16 ) चन्द्रनाथाष्टक - मौक्तिक (1120)
त्रैलोक्य चूडामणि स्तोत्र ब्रह्म शिव ( 1125 ) स्वाधिष्ठाय स्तोत्र - जिनदत्तसूरि (1125) वित्रविनाशिस्तोत्र जिनदत्तमूरि (1125)
ऋषिमण्डल स्तोत्र धर्मघोषसूरि (1125 ) कल्याणमंदिर स्तोत्र - कुमुदचन्द्राचार्य (1125) शंख देवाष्टक मानकीर्ति (1136-70)
चन्द्रप्रभु स्तुति – वाग्वल्लकी वैणिक (1143) पार्श्वनाथाष्टक - राजसेन (लगभग 1150) समवशरण स्तोत्र - विष्णु सेन (लगभग 1150) शतार्थी सर्वजिनपति स्तुति श्रीपाल कवि (1152 ) पार्श्वनाथ (लक्ष्मी) स्तोत्र पद्मप्रभ मलधारि (1167- 1217 ) आदिदेव स्तव - रामचन्द्रसूरि (1175-1200) मुनिवतदेव स्तव - रामचन्द्रसूरि (1175-1200) मिस्तव - रामचन्द्रसूरि ( 1175 1200 ) जिन स्तोत्र आदि रामचन्द्रसूरि ( 1175 1200 ) पार्श्वनाथ स्तोत्र विद्यानन्दि (1181) जिन स्तोत्र - आसड ( लगभग 1200) शक्रस्तव - सिद्धसेन (लगभग 1200) जिनपति स्तवन - - शुभचन्द्रयोगी (लगभग 1200 ) नवग्रह स्तोत्र - वादिराज द्वितीय (लगभग 1200 ) पद्माषानिर्मित पार्श्वजिन स्तवन -धर्मवर्द्धन ( लगभग 1200)
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समवशरण स्तोत्र - हस्तिमल्ल (1200-1225 ) संजीवन स्तोत्र हस्तिमल्ल (1200 1225 )
सहस्रनामस्तवन- आशाधर (1200-1250 )
सिद्धगण स्तोत्र --- आशाधर (1200-1250) सरस्वती स्तोत्र -- आशाधर (1200 1250 ) महावीर स्तुति - आशाधर (1200-1250 ) चिन्तार्माण स्तवन सोमदेव (1205) चतुविंशति जिनस्तवन - देवनन्दि (1225)
सिद्धिप्रिय स्तोत्र स्वयंभू पाठ - देवनन्दि (1225 ) चन्द्रनाथाष्टक - गुणवर्म (1235 ) जीरावल्लिपार्श्वनाथ स्तोत्र महेन्द्रसूरि (1237) तीर्थमाला स्तोत्र - महेन्द्रसूरि (1237) पार्श्वस्तव – पद्मप्रभ (1237)
भुवन- दीपक --- पद्मप्रभ (1237 )
चतुर्विंशति जिनस्तुति - नरचन्द्र ( लगभग 1250 ) गीतवीतरागप्रबंध - चारुकीर्ति (लगभग 1250) सुप्रबोधन स्तोत्र - वाग्भट (लगभग 1250) शम्भुस्तोत्र - रत्नकीर्ति (1275 )
श्री वीरनिर्वाणकल्याणक स्तोत्र - जिनप्रभ सूरि ( 1295-1333)
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सिद्धान्तागम स्तव-जिनप्रभ सूरि (1295-1333) गौतम स्तात्र--जिनप्रभ सरि (1295-1333) पार्श्वनाथस्तोत्र ---जिनप्रभ मरि (1295 1333) अजितशांति स्तवन ---- जिनप्रभ मूरि (1295-1333) चतुर्विंशतिजिनस्तव ---- जिनप्रभ मृरि ( 1295. 1333) चतुर्विंशतिजिनस्तुति --- धर्मघाप ( 1300) यमक स्तुति ---- धर्मघोष ( 1300) अम्बिका स्तवन -- महामात्यवस्तुपाल ( 1300) अजितशातिस्तव (प्राकृत)- वीरगण (1253) रत्नाकारपंचविंशतिका --रत्नाकर (लगभग 1253) समन्तभद्र भारती स्तोत्र -- नागराज (1253) वीतरागस्तव-विवेकसागर ( 14वीं शती) चतुर्विंशति जिनस्तुति -- धर्मशखरगणि ( 14वीं शती) सूर्य सहस्रनाम स्तोत्र - भानुचन्द्र गणि ( 14वीं शती) शारदास्तवन-शुभचन्द्र भट्टारक (14वीं शती) स्तम्भ पार्श्वग्तव - नपचन्द्र सरि (लगभग 14वीं शती) सौमतिलक-- नयचन्द्र सूरि (लगभग 14वीं शती) अजित शांति स्तव ..... जयशेखर ( 1300 ई.) मदालसास्तोत्र.... शुभचन्द्र अध्यात्मी (1312) पइभाषा विभूषित शांतिनाथ स्तवन---जिनपद्म ( 1335.44) चत्रहारालिचित्र स्तव-जयतिलक (1350) शांतिजिन स्तोत्र --- पद्यतन्दि भट्टारक (1360-95) परमात्मराज स्तोत्र ...- पद्मनन्दि भट्टारक (1360-95) जीरावाली पाश्वनाथ स्तोत्र -- पद्मनन्दि भट्टारक (1360--95) रावणपार्श्वनाथ स्तोत्र - पद्मनन्दि भट्टारक ( 1360-95) वीतराग स्तोत्र ---पद्मनन्दि भट्टारक ( 1360-95) लक्ष्मी स्तोत्र - पद्मन्दि भट्टारक ( 1360-95) हारावली चित्रस्तोत्र.... जयतिलक ( 13-19 1413) जिनस्तोत्र रत्रकोश --मुनि सुन्दर (1378) परमात्मगज स्तोत्र ---- भट्टारकायकलकीर्ति ( 1443-1499 संवत्) वीरस्तात्र ...-सोमतिलक (15वीं शती) चतुर्विंशति जिन स्तवन ---- सोमतिलक (15वीं शती) अम्बिका स्तवन-वस्तुपाल ( 15वीं शती) चत्तिति जिन स्तवन -- धर्मशखरगण (15वीं शती) त्रिसंधान स्तोत्र --- रत्नशेखर सृरि ( 15वीं शती) जिनसहस्रनाम --- देवविजयगण (16वीं शती) चविंशति स्तुति ---मेरूविजय (16वीं शती) श्री आदिजिन स्तोत्रम् - उपाध्याय यशोविजय (16वीं शती) श्री पार्श्वजिन स्तोत्रम् --- उपाध्याय यशोविजय (16वीं शती) श्री शइखेश्वर पाश्रुजिन स्तोत्रम् ---उपाध्याय यशोविजय (16वीं शती) श्री महावीर प्रभु स्तोत्रम् --- उपाध्याय यशाविजय ( 16वीं शती) वीर स्तव --. उपाध्याय यशोविजय (16वीं शती) स्तुति गीत --उपाध्याय यशाविजय ( 16वीं शती) जिनसहस्रनाम --विनय विजय (17वीं शती) महावीगष्टक-- भागेन्द्र ( 19वीं शती)
बीसवीं सदी के स्तोत्र काव्य महावीर स्तवनम-डॉ. पन्नालाल, साहित्याचार्य महावीर स्तोत्रम् - डॉ. पन्नालाल, साहित्याचार्य विद्यासागराष्टकम् --- डॉ. पन्नालाल, साहित्याचार्य सायिक पाठः --डॉ. पन्नालाल, साहित्याचार्य तं धर्मसिन्धुप्रणमामि नित्यम-- डॉ. पन्नालाल, साहित्याचार्य आचार्य शांतिसागरवन्दना - डॉ. पन्नालाल, साहित्याचार्य बाहुबल्यष्टकम्-डॉ. पन्नालाल, साहित्याचार्य आचार्य धर्मसागर महाराज प्रति --डॉ. पन्नालाल, साहित्याचार्य तं देशभृषणमहर्षिमहं समीड-डॉ. पन्नालाल, माहित्याचार्य साधु-वन्दना - डॉ. पत्रालाल, साहित्याचार्य विनयाञ्जलयः - डॉ. पन्नालाल, साहित्याचार्य श्री गुगे शिवसागरम्य स्तवः -- आचार्य ज्ञानसागर शारदास्तुतिः ----आचार्य विद्यासागर आचार्य श्री शांतिसागर स्तुतिः - आर्यिका ज्ञानमती माताजी श्री शिवसागराचार्य स्तुतिः -- आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी श्री महावीरकीाचार्य स्तुतिः -- आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी श्री धर्मसागराष्टकम् - आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी भगवत्स्तुतिः -- मुनि सोहनलाल मातृकीर्तनम् --- मुनि सोहनलाल देवगुरु स्तोत्रम् -- मुनि सोहनलाल अष्टोनरशतनाम स्तोत्रम् -- आर्यिका विशुद्धमती माताजी आचार्य शिवसागर स्तोत्रम् - आयिका सूपाश्रमती माताजी जम्वजिनाष्टकम् ----- पं. दरबारीलाल जी कोठिया वीराष्टकम् --- पं. वंशीधरजी व्याकरणाचार्य वीतराग स्तुतिः -चन्दनमुनि श्री कालकीर्तन -... मनि नथमल (आचार्य महाप्रज्ञ) तुलसी स्तोत्रम --- मुनि नथमल ( आचार्य महाप्रज्ञ) भिक्षगुणोत्कीर्तनम् -- मुनि नथमल ( आचार्य महाप्रज्ञ) तेरापंथी स्तोत्रम् - मुनि नथमल ( आचार्य महाप्रज्ञ) जिन चतुर्विंशतिका ---- मुनि नथमल (आचार्य महाप्रज्ञ) तुलसी अष्टकम् - मुनि नथमल (आचार्य महाप्रज्ञ) श्री तुलसी स्तोत्रम् -- मुनि बुद्धमल्ल चतुर्विंशति स्तवनम् --- आचार्य तुलसी अहत् स्तुतिः --आचार्य तुलसी वर्धमान स्तोत्रम् --- आचार्य घासीलाल शिवाटक स्तोत्रम् --- आयिंका जिनमती जी भक्तामर रहस्यम् --- पं कमलकुमार शास्त्री आचाय शिवसागर स्तुति--पं. मूलचन्द्र शास्त्री गणश स्तुतिः --- पं. मूलचन्द्र शास्त्री अभिनव स्तोत्रम् --पं. मूलचन्द्र शास्त्री श्री आचार्य ज्ञानसागर संस्तुति - पं. मूलचन्द्र शास्त्री पदाप्रभस्तवनम-पं. जवाहर लाल शास्त्री गुरु गौरवम् - मुनि डूंगरमल शिवाष्टक स्तोत्रम --- आर्यिका जिनमती जी
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शुद्धात्म स्तवनम् – ब्र.पं. सच्चिदानंद वर्णी श्रीमद् वर्ण गणेशाष्टकम् - पं. ठाकुरदास शास्त्री पौराष्टकम् - पं. ठाकुरदास शास्त्री हरिभकामर ..... • कवीन्द्र सागर मृरि नेमिनाथ प्रतिः -- मुनि मोहनलाल 'शार्दूल' वर्णी सूर्य: पं. अमृतलाल दर्शनाचार्य देवगुरु द्वात्रिंशिका मुनि छत्रमल भिक्षु द्वात्रिंशिका - मुनि छत्रमल तुलसी द्वात्रिंशिका - मुनि छत्रमल
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देवगुरु धर्म- द्वात्रिंशिका - मुनि धनराज ( प्रथम ) नम्यते मुनिवरप्रमुखाय तस्मै - डॉ. दामोदर शास्त्री
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जैन पादपूर्ति - साहित्य
पादपूर्तिकाव्य की रचना करना कोई सामान्य कार्य नहीं। इस विशिष्ट कार्य में मूलकाव्य के मर्म को हृदयङ्गम करने के साथ-साथ रचयिता में उत्कृष्ट कवित्वशक्ति, असाधारण पाण्डित्य, भाषा पर पूर्ण अधिकार एवं नवीन अर्थों को उद्भावन करने वाली प्रतिभा की परम आवश्यकता होती है। वह इसलिए भी कि दूसरे की पदावलियों को उनके भाव, अर्थ एवं लालित्य के गुणों के साथ अपने ढांचे में ढालना अति दुष्कर एवं उलझनों से भरा कार्य है और उसमें सफलता के लिए उपर्युक्त गुण होना अति आवश्यक है। जो कवि मूल पदों के भावों के साथ अपने भावों का जितना अधिक सुन्दर संमिश्रण कर सकता है और ऐसे कार्य में सहज प्राप्त होने वाली क्लिष्टता और नीरसता से अपने काव्य को बचा सकता है, वह कवि उतनी ही अधिक मात्रा में सफल कहलाने का गौरव प्राप्त कर सकता है। जिस पादपूर्तिकाव्य का अध्ययन करते समय काव्यमर्मज्ञ भी पादपूर्ति का भान न कर मौलिक उत्कृष्ट काव्य का रसास्वादन करने लगे, वहां ही कवि की सफलता है।
ऋषभ भक्तामर
शांति भक्तामर
नेमिभक्तामर (प्राणप्रियकाव्य)
मिभक्तामर जैन धर्मवर स्तोत्र
वीरभक्तामर
सरस्वती भक्तामर
जिनभक्तामर
पूज्यायिकां रत्नमतीं नमामि – डॉ. दामोदर शास्त्री गणेशाष्टकम् - आचार्य गोपीलाल 'अमर'
गोपाल अडणं- डॉ. नेमीचन्द्र 'ज्योतिषाचार्य' अहारतीर्थ स्तोत्रम -- पं. गोविन्द्रदास 'कोठिया' चन्दाद्रुगं चन्द्राष्टकम् -रज्जनसूरि देव
श्री चन्द्रसागर स्तुतिः
पं. इन्द्रलाल शास्त्री श्री रत्नमतीमातुः स्तुतिः - कु. माधुरी शास्त्री विद्यासागर स्तवनम् पं. भुवनेन्द्रकुमार जैन, खुरई सरस्वती वन्दनाष्टकम् - पं. दयाचंद साहित्याचार्य अहारतीर्थ स्तवनम् - पं. बारेलाल जैन ' राजवैद्य'
भक्तामर स्तोत्र पर पादपूर्ति के रूप में प्रमुख स्तोत्र
आत्मभक्तामर
श्री वल्लभ भक्तामर
कालू भक्तामर
सुन्द्रभक्तामर
तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2002
-महोपाध्यायसमयसुन्दर (चतुर्थ चरण की पादपूर्ति) - लक्ष्मी विमल (चतुर्थपाद की पूर्ति )
- रत्नसिंह सूरि भावप्रभसूर
धर्मवर्धन गणि धर्मसिंह सूरि
अज्ञात
आत्मराग
- विचक्षण विजय
- मुनि कानकल - चतुर विजय
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दादा पार्श्वभक्तामर
--- राजसुन्दर पार्श्वभक्तामर
- विनयलाभ आत्मभक्तामर
----- आत्मराय श्रीवल्लभ भक्तामर
--- विचक्षणविजय
कल्याणमन्दिर स्तोत्र की पादपूर्ति जैनधर्मवरस्तोत्र
--- भावप्रभसूरि (चतुर्थचरा की पादपूर्ति वि.सं. 1781) पार्श्वनाथ स्तोत्र
अज्ञात विजयानन्दसुरीश्वर स्तवन – अज्ञात
जैनेतर स्तोत्र-व्याकरणादि की पादपूर्ति शिवमहिम्नस्तोत्र की पादपूर्ति में रत्नशेखरसूरिकृत ऋषभमहिम्नस्तोत्र कलापव्यकरणसंधिगर्भितस्तव - इसमें 'सिद्धोवर्ण समानाय' आदि कलापव्याकरण के संधिसूत्रों की पादपूर्ति में 23 पद्य रचे गये हैं। शंखेश्वरपार्श्वस्तुति – इसके प्रथम चार पद्यों में अमरकोष के प्रथम शोक के चारों चरणों को बड़ी कुशलता के साथ समाविष्ट किया गया है। प्रथम पद्य केप्रथम चरण में अमरकोश के प्रथम थोक का प्रथम चरण, द्वितीय पद्य के द्वितीय चरण में उसका दूसरा चरण, तृतीय पद्य के तृतीय चरण में उसका तृतीय चरण तथा चतुर्थ पद्य के चतुर्थ चरण में उसका चतुर्थ चरण है।
समस्यापूर्ति स्तोत्र काव्य कल्याण मंदिर के पृथक्-पृथक् चरण लेकर कल्याण मदिर स्तात्रों की रचनाएँ की
-आचार्य तुलसी, मुनि धनराज (प्रथम), चन्दनमुनि, श्री धनमुनि कल्याण मन्दिर स्तोत्र की पाद पूर्ति श्रीकालूकल्याणमन्दिर स्तोत्र – मुनि नथमल (बागौर) भक्तामर स्तोत्र की पाद पूर्ति ' श्री कालु भक्तामर' – मुनि कानमल्ल भक्तामर स्तोत्र की पादपूर्ति श्री कालु भक्तामर' - पं. गिरधर शर्मा कल्याण मन्दिर की पादपूर्ति ( श्री कालु कल्याण मन्दिर स्तोत्र) --- पं. गिरधर शर्मा कल्याण मंदिर और भक्तामर की पादपूर्ति श्री कालु भक्तामर' - मुनि सोहनलाल
इस प्रकार द्वितीय शताब्दी से लेकर बीसवीं शताब्दी तक जैन कवियों ने संस्कृत में स्तोत्रों का प्रणयन कर स्तोत्र परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखा तथा सहस्राधिक स्तोत्रों की रचना कर संस्कृत जैन स्तोत्र परम्परा के विकास में अपना अभिनन्दनीय अवदान दिया।
अनेक ऐसे स्तोत्र काव्य हैं, जो बिखरे पड़े हैं। अनेक तो ऐसे हैं, जिनका इतिहासग्रन्थों में वर्णन तक नहीं है। इस लघु-निबंध में सभी स्तोत्रों के नामों का संग्रह संभव नहीं। कुछ स्तोत्र तो मात्र चार-पाँच पद्यों के रूप भी लिखे गये हैं जिनको इस संग्रह में स्थान नहीं दिया गया है। वस्तुतः यह विषय स्वतंत्र शोध-प्रबन्धन की अपेक्षा रखता है।
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संदर्भ ग्रंथ सूची 1. ऋग्वेद-1.84.2.6.34.1. 10.31.51, 8.27.21
शतपथ ब्राह्मण -----7.5.2.39 रामतापनीयोपनिषद् -30 निरुक्त ---- 7.1, 3.7 वही-7.11
वाल्मीकी रामायण बालकाण्ड 15/32. अयोध्याकाण्टु 65/3, युद्धकाण्ड 105/4,5 7. महाभारत शांतिपर्व 284/56, 337/3, भीष्मपर्व 23.2, 3 8. श्रीमद्भागवतगीता 11/21 9. विष्णुपुराण 20/14. श्रीमद्भागवतपुराण 3.12.37. 3.29.16, 4.9.15 10. श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन — डॉ. हरिशंकर पाण्डेय, पृष्ठ 55 11. तत्रैव, पृष्ठ 56 12. तत्रैव, पृष्ठ 57 13. तत्रैव पृष्ठ 58 14. संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान -... 'डॉ. नेमीचन्द शास्त्री, पृष्ठ 60 15. तत्रैव 16. पाणिनी अष्टाध्यायी 3.3.94 17. संस्कृत हिन्दी कोष - वामन शिवराम आप्टे, पृष्ठ 1135 36 18. तत्रैव 19. तत्रैव 20. अमर कोष 1.6.11 21. हलायुध कोश, पृष्ठ 725 22. बाणभट्ट के शब्दरत्नाकर शोक 1180 23. वैजयन्ती कोश 2.3.35 24. संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान – डॉ. नेमिचन्द शास्त्री, पृष्ठ 55 25. तत्रैव, पृष्ठ 68 26. स्तोत्रावली --- भूमिका, भू.ले. डॉ. रूद्रदेव त्रिपाठी, पृष्ठ 52 27. तत्रैव 28. संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान – डॉ. नेमिचन्द शास्त्री, पृष्ठ 68 29. आप्त परीक्षा, चीर सेवा मंदिर, सरसावा, 1947 ई. प्रस्तावना। 30. जिनसहस्रनाम स्तोत्र ---- पं. हीरालाल कृत हिन्दी अनुवाद, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, सन् 1954 31. स्तोत्रावली – भूमिका भू. ले. डॉ. रूद्रदेव त्रिपाठी, पृष्ठ 52 32. तत्रैव 33. तत्रैव 34. कल्याणमंदिर स्तोत्र, श्रीक 39, 41
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35. तुलसी प्रज्ञा
36. तत्रैव
37. जैन स्तोत्र सन्दोह भाग 1 2. सम्पादक मुनि चतुरविजय, प्रकाशक साराभाई मणिलाल नवाब, प्रथम
भाग
38. तत्रैव प्रो. कपूरचन्द जैन, खण्ड-8 अंक 46
39. संस्कृत काव्य के विकास में बीसवीं शताब्दी के जैन मनीषियों का योगदान
-प्रो. कपूरचन्द जैन, खण्ड - 8, अंक 4-6, पृष्ठ 53 श्रीमती संगीता मेहता, खण्ड 15, अंक 4 मार्च 1990
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सहायक ग्रंथ -
श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन - डॉ. हरिशंकर पाण्डेय संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान - डॉ. नेमिचन्द शास्त्री संस्कृत काव्य के विकास में जैन मनीषियों का योगदान - डॉ. नरेन्द्रसिंह राजपूत तुलसी प्रज्ञा
संस्कृत काव्य के विकास में चूरू मण्डल का योगदान - डॉ. चन्द्रलेखा शर्मा
डॉ. नरेन्द्रसिंह राजपूत
शोधकर्त्ता
जैन विद्या एवं तुलनात्मक धर्म तथा दर्शन विभाग जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) लाडनूँ - 341306 (राजस्थान )
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Chapter-1 Comprehension and Abandonment of
Weapon of Injury
Section-2
1.13 alte loe parijunne, dussambohe avijanae. Alicted intend is the world, hapless (poor), difficult to instruct, ignorant. Bhagyam Sutra 13 The query about the nature of the person who indulges in acts of violence has been here answered by the Lord: In this world the afflicted, hapless (poor), difficult to instruct and ignorant person indulges in acts of violence. Alllicted - It means the person suffering from defilements arising from the objects of senses, passions etc. There are two kinds of afflictions: Physical and psychical. One who is in anguish on account of the objects he has failed to obtain or has been deprived of is physically afflicted. The person overwhelmed by anger etc. is psychically afflicted'. Hapless (Poor) – It refers to the person striken with poverty, that is, one having desires which are unfulfilled. Difficult to instruct - One who cannot be enlightened by a thousand and one arguments. Ignorant - One who does not know the truth. A casual chain can be discerned among these concepts. The afflicted becomes the hapless; the hapless is difficult to instruct because of his dull intelligence. One who is difficult to instruct is ignorant because of his being impervious to the knowledge of the truth.
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1.14 assim loe pavvahie.
In this world, thus afflicted, miserable indeed are the people.
Bhasyam Sutra 14
The person of above mentioned character is subject to suffering. He cannot earn what he wants without indulging in violence. That is why he is engaged in acts of injury to life.
1.15 tattha tattha pudho pasa, āturā paritävemti.
Look, with different intentions and purposes, passionate people are indulging in acts of violence.
Bhāṣyam Sutra 15
The Lord invites the disciple to look for himself: Only the person afflicted with anguish and anger are engaged in various undertakings such as putting up dwelling places and the like involving injury to life. Afraid of death. they inflict violence on earth-bodied creatures, guided by the principle that a living being is an indispensible source of life to another living being. Similarly, the passionate persons dominated by desires for the sensual objects torture the earth-bodied beings to satisfy their own hankering after those objects.
1.16 samti päṇā pudho siyā.
There are beings inhabiting individual bodies.
Bhasyam Sūtra 16
The earth-bodied beings live in individual bodies. It is not possible to have an insight into the urge for violence until and unless the nature of soul is known. This applies to the principle of ahimsa too. It is, therefore, necessary to have a firm knowledge about soul to start with. Lord Mahāvīra propounded the doctrine of six classes of souls, namely, earth-bodied, water-bodied, fire-bodied, air-bodied and plant-bodied, and the mobile creatures". In the present section the comprehension of the nature of violence to the earthbodied beings is explained. This thesis is: There is life in the elements of earth too. The heretical teachers of those times refused to believe that earth had life. The thesis was a novel theory. There are beings living in 'individual' bodies, that is, separate bodies of their own. The Vrtti gives another meaning of 'living in different bodies' which is 'living in the bodies made of earth'.
The present chapter started with the description of the earth-bodied beings and the like instead of speaking of the humans. This is because, the central theme of the Acaränga is the principle of soul in general. The main concern
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of the chapter is the exposition of the equality of all souls, starting from the earth-bodied beings which resemble the soul in human beings'. There is no discrimination about the nature of soul, the distinction being only in respect of the degree of their knowledge, intuition etc. owing to the difference in the karmic veils that cover or distort them. 1.17 lajjamānā pudho pása. Look at self-restrained people, ashamed of their violent activities. Bhajyam Sutra 17 Look at the people who are ashamed of violence, because it is a form of nonrestraint: they refrain from violence. Some people among the multitude worldly life and abstain from injury to earth-bodied organisms. This is indicated in next sutra. 1.18 añagārå motti ege pavayamāņå. 1.19 jaminam viruvarūvehimsalthehim pudhavi-kamma-samara
mbhenam pudhavi-sattham samārambhcmāņe anne vanegarūve
pane vihinsati. 11.18. 1.19) Some people style themselves homeless mendicants, though indulging in violent actions to carth-bodied beings with various weapons, which involve destruction of various other classes of beings. Bhāșyam Sūtras 18,19 Some people though declaring themselves mendicants, do not abstain from injury to earth-bodied organisms. Here the sūtra says that if the householder does not desist from injuring the earth-bodied beings, there would be nothing unusual. But if even the mendicants do not abstain from such acts, that should be a matter of great surprise. The self-restrained activities should also be properly guarded to the best of one's capacity. The person who destroys the earth-bodied organisms by a variety of weapons also kills other creatures that infest the earth. Thus it is said: A person killing the earth-bodied organisms also kills the creatures living there, such as various kinds of mobile beings, visible or invisible". How could such person be a mendicant? A sastra (weapon) is so called because it is an instrument of violence śasyate yena). Such weapons include plough, spade, shovel, etc. Here the word sastra (weapon) deserves further consideration. The weapon is of Iwo kinds: material and mental. The instrument that kills is material weapon, while the attitude of non-restraint that is responsible for such killing is a mental weapon". The Sthānānga (the third book of Inner Corpus) gart UFI BTA - fyra, 2002 C
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says". the material weapons comprise fire, poison, salt, oil, soda and sour soil; the mental weapons are non-abstinence and ill-applicd thought, word and deed. In the following three kinds of material weapons, the mental ones are to be understood by implication: (a) Homogeneous weapon - for example, black soil is the weapon for the
yellow soil. Here the soil is the weapon causing injury to another kind
of soil. (b) Heterogeneous weapon – for example, fire (burning the carth). (c) Mixture of both — for example, water mixed with earth, a weapon that
kills earth. 1.20 tatha khalu bhagavayā pariņņā paveiyā. On this subject, the Lord has propounded the principle of comprehension and abandonment. 1.21 imassa ceva jīviyassa, parivamdana-manana-puyaņãe, jāi-maraņa
moyaņāe, dukkhapadighāyaheum. Longing for survival, praise, reverence and adoration; life and death, emancipation, and elimination of physical and mental suffering. 1.22 se sayameva pudhavi-sattham samārambhai, annehim vă pudhavi
sattham samarambhávci, anne vă pudhavi sattham samāramblamte
samanujänai. He himself indulges in killing the earth-bodied beings or instigates others lo do so, or approves of such killing by others. 1.23 tam se ahiyão, tam se abohie. Such violence is for his harm, is for his non-enlightenment. Bhāṣyam Sūtras 22,23 A householder, though firmly established in the Jina's doctrine, may not always be capable of completely desisting from injury to carth-bodied beings. But if an ascetic himself indulges in injury to earth-bodied beings, or gets such injury done by others, or approves others doing so, that is for his harm, being an impediment to his attaining enlightenment. He cannot get enlightenment, consisting of knowledge, faith and conduct for a long time. This is surely a great harm to his well-being. 1.24 se tam sambujjhamāṇe āyāṇīyam samut/hãe. The ascetic comprehends the result of violence and applies himself to the practice of self-restraint.
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Bhagyam Sutra 24 The ascetic who rightly comprehends the nature and result of injury to earth-bodied organism, has prepared himself for the practice of selfrestraint. The word adânīya in the sūtra, rendered as self-restraint, has several other connotations. 1.25 soccà khalu bhagavao anagarānam vă amite ihamegesim nātam
bhavali-csa khalu gamthe, çsa khalu mohe, esa khalu mare, esa
khalu narae. Hearing from the Jina or other ascetics, some people come to know: such violence is indeed a knot, is delusion, is death, is hell. Bhasvam Sutra 25 The person who is ignorant of the consequences of violence cannot practice non-violence. Here the sūtra indicated the way to enlightenment. On learning the truth directly from the Jina, the enlightened one, or learning it from other ascetics, the wisdom arises: violence binds the minds of the living beings and so it is called knot; it stupefies their minds and so it is called delusion; it takes away their life and therefore it is called death; it causes immense pain to them and therefore it is called hell. 1.26 iccattham gadhie loe. Nevertheless, the people entrapped in pursuit of pleasure (indulge in violence to carth-bodied beings). 1.27 jaminam virūvarūvehim satthehim pudhavi-kamma
samārambhenam pudhavi-sattham samārambhemāne anne
venegarūve pane vihimsai. They indulge in violent actions to carth-bodied beings with various weapons which involve destruction of various other classes of beings. Bhāșyam Sūtras 26-27 If violence mcans knot, delusion, death and hell, who will engage in violence (and for whal purpose)? The answer is provided by the sūtra, pointing out that the people entrapped in worldly pleasures and comforts are inclined to injury to carth-bodied beings and to the beings infesting the earth. See Sutra 19. 1.28 se bemi — appege amdhamabbhe, appege amdhamacche. Thus I say; some body picrces or cuts the blind (earth-bodied beings that have the feeling of intense pain like that of the human beings born blind, deaf, dumb, lame and deficient in other limbs).
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The doubt might arise are the earth-bodied objects living organisms? For the knowledge of subtle entities, extra-sensory perception is the only way. But the ancient authors have advanced some arguments to prove their existence. There is the sign of consciousness, such as replication, in the earth-bodied objects like the growth of a homogeneous slab in the rock, just as in the sprouts of the flesh of hemorrhoid1".
In his Pañcāstikāya, Acārya Kundakunda has advanced the following arguments in order to prove the animate character of one-sensed beings: even as the animate character of the substances in an egg or in an embryo or in a person in coma is accepted, though there is no perceptible intelligent activities in them, exactly so the animate character of one-sensed being is to be admitted. There is similarity of the non-perceptibility of intelligent behaviour in the one-sensed being on the one hand and the five sensed onc inside the egg11.
11
Modern geologists also agree that rocks, mountains etc. undergo growth and decay. They suffer fatigue, metabolism and death that are sure signs of life.
As the consciousness in the aforesaid entities is unmanifest, they are not easily identifiable as living beings, like the creatures in whom consciousness is manifest. Lord Mahavira did not propound mere consciousness in the earth, but he disclosed many other facts about them as listed below:
(i) Respiration
"O Lord" asked Gautama, "we do not perceive respiration in the earthbodied organisms, nor do we know about it in them. Do they really inhale or exhale?"
"O Gautama", answered the Lord, "they can inhale and exhale from all the six directions, if there is no obstruction in any one of them. But in case there is obstruction, they can do so from only three, four or five sides according to circumstances.'
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(ii) Senses (Karaṇas)
"O Lord!" asked Gautama, "How many means of action (Karaṇas) are there in one-sensed beings?"
"There are two", said the Lord, "corporeal means of action and karmic means of action.
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A sense is an instrument through which actions are done or feelings and cognitions are produced. The 'sense' is sometimes identified with the body; sometimes with karma; sometimes with the sensual organs; sometimes with
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psychic centres responsible for extra-sensory perception, sometimes with the centres of different sensations. (iii) Sensation Asked Gautama, "O Lord, do the earth-bodied beings feel pleasure and pain through their senses (karanas) or without them''? Said the Lord, they enjoy sensations through senses that are auspicious or inauspicious and not without any sense. Asked Gautama, "O Lord! The non-rational beings like the carth-bodied are blind, deluded, immersed in darkness and subject to non-rational sensations. Is it true?". "O Gaulama", said the Lord, it is true indeed."" (iv) Volume of the body Asked Gautama, "O Lord! how big is the volume of the body of the earthbodied beings?'. "O Gautama'', said the Lord “If a young spouse to the paramount sovereign, with steady forepart of the arm and abdominal might, takes up a lump of earth-bodied beings, puts it on a sharp piece of rock and grinds il with a sharp pestle of stone, as hard as diamond, as many as twenty-one times, even then only a few of the earth-bodied beings are ground and others are not, only a few are hurt and others are not, only a few are tortured and others are not, only a few are louched and others are not. So subtle and superfine is indeed the volume of the body of carth-bodied beings?' (v) Visibility The earth-bodied organisms have very subtle bodies and therefore the bodies of one, Iwo or more such beings are not visible but we are able to see only a big lump of innumerable such beings huddled together." (vi) Enjoyment Gautama: "Do the carth bodicd beings have sexual urge or sensuous feeling?" Lord: "They have no sexual desire, but they have tactile enjoyment of
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(vii) Inilow, etc. Asked Gautama, "Is it true that sometimes the earth-bodied beings are subject to massive inflow, massive urgc, massive experience and massive falling off of karma and sometimes they are subject to mcagre inflow, meagre urge, meagre experience and meagre falling off of karma?” Said the Lord, "O Gautama! This is true."""" a 451 37067 - FFAEZT, 2002 C
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(viii) Ageing and grief Asked Gautama, “Are the carth-bodied beings subject to old age and bewailing?" Said the Lord. "O Gautama! The earth-bodied beings have the feeling of physical pain, and therefore, they have ageing. They have no mental pain and so they have no bewailing." 20 (ix) Frenzy Gautama: "O Lord! How many kinds of frenzy are there?" Lord: "'The frenzy is of two kinds, e.g., due to being possessed by a goblin or due to the rise of deluding karma." Gautama: "O Lord! Is frenzy possible in the earth-bodied beings?" Lord: "Gautama, both types are possible in them.“ When the goblin and the like sprinkle them with inauspicious particles, it is a case of frenzy duc to being possessed by a goblin. When such frenzy occurs due to the maturation of deluding karma, it is called frenzy due to the rise of delusion." Even today such frenzy is visible in diamonds inhabited by the evil spirits.22 There are also some houses haunted by goblin. 23 (x) Instinct Gautama: "Lord, how many kinds of instincts are there?" Lord: “Gautama, there are ten instincts. e.g., food, fear, sex, possession, anger, pride, deceit, greed, mundane & collective." Gautama : "Lord, how many instincts are there in the earth bodied beings?” Lord : There are all the ten instincts" (xi) Knowledge Both the two varieties of knowledge – sensual and articulate are tacitly present in them. They have the power of grasping the vibrations caused by the speech and mind of the humans beings, although it is not possible for the one-sensed beings to listen to the instructions given by others; even then they have a kind of tacit linguistic potential on account of a peculiar type of elimination-cum-subsidence of relevant karma due to which articulate knowledge associated with liguistic symbol arises. The carthbodied beings have the desire for food, which is a kind of wish like – if I get the food, it would be beneficial to me." Such wish is certainly informed with linguistic symbol however inarticulate. It is reasonable therefore lo admit that the earth-bodied beings have the tacit language potential.“
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In the earth-bodied beings there is only a tacit and undeveloped mind owing lo which there finds manifestation in them only indistinct instincts of food and the like.2The knowledge of the one-sensed beings is the least manifest like that in a person who is mad, fainted or poisoned. ?" (xii) Food Gautama: "Lord, al what intervals do the carth-bodied beings hanker after food?'' Lord: “Gautama, they hanker after food every moment without break. They consume food by the entire surface of their body, transforming all old properties viz. colour, taste etc., into new ones." (xii) Modes Gautama: "Lord, how many modes are there in earth-bodied beings?” Lord: "Gautama, they undergo infinite number of modes which mutually vary between a set of six extremes with regard to infinite, innumerable and numerable parts lesser, and infinite, innumerable and numerable times lesser; another set of six extremes with regard to infinito, innumerable and numerable parts greater, and infinite, innumerable and numerable times greater in respect of colour and the like and also knowledge and
intuition, 30 31
(xiv) Invisibility to sensuous knowledge Even as in a plant there is fine viscosity due to which its body is nourished by means of food that it intakes, although the process is invisible on account of its finencss, just so there is very subtle viscosity in the earth-bodied organism which is not perceptible to our sense-organs." (xv) Passions The passions of anger, pride, etc., are also there in the earth-bodied beings, but they are too subtle to be perceived by persons endowed with the power of sensory perception alone. The humans curse, blame and frown on the rise of anger. But the carth-bodied beings are not capable of exhibiting such signs when thcy are angry.** (xvi) Psychic Colouring (lesya) There are four psychic colourings in the earth-bodied beings: blatk, blue, gray and fiery." This shows that even though they have no mind, they are subject to peculiar transformations which find vent as aura. JA 51 37067 -- ftate, 2002 C
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Purport of the Sūtra
Here a question arises: The earth-bodied beings can neither hear, nor see. nor smell, nor move. How can then we believe that they have pleasurable or painful sensation?
The Lord explained the problem through three examples. The first example- Just as the dumb cannot articulate his pain however intense, when cut or tortured, likewise the one-sensed being like the earth-bodied organism feels pain though it is incapable of articulating it on account of his being bereft of any other sense-organ to express it. The Curni on this sūtra refers to a five-sensed individual who was absolutely incapable of movement, aga. He was the son of Queen Mrgā, and called Mrgaputra. He was like a lump of earth experiencing extreme pain." The earth-bodied beings are comparable to him in respect of their feeling of pain."
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1.29 appage payamabbhe, appage payamacche, appege gupphamabbhe, appcge gupphamacche, appege jamghamabbhe, appeage jamghamacche, appeage jāņumabbhe, appeage jāņumacche, appeage ūrumabbhe, appege urumacche, appege kadimabbhe, appege kadimacche, appege nabhimabbhe, appege nabhimacche, appege uyaramabble, appege uyaramacche, appege păsamabbhe, appege pasamacche, appege pitthamabble, appege pitthamacche, appege uramabbhe, appege uramacche, appege hiyayamabbhe, appege hiyayamacche, appege thanamabhe, appege thanamacche, appege khamdhamabbhe. appege khamdhamacche, appege bāhumabbhe, appege bähumacche, appege hatthamabbhe, appege hatthamacche, appege amgulimabbhe, appege amgulimacche, appege nahamabbhe, appege nahamacche, appege givamabble, appege givamacche, appege hanuyamabbhe, appege hanuyamacche, appege hotthamabbhe, appege hotthamacche, appege damtamabbhe, appege damtamacche, appcge jibbhamabbhe, appege jibbhamacche, appege tālumabbhe, appege talumacche, appege galamabbhe, appege galamacche, appege gamdamabbhe, appege gamḍamacche, appege kannamabbne, appege kannamacche, appege näsamabbhe, appege näsamacche, appege acchimabbhe. appege acchimacche, appege bhamuhamabbhe, appege bhamuhamcche, appeginiḍālamabbhe, appege niḍālamacche, appege sismabbhe, appege
sisamacche.
Some people pierce and cut foot, ankle, leg, knee, thigh, waist, belly, stomach, flank, back, bosom, heart, breast, shoulder, arm, hand, finger, nail, neck, chin, lip, tooth, tongue, palate, throat, temple, car, nose, eye, brow, forehead and head.
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Bhāṣvam Sutra 29 The second example- As in the case of man, endowed with all the senseorgans and with fully manifest consciousness, there arises inexpressible extreme pain, when simultaneously are pierced or cut all his aforesaid thirty-two organs, e.g. fool ankle, etc., exactly so there arise similar extreme pain in the earth-bodied beings too. 1.30 appoge sampamārae, appege uddavae. Sometimes a person is beaten to a state of unconsciousness and sometimes tortured to death.
Bhāsyam Sūtra 30
The third example – Just as when a person is led into a state of unconsciousness and put to death, he feels a kind of indistinct pain in the state of unconsciousness, and while dying also; exactly so the earth-bodied beings experience pain on account of their consciousness being dim due to the rise of extremely drowsy slumber. Beating into the state of the unconscious can be compared with calcination of mercury, as it has been said that the calcination of mercury is a kind of death." It is also said that the mercury when calcified cures diseases. In other words, by getting dead, it onlivens others. Il removes the ailments of the patients afflicted with serious diseases. In Sanskrit, the name : pārada' (lit. leading to the other end) is significant as leading from death to life. In the Bhagavati Sutra also, pain has been shown to exist in the earthbodied beings: Gautama: "Lord, what kind of pain do the earth-bodied beings experience when injured with weapon?” Lord: "Gautama, what sort of pain does an aged and decrepit person experience when struck on the head by a strong and hefty youth with his fist?" Gautama: "O long-lived ascetic! He feels excruciating pain." Lord: "Gautama, the carth-bodied beings, when struck, feel a pain that is much more excruciating." 1.31 ettha sattham asamārambhamāṇassa iccole armbhă apariņņātă
bhavamti The person thus indulging in acts of violence does neither comprehend nor abandon them. 1.32 eltha sattham asamārambhamāṇassa iccete ärambhä parinņātā
bhavamti TerHT WENT 3T05 - Habae, 2002 C
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The person not indulging in acts of violence is capable of comprehending and abandoning them. Bhāsyam Sūtras 31, 32
A person, ignorant of the reality of carth-bodied beings and their pain, indulges in injuring them. Such person cannot abandon the habit of indulging in such violence.
The person who has made the correct estimate knows the soulhood and the pain of the earth-bodied beings and does not indulge in injury to them. He has indeed given up the attitude of violence towards these beings. As ascetic initiated into the discipline of Lord Mahăvira abstains from violence to the earth-bodied beings. His clear comprehension of the souls and their feelings of pain is the chief reason of abstinence 1.33 lam parinnāya mehāvi neva sayam pudhavi-sattham samarambhejja
ncvannchim pudhavi-saltham samārambhåvejjă, nevanne
pudhavi-sattham samarambhamle samanujänejjā. Comprehending this, an intelligent ascetic should not indulge in violence to earth-bodied beings, nor should he instigale others to do so, nor should he approve of such violence committed by others. Bhaoya Sutra 33 There may be many aspects of an act of commission. According to the Jaina philosophers, there are three such aspects: to do oneself, to get done by others and to approve of such acts. Here the one is enjoined to desist from killing earth-bodied beings in these three ways.
1.34 jassete pudhavi-kamma-samārambhă parinnālā bhavamti, se hu
muni parinnäla-kamme. -- tti bemi.
The ascetic who comprehends and abandons these acts of violence to the earth-bodied beings is indeed an ascetic who has fully comprehended and abandoned all acts of violence. Bhajyam Sutra 34 The scriptural dictum 'knowledge first and then practice' is followed in the case of violence to earth-bodied beings, which is to be understood by comprehension-qua-knowledge and given up by comprehension-quaabandonment. The comprehension thus has two aspects, namely, as cause and as effect. Comprehension as cause is the knowledge and comprehension as effect is the abandonment. The monk who knows the act of violence to the earth-bodied beings and abandons such violence is comprehender of the act of violence."
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3.
4. Angasuttani II, Bhagavai 19.5: siya bhante! jäva cattari pamca pudhavikkäiyā, egayao sadharanasariram bamdhamti, bamdhittà tao paccha aharemti va pariṇamemti vā sariram va bamdhamli?
5.
6.
Brhatkalpabháṣya, Gatha 1251. Vrtti
Silamkavṛtau, assim loc itipaithasya arthaḥasmin pṛthvikayaloke iti kṛto'sti (À Vṛ. Patra 32) clam sammukhikrtya yadi cintayamastada prathama sutravarti loka padasyapi prthvikayaloka ilyartha ḥkarttum sakyah. tatah dve api sutre (13, 14) evam vyäkhyalavye bhavalaḥ -- ayam pṛthvikayalokaḥ karmaṇa ärttaḥ, audayikabhāvena parijirṇo bhavati. Vṛtau likhitamastiyavanartaḥ sa sarvo'pi paridyuno nama paripelavo nissarah (À Vr. Patra 32) tatha ārltalvat parijirnatvaccasau lokah dussambodhah dussambodhatvacca avijñayako bhavati asmin pṛthvikayaloke pravyathite sarvarambhasya tadasrayatval aturástatra tatra imam pṛthvikayalokam paritapayanti.
asau vyakhyanayo'pi samicinaḥ pratibhati yadimam vyākhyan yam svikurmastadā'samti pana pudhosiya, (1.16) ityasya dvitryo rthah prthak śritah praninah iti adhisamgacchate. Dasaveäliyam, 4.3
7.
no inatthe samatthe. pudhavikkäiyä patteyahará patteyaparinama palleyam sariram bamdhamti, bamdhitta tao paccha aháremti va parinamemti va sariram va bamdhamli.
See the sutras dealing with sense of equality Ayaro, 1.28, 30, 51-53, 82-84, 110
113, 137-139, 161-163.
Dasaveȧliyam 6.27
pudhavikāyam vihimsamto, himsai u tayassic tase ya vivihe pane, cakkhuse ya acakkhuse
Acaranga Curni, p. 22: pudhavisatthamti pudhavimeva sattham appano paresim ca, haladinbi va pudhavisatthäni.
kimci sakayasattham kimci parakaya tadubhayam kimci, cyam tu davvasattham, bhave u asamjamo sattham.
8. Acaranga Niryukti, gathā, gatha 96
9. Thanam, 10.93:
satthamaggi visam lonam, sineho kharamambilam. duppautto mano vaya, kão bhavo ya avirati.
10. Daśavaikälika Haribhadriya Vṛtti, patra 139: samanajaliyamkurotpattyupalambhat
devadattamāmsamkuravat.
11. Pancastikaya, gatha 113:
amdesu pavaddhamta gabbhattha manusa ya mucchagaya.
järisaya tärisaya jivā egemdiya neyā.
12. Angasultani II, Bhagavai 2.2-5: je ime bhante! beimdiyá teimdiyâ caurimdiya pamcimdiya jiva cosi nam ānāmam và panamam và ussasam và nissāsam và jānamo pāsamo.
je ime pudhavikāyā jāva vaṇapphaikaiya-engimdiya jivä cesi nam äṇāmam vā pāṇāmam
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va ussäsain và nissasam vá na yanamo na pasamo. cenam bhante! jivá anamamti va? pāņāmamti va? üssasamli va? nissāsamliva? ... hamla goyama! ec vi nam jiva āņāmamli vä pānamamli va ussasamli vă nissasamli vă. eenam bhanle! jivá kaidisam anamamli va? panamamti va? ussasamliva? nissāsamti vä? goyama? nivvaghacnam chaddisim, vägháyam
paducca siya tidisim siya caudisim siya pamcadisim. 13. Angasutlani II, Bhagavai, 6.7: egimdivanam duvihe -- kayakarane ya kammakarane ya. 14. Ibid, Bhagavai, 6.13 : pudhavikaiyánam cvámeva pucchá, navaram . iccecnam
subhasubhenam karancnampudhavikaiya karanao vomāyāc vedanam vedemli, no akaranao. 15. Ibid, Bhagavai, 7.150 : je ime bhanic! asapņiņo pāná jahả --- pudhavikaiyá jāva
vanassaikāiyā, challha ya egaliya tasa -- ce nam andhá, mudha tamampaviltha, tamapadalamohajäla-padicchanná akamanikaranam vedanam vedemtiti vallavvam siya?
hamla goyama! je imc asannino pāņā jāva vedanam vedemliti valtavvam siya. 16. Ibid, Bhagavai, 19.34 : pudhavikäiyassa ņam bhante! kemahāliya sarirogāhana pannalta?
goyama! se jahanamac ranno cauramlacakkavalțissa vannagapesiyā laruni balavam jugavam juváni appayamka thiraggahattha dadhapani-paya-pasa pilihamlaroruparinata talajamalajuyalaparighanibhabāhū urassabalasamannagayā lamghana-pavana-jaina-vayamasamatthä сheyā dakkhá paltattha kusala mchāvi niuna niunaippovagaya tikkhãe vairāmaic sanhakaranie tikkhenam vairāmacnam valtavaraenam egam maham pudhavikāiyam jalugolásamānam gahaya padisahariya-padisahariya padisamkhiviya padisamkhiviya jāva inamevatti katlu lisatlakkhullo oppisejjā, tatthanam goyamă! althegaliya pudhavikkaiya aliddha atthegatiya pudhavikkaiya no aliddha, tatthanam goyama! althegatiya pudhavikkaiya aliddhå atthegaliyā pudhavikkäiya no āliddha. althegatiyá samghattiyä althcgatiyá no samghaltiyā, althegaliya pariyaviya alihegatiyá no pariyaviya, altheyatiya uddaviya no uddaviya, atthegaliya pittha athegaliyā no pilha, pudhavikaiyassa ņam goyama! cmahaliya
sarirogāhana pannailā. 17. Acāranga Niryukti, galhã 82, 83.
ikkasa dunha tinha va samkhijjāna va na pásium sakka. disamli sarirăim pudhavijiyanamasamkhanam. cchim sarirchim paccakkhamte parūviya humti.
seså anagijja cakkhuphasam na jam imli.. 18. Angasulläni II, Bhagavai, 7.138-142 : jiva nam bhante! kim kami? bhogi?
goyama! jivá kámi vi, bhogi vi. se konalthenam bhante evam vuccai-jiva kámivi? bhogi vi? goyama! soimdiya-cakkhimdiyaim paducca kāmi, ghaṇimdiya-jibbhimdiya-phasimdiyāim paducca bhogi : se tentthenam goyama! evam vuccai -. jivă kami vi, bhogi vi. pudhavikkaiyanam -- puccha. goyama! pudhavikkaiya no kami, bhogi. sc kenalthenam java bhogi? goyamå! phasimdiya paducca. sc tenalthenam jäva bhogi.
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19. Ibid, Bhagava, 19.55 56: siya bhante! pudhavikkäiyä mahāsavā mahakiriyā mahāveyaṇā. mahani jjara?
hamla siya.
siya bhante! pudhavikkaiya appasava appakiriyā appaveyaṇā appanijjarä? 20. Ibid, Bhagavai, 16.30-31: pudhavikaiyaṇam bhante! kim jara? soge? goyama! pudhavikāiyanam jarā, na soge.
se kenatthenam bhantel evam vuccai- pudhavikāiyānam jarā, no soge?
goyama! pudhavikaiyānam sanram vedanam vedemti, no manasam vedanam vedemti.se tenatthenam goyama! evam vuccai-pudhavikaiyāņam jara, no soge.
21. Ibid, Bhagavai, 14.16 20: kalivihenam bhante! ummade pannatte? goyama! duvihe ummade pannatte, lam jaha---- jakkhácse ya, mohanijassa ya kammassa udaenam. tatthanam je se jakkhães se nam suhaveyanatarac ceva suhavimoyaṇatarãe ceva. tattha nam je se mohanijjassa kammassa udaenam se nam duhaveyanatarac ceva duhavimoyanatarac ceva... se tenatthenam jāva... pudhavikakkaiyānam jāva manussāṇam...
22. Sandeśa (Gujarati Daily) 24th July 1983, p.8.
23. Navabharal Time - Annual Edition - Parävidya Ke Rahasya 1973, p.43.
24. Angasuttani II. Bhagavai, 7.161: katinam bhante! sāṇnão pannattão?
goyama! dasa sannão pannattão, tam jahā āhârasanṇā, bhayasanṇā, mchuṇasāṇṇā, pariggahasanna, kohasanna, māṇasanna, māyāsanna, lobhasanna, logasanna, ohasanṇāņi. 25. Ibid, Bhagavai, 8.107: pudhvikkaiya nam bhante! kim nani? annani? goyamā! no nāṇī, annani. je annani te niyama duanṇāni-maianṇāni, suyaannǎni ya.
26. Nandi, Malayagiri Vṛtti, patra 188
27. Ibid. 180
28. Nandi Curni p. 46
29. Pannavanņa, 28.28-32
30. Satsthanapatita........
Hlina
1. anantabhaga hina
2. asankhyatabhaga hina
3. sankhyātabhaga hina
4. sankhyataguna hina 5. asankhyataguna hina
6. ananlaguna hina
31. Pannavana, 5.52-23.
32. Niśithabhaṣya, gatha 4264.
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Adhika
1. anantabhaga adhika
2. asankhyatabhaga adhika
3. sankhyātabhāga adhika
4. sankhyataguna adhika
5. asankhyataguna adhika
6. anantaguna adhika
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33. Ibid, galha 4265:
kohăi parinamă laha, cgimdiyana jamtunam.
pävallam tesu kajjesu, karcum je apaccala. 34. Angasuttaņi II, Bhagavai, 19.6
35. Angasultäni III, Vivågasuyam, 1.1.26 - 41
36. Acāränga Cúrni, p. 23.
37. Bhäminivilāsa, 1.82
38. Angasultanill. Bhagavai, 19.35: pudhavikäic nam bhanic! akkamle samánc kerisiyam
vedanam paccanubhavamänc viharai?
goyama! se jahänămac - kci purise tarune balavam jugavam juvanc appåtamke thiraggahalthe dadhapani-paya-pasa-pilịhamlaroruparinale lalajamalajuyala · parighanibhabāhu cammetthagaduhana-multhiya-samahala-nicilagattakae urassabalasamannagac lamghanapavana jaina vāyáma-samatthe chce dakkhe pattalțhe kusale mchävi niunc niunasippovagae egam purisam junnam jarajajjariyadcham auram jhusiyam pivasiyam dubbalam kilamlam jamalapāniņa muddhānamsi abhihae samāne kerisiyam vedanam paccanubbhavamane viharali? anitthham samanāuso! tassa nam goyama! purisassa vedanahimlo pudhavikaic akkamle samāncetto anitthalariyam ceva akamtatariyamappiyalariyam asuhatariyam amaņunnatariyam amaņāmatariyam ceva vedanam paccanubbhavamane viharai.
39. Dasavcăliyam, 4.10: padhamam nanam lao daya.
כהה
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PRESIDENTIAL ADDRESS*
-- Mahamahopadhyaya Haraprasad Sastri
M.A., C.I.E. F.A.S.B.
My friends in Calcutta have asked me to take charge of the Sanskrit and Prakrit Section of this Conference. They should have selected a better man for the purpose, one who has made the study of the languages and literatures his life work. The subject is too vast for one man. The languages themselves are a hard study not to mention the vast number of works written in them. The time at my disposal is very short, and the notice I received of my appointment was not adequate to do full justice even to one literature or one language, and I have to say something on two languages and two literatures. Under the circumstances, fail I must, but I have faith in the forbearance of my audience.
There were scholars in the early part of the 19th century who thought Sanskrit to be a forgery of the Brahmins, and there were many in that century who thought dramatic Prakrit to be a forgery. In the Calcutta University, questions are still asked in higher examinations whether Sanskrit or the Prakrit was over a spoken language.
Happily such ideas have not taken a great hold on scholars generally, and there is a strong desire to investigate the origin of the languages derived from the Indo-Aryan language of the Vedas. So long as the Aryan Society was confined to the Rsis and their families of seltled Aryans, the Vedic language did not change much. But after some centuries of Aryan settlement in the Antardeśa, that is, the country lying between Allahabad and Lahore, there came
Published in the Procedings and Translations of the Second Oriental Conference in Calcutta, January 281h to February Ist, 1922.
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another influx of roving Aryans, who in a short time not only overran the entire length and breadth of the country, lying between the Vindhyas and the Himalayas, but also made their influence felt in the Antardesa itself. The settled Aryans found it difficult to maintain their position, their civilization and their culture, and so they devised a plan of incorporating on equal terms this vast body of roving Aryans amongst them. This was done by a ceremony of purification, called Vrālyastoma which forms such a prominent feature of the later Brähmanas and Sūtras. This incorporation of a vast extra population however skin to themselves meant a vast change in the language. The Vedic Sanskrit began rapidly to change. The Lakāra let gradually disappeared. The varicd infinitives of the Vedic language gradually dwindled into one form and infinitives began lo be indicated by other forms of expression, such as gerunds, and so on. This, I believe, is the reason why the language of the Aranyakas and the Upanisads look so different from the earlier Brāhmaṇas and the Rgveda. But it was not yet Sanskrit. When the Aryans had settled their inter-tribal affairs on a satisfactory basis, and the incorporated nomad Aryans had formed one body of Aryans with the carlier settlers, there began a process of Aryanizing the non-Aryan population, imparting Aryan civilization. Aryan culture, Aryan thoughts and Aryan ideas to the black population, some of whom had a civilization and culture of their own. This produced a chaos in the languages – a veritable Babel of tongues. The upper strata of the society showed a leaning to the Vedic form of speech and the lower strata to the non-Vedic form. The Dictionary became richer, but the language began to lose the angularities of inflexions, infinitives, suffixes, tenses and moods. Al this stage, thoughtful Aryans found it necessary to formulate rules for the language of the higher class Aryans and grammars began to be wrillen. Grammatical language was regarded as Samskrila and the non-grammatical Prākrita. Even this, I think, is a later stage. In the earlier stages of the altempt to Aryanize the Indian clement, the pronunciation was a very great stumbling block. The Indian element unable to pronounce the Aryan speech began to soften them down, and the Aryans to preserve their own pronunciation began to formulate rules. The same word was pronounced by the Aryans in one way and by the Indians in another. Thus the process began with the pronunciation and not with language. In a chapter of the Bharata Nātya Sastra dealing with language and pronunciation, with Bhāșă and Patha, we find that there were two different Pathas or modes of pronunciation, the Samskrta and the Prakrta. The meaning, of course, is that the same word, the same sentence, the same verse had two
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pronunciations, Samskrla and Prakrla, and in the earlier stages of Buddhist literature, we often find the same verse pronounced in two different ways. This is the reason why we get works like the Dhammapada both in Sanskrit and in Prakrit. In prose, it is difficult to discern whether it is the pronunciation that differs or the language. But in verse when the metre is the same, it is casily discerned that it is the pronunciation that differs and not the language. A study of the Sanskrit and the Pali Buddhist literature will easily bear out my point.
The amalgamation of the settled and the roving Aryans and the Aryanization of the Indian element, produced, as I have said before, a chaos in the languages and pronunciations. But it also led to the great upheaval of the Indian mind in the 8th and the 7th centuries B.C. - an upheaval which produced Buddhism, Jainism, the Six Heretical Systems, and if I may be permitted to say, the classical Hinduism - the Hinduism of the Puranas and the Smrtis. Everyone wrote in the dialect of his district, of his tribe and of his race. That is the reason why it makes it exceedingly difficult to study the literature of this period. Much of that literature perished in later times owing to the difficulty of understanding the language.
It is after the 6th century B.C. that people began to think of nationalization or imperialization. The small kingdoms, tribal dominions and race governments began to coalesce into one harmonious nationality. The 5, the 4"", the 3rd, and the 2nd are the centuries in which the classical Aryan speech was settled by the exertions of men like Pāṇini, Kātyāyana, Vyādi, Gālava, Sakaļāyana, Patañjali and others. Patañjali distinctly says that he legislates for the Brahminic speech, -- the speech of the Sistas, meaning well-to-do Brahmins of Northern India, well-versed at least in one of the sciences of the time. The language of the Smrtis and the Puranas was examined by them and many forms were absolutely prescribed. They made the specch Samskrta or 'purified' but their influence was limited to the Brahmins. But what did the non-Brahmins do?
They were not idle. In the 4th century B.C. the Jainas made a comprehensive collection of their literature in a language intermediate between Sanskrit and the Prakrit in which their books subsequently came to be written. The comprehensive name of this collection was Purvis. They not only collected written literature but they took great pains to collect oral literature also. Some works were not known to the collectors at Pāļaliputra, being known only lo anchorites in the Himalayas. Men were sent lo the anchorites to get these works dictated to them. But the Purvis are all lost now. But when they were collected at Pataliputra, we can confidently say Joh 311 310 - fasak, 2002 C
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that they were all reduced to the language of Pāțaliputra, prevalent at that time among the classes of men, from which Jaina monks were recruited. A thousand years later the whole Jaina literature was again collected and revised in the language of the time under the superintendence of Devardhigani. The little of the Purvis that were still extant disappeared from that time, --and we have absolutely no means of knowing the structure of the language in which the Purvis were written. But reading through the literature revised by Devardhigani we often meet with forms and expressions belonging to the older language. He and his co-adjutors did not venture to change those maxims and expressions which had become the common property of the Jainas, – and through these only we have a peep into the language of the previous literature. One who has seen the Bengali of the early 19th century will be struck with many older forms, even Sanskrit forms, in the language of writers. The present day Urdu has often Arabic and Persian words and phrases, so to say, imbedded in it. That is the case with the language of Devardhigani in relation to the Purvis.
Coming to the Buddhists we feel that we are on more firm ground. We do not know in what language Buddha and his followers preached. There is a diversity of opinion amongst scholars as to the dialect of the early preachers of Buddhism. But hundred years after the death of Buddha, that is in the second century of the Buddhist Era there was a schism. The majority was known as the Mahāsamghikas. Some of their books have come down to us and this is written in Misrabhāsā, that is, in a language in which Sanskrit forms are freely mixed up with the vernacular forms. This Miśrabhāsā was most likely the language in which the literature of the Mahasamghikas was written. In two or three centuries the Mahāsamghikas developed into the Mahāyāna School, and we find that in all early Mahayana books the subjects are treated in Sanskrit prose of a sort, but the authorities are cited at the end of each chapter in verses written in the mixed language. And I have reasons to think, that the prose portions of Lalitavistara, Saddharmapunda rika and others were originally written in mixed language too. Scholars wonder that many of the idioms in the Lalitavistara are not, Sanskrit, bul Pali. But I suspect it is not Pali, but the mixed language, for what do we find the condition of Saddharmapundarika? We know it is Sanskrit prose with verses in mixed language. But from the Central Asian desert come, from under the sand, leaves of Saddharmapundarika wholly in mixed language. Books continued to be written in that language, for after the compilation of the Sata-sahasrikā Prajñāpāramită in the 4" or the 5 century A.D., we find a book written on that work in the mixed language, entitled, Sala-Sahasrika
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Prajnaparamila-ratna guna-sarcaya-găthă following closely the chapters of the Sanskrit work. The Mahayana was a great religion; it had a large following in India. Though much of its literature is written in Sanskrit, the popular works were written in the mixed language, and the mixed language has profoundly influenced the languages of Eastern India, but scholars have rarely, if ever. taken cognizance of this influence.
The other party in the schism of Vaisālī was the Theravādins. They seem to have stuck to the ever-changing vernacular. The oldest work so far extent, is the Thera-theri-găthā. This contains the gathas written by the old followers of Buddha, and their followers, Chronologically the last therīwhose gatha is recorded in that anthology belonged to the reign of Vindusāra, the father of Asoka. It has many peculiar forms, in fact most of the vikalpas or optional forms given in the Pali grammars belong to these găthảs. They have been modernized, but modernization is difficult in poetry and especially in those pieces which were almost in everybody's mouth. So in these găthas we may have more than a peep into the structure of the language of the 5th and the 4" centuries before Christ. We have another genuine relic of the language of Asoka's time in the Kathāvatthu composed under orders of the third Samgiti held in the 17th year of Asoka's reign. The language goes under the name of Pali. It is not known how far it has been modernized. But still an examination of the structure of the language is likely to give us much information about the language of that time. And it would be exceedingly interesting if a scholar undertakes to give us the results of the comparative study of this work and the inscriptions of Asoka in so far as the language is concerned.
The next important relic of language is the Häthigumpha Inscription. Some great scholars have pronounced it to be nearer to Pali than the Asoka Inscriptions. Dr. Hoernle, in his preface to the Prakrit grammar of Canda thinks that Canda's grammar formulates rules for a language, which is very near Pali.
The modern theory about Pali is that it is the official language of Magadha as transplanted in the capital of the Andhras. This however, requires verification. But if it is true, Pali must be a more recent language than that of the Asoka Inscriptions, and the extensive literature it embodies must have the modernized forms of many ancient works. The oldest work of the Buddhists according to Kern is the Mahaparinibbanasutta. This is very natural. The Nirvana of Buddha produced a deep sensation among his followers and that sensation should find an early expression. But it is available only in the Pali form, and if the above theory is truc, - modernized in the 6th century of the Buddhist Era.
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Having finished as rapid a survey of the ancient languages of India as time permitted, I have to draw your attention to a statement in Dandin's Kāvyādarśa. There, he speaks of four languages, Samskṛta, Prākṛta, Apabhramsa and Miśra. This is not an enumeration, but I believe, a classification of languages under four heads. Sanskrit we know, - it does not require an explanation. But its subsequent history is interesting. After the composition of the Mahābhāṣya Sanskrit was confined to the Brahmins and the Brahminists. The Brahmins took great pains to make their language conform to the rules of Panini and Patanjali apāṇiniya and bhāṣyaviruddha expressions became a taboo. But they could not maintain this purity for a long time. The Buddhists began to change their mixed language into a sort of Sanskrit, which was definitely and distinctively apāṇiniya and bhasyaviruddha. There arose a sect among the Jainas, the Digāmbaras who also wrote in Sanskrit without studying Panini and the Mahābhāṣya. Many Brahminists also found it difficult to master all the niceties of the Panini School. Sanskrit began to take its leaven from the vernaculars. All this resulted in the 4th and the 5th centuries A.D. in the disappearance of the Mahābhāṣya altogether. Bhartṛhari in the 7th century speaks of the difficulty with which his Guru procured a copy of the Mahabhaṣya from the south. But from this time, the table was turned against the Brahmins. Buddhists began to write commentaries on Panini. They wanted to revive the study of Pāṇini sūtras and discard Katyayana and Patanjali. Thus was the Käsikā, a commentary on the sutras of Pāṇini written by two Buddhists, Vamana and Jayaditya. The commentary in its turn was commented upon by Jinendrabuddhi in what is called Käsikävrttipañjikā or the Nyāsa. Maitreya Rakṣita, another Buddhist wrote the Tantrapradipa, and last of all, when Lakṣmaṇasena, the last Hindu King of Bengal, wanted to revive Sanskrit learning he employed a Buddhist scholar for the work of compiling a Sanskrit grammar without the Vedic forms. He is Purusottama, the author of Bhaṣāvṛtti.
The Sistas of Patanjali who spoke in Sanskrit, gradually, as time passed on, dwindled and dwindled till in the 7th and the 8th centuries A.D. Sanskrit was no longer a spoken language. The accents, the emblem of a spoken language. The accents, the emblem of a spoken language ceased to interest grammarians, and the study of the Vedas, though revived by Kumārila in the 8th century, could not revive the science of pronunciation, and Sanskrit grammars written after that time have discarded the Vedic and the Svaras. The various schools of grammar now current do not even take a complete survey of the classical language. Their aims seem to be to
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make rules for literature current in their times, and also to legalize forms taken from the vernaculars and forms nol sanctioned by Pānini and the Bhasvakara. Altempts were sometimes made to revive the study of the Bhasya notably by Kaivata in the 10th century in Kasmir, and Bhattoji Diks 17" at Benares. But the bulk of the commentaries and sub-commentaries was a stumbling block to their success.
But what in Prakrit? - Nobody given as a definition. There is a description however Prakrtih Samskrtam -- that is, a direct descendent of Sanskrit. The Bharata Nätvasāstra uses the term in the case of Patha or mode of recitation or pronunciation. What we call Prakrits, Mahārastri
seni, etc., he calls Bhāsās: some he calls Vibhāsās olhers again. as barbarian tongue not to be used in dramas.
There are so many Prakrits. The dramatic Prakrits, 18 in number. are Prakrits. The Jaina Prakrits are Prakrits; Pali is a Prakrit. The Asoka Inscriptions are called Prakrit and even modern vernaculars are called Prakrits. Vanamāli Das Translating the Gitagovinda in Bengali at Pancānanlala in Calcutta, in the year 1731 says, that he is translating it in Prakrit, -- and the Pandits even now call the Bengali vernacular, a Prakrit. So Prakrit is a very vague word.
Prakril, as we know it, is not even a direct descendent of Sanskrit, for Sauraseni is known as a Prakrit, but Vararuci in his Präkrta Prakās distinctly says that it is descendent of Mahārastri. Paišācī we know to be a Prakril. but he says. its Prakrti is Sauraseni. --- and we Paisā ci is remotely descended from Sanskrit. The names of different Prakrit are not always the same, and their number differs with different authors. Bharala Nätvasástra does not speak of Mahārastri. He speaks of Daksinātya in its stead. It would be an endless task to give the different enumerations and the different names. The last great writer of Prakril grammar is Markandeya whose Prákrlasarvasva enumerates dialects not known to previous authors. Scientific accuracy would require the dropping of the word, "Prakrta'' altogether, and to name cach dialect by the country and the century. Thus Karpurmanjari should be described as written in the vernacular of Kanauj in the 9th century A.D.; Asoka Inscriptions in the language of Magadha in the 3'' century B.C., and so on.
The word Apabhramsa is another term of indefinite import. Nobody defines it, yet it is in everybody's mouth. What is Apabhramsain one cenlury becomes a Prakrit in a subsequent century. For instance, Dandin calls Gunädhya's Vrhatkatha Apabhramsa, but later on, it is called Paišāci. But
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what is an Apabhramsa ? It is with the greatest difficulty that I found a definition or rather a definite description in a Hindi work of the early part of the last century. Krsnasimha, the bard of Bundi, the author of Vamsa Bhaskara, in the first chapter of his work, described the languages in which books are written. Apabhramsa is one of these languages and he says it is a language in which the inflexions are discarded. If that be the definition of Apabhramsa, then the vernaculars of the present day which have lost their agglutinative character, are all Apabhramsas. It is a convenient word for those, who are unable to fix a dialect in time and place. This also is a word which should go out of use, and should be replaced so far as possible by the name of the country and of the century.
Dandin's Misrabhâsä has not been defined. It still, is a puzzle, for in describing Sanskrit and Prakrit and Apabhramsa, he is very definite. He gives the name of some works in these languages. But in attempting to give an example of Misrabhasă, he says, Misrāntu Nataka dikam. The Natakas, so far known are in Sanskrit and Prakrit. Some characters speaking Sanskrit and some Prakrit. It is rather a form of literature and not of language. So he has not succeeded in giving an example. Perhaps Dandin took the classification from an ancient work, which he has not been able to explain properly. I suspect that the Nāļakas, acted for the delectation of all classes of people, were at one time, written in the mixed language, which was within the comprehension of all; but that, that form of drama gradually disappeared with the mixed language and made room for the present form of dramas in Sanskrit and Prakrit. The only remnant of a drama in the mixed language is perhaps the Sariputra drama recently discovered in the desert of Central Asia, though in fragments. Dandin was perhaps not aware of the mixed language in which Mahāsamghika works were written.
I believe you have all secn the Kheplā jāla, the fishing net of Bengal that is swung over the head and cast inlo the ponds. It has one knot, which remains in the hand of the fisherman and strings radiate from it on all directions in the form of warps and they are met at intervals with parallel strings in the form of woofs. Al the points of intersection there are knots. That is the case with the Indian languages. The central knot may be compared to the Vedic language from which all Indian languages are derived. These languages drift farther and farther from the central language in the course of centuries in different places -- they are the strings that issue from the central knot. The parallel woofs are the changes in society. Now, whenever there is a momentous change in society, it is reflected in a corresponding
the language, and very often a literature is the result. The
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literatures are the knots at the points of intersection. It is only through these literatures that we are able to detect the effects of a change in society on the language. Indian languages, as I have told you in the beginning are a vast field for study and research. Their importance has not yet come home to our scholars. But it is a great study and a number of men should devote themselves to it for years before we can arrive at sure conclusions. But thanks to our ancestors, --- they often made strenuous efforts to unravel the mystery of languages, and have left most valuable results unparalleled in the history of languages of other countries. Let us all take advantage of these important results and proceed slowly but surely with single-hearted devotion to find out the truth and nothing but the truth in the mystery of languages.
Want of time prevents me from speaking more fully about the later forms of languages, especially the most fascinating subject of the beginning of vernaculars, – of works like Dhyanesvarīin the Marathi, Chocubhatta's work on the Bagdavats in Hindi, and the Buddhist songs and Dohásin Bengali and so on. But yet I have another duty to discharge. I have to speak a few words on Sanskrit literature and on the Prakrit literature. The number of works on these literatures may be described in the words of the Buddhist bards as Gangānadīvālukopama. A comprehensive survey is impossible. I will louch only those subjects in which European scholars admit that we achieved great results, viz. Philosophy, Grammar and Poetry. But before I take up these three, I think it my bounden duty to protest against the attempt made in certain quarters to deprive the Indians of the credit of the discovery of the decimal system of notation. We had indeed, a complete system of letter numerals. Out manuscripts and our inscriptions are all dated and paged in letter numerals. But still we have undoubted proofs both in Brahminic and Buddhist literature of the use of decimal system of notation very carly. In Abhidharmakosavyakhyå it is stated that one gulik, or figure acquires different values when placed in different positions. The same idea is also expressed in the Vyasabhāsva of the Patañjalisütras. So it can be confidently asserted that the Indians knew the decimal system at least in the early centuries of the Christian Era.
Our Philosophy began with the enumeration of philosophical ideas by numbers. Very early -- in the latter days of the Vedic period -- it gradually developed into a system of comparison in the Vaiścsika, the central point of which was the finding out similarities and differences, i.e. comparison. From comparison we rose to classification. From classification, the next step was Kathā or Controversy. Various systems of carrying on controversy
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were tried, leading at last to the syllogistic system in the Gautama sūtras. Attempts have been made to show that Gotama borrowed the idea from Aristotle. I am not a Greek scholar and cannot say how Aristotle arrived at his syllogisms; but Gotama had to work upon pre-existing system. There was a time when ten elements were required in a syllogism. Gradually they were discarded one after another and Gotama believed in five. Some of his successors were ready to discard the first two of these and make the clements three only. This they say is Aristotle's syllogism. If it is so, the Indians arrived at it by a process which is all their own. But the Indians were not satisfied with this, so to say, mechanical form. Their originality lay in the investigation of the relation between the middle term and the minor term, and the middle term and the major term, Pakṣadharmatā and Vyapti and in defining these two terms, the Hindu and Buddhist logicians have displayed an accuracy and boldness of speculation which excite the admiration of all thinking men. For centuries they speculated on the definition of Vyapti. They rejected fourteen definitions before they arrived at a conclusion, the Siddhantalaksana. Their attempt to have a definition of fallacy also gave rise to infinite speculations. The relation of words and their meaning the relation of inflexions with their bases were also investigated with great power of discernment. In the analysis of sentences they were not satisfied with a mechanical form or a tabular statement. Some made the verb to be the chief thing in a sentence others again the nominative: and it is both interesting and amusing to hear the professors of these two schools of analysis discoursing at the ghats of Benares in an evening to prove that his opponent was in the wrong. So far with Logic. In Metaphysics our ancestors divided themselves into various schools each having a number of great men as their professors. Their chief point was the emancipation of the soul. There was no dispute about that point, but the processes of emancipation are widely divergent. One school believes that the soul after emancipation remains absolute - all relations ceasing. Others again say that is impossible; if the soul remains it must remain in relations. What is emancipation, then, according to these? Sunya, Void. It is, however, not a negation of existence; it is a state beyond our comprehension, - it transcends our power of comprehension. Then comes another school, which asks whether that state beyond our comprehension is positive or negative. One says, positive, another negative. I think we should not go beyond. When things are beyond our comprehension we should stop here. But we cannot help admiring the boldness and subtlety of their speculations.
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In grammar the Indians excelled in the matter of classification of words. In Śrauta times words were divided into four classes Nama. Äkhyāta, Upasarga and Nipāṭa. Nouns, Verbs. Prefixes and Particles. But Panini was not satisfied with this classification. He replaced it by one of his own into Subanta and Tinanta, those that take the declensional and those that take conjugational inflexions. But in doing so he was obliged to have recourse to a fiction, in so far as to say that the particles take inflexions but drop them. Max Muller rails at him that he would rather have recourse to a fiction than made his classification incomplete. There can be not the least shadow of a doubt that Panini's classification leads to clearness and accuracy.
There is another point in which the Indian Grammar is in advance of grammars of other countries. It makes a distinction between Käraka and Vibhakti, i.c. between the relation of words in a sentence and the grammatical inflexions. This is not to be found in any other language.
The Indian idea of grammar also is very distinct. It means derivation of words. How words are formed, and nothing beyond it. Words are formed from rools; from words are formed other words and verbal roots again; from verbs also are formed other verbs and words. Sanskrit Grammar concerns itself with this cross production of words. It does not care for pronunciation, prosody, punctuation and very little for idioms. For all these there are different sciences and I have told you before that the investigation of relation between words in a sentence and of the terminations with their bases have been relegated to the province of logic.
Indian grammarians have done an excellent service to the science of language by writing two different classes of grammar for the Prakrit languages. One class presupposes a thorough knowledge of Sanskrit grammar, and concerns itself chiefly with the change of letters how compound letters are softened down to single ones, how hard aspirates are changed into soft ones, how semivowels are split up into their elements and so on. They had a thorough grasp of the principle of phonetic decay in languages. The other class wrote grammar for those who had no knowledge of Sanskrit grammar. They too have done a great service by showing in what respects they differ from Sanskrit - how far they are indebted to it and how far they are not. These Prakrit grammarians in fact laid the foundation of what developed in the last century in the science of languages.
It goes without saying that Indian drama is co-eval with Aryan migration into India. The dramatic tradition goes back to the wars of the तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2002
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gods and the demons. Națasūtra or dramalurgy presupposes the existence of dramas and our works on dramaturgy are pre Paninean. That disposes of the question of the indebtedness of the Indian drama to the Greeks. The Grecks held their dramatic shows in the open, but the Indians had three different kinds of buildings for such purposes, - the paraboloid, the rectangular and the triangular (equilateral). The Greeks had no scenes but the Indians had scenes painted on the walls of the stage. The Grecks insisted on the three Unities throughout the drama. The Indians observed the restriction only within an Act. Parls of the story not required for dramatic purposes but for understanding the plot were recited by the chorus in Grecian dramas but in India they were parts of the drama, but not of the Act; so the main action of the drama was not interfered with. These were called Karyvopaksepa and were enacted either before or after an Act. This is certainly much better than the Chorus. The Indian drama like the Greek look in not only terrestrial but even celestial beings and demi-gods. Indecorous and violent scenes were never a part of the Indian drama; and the higher class drama avoided outbursts of feeling and lengthy display of sentiment. It always tried to limit the expression of feelings by the requirement of art. But in creating situations for the expression of feeling, for stirring the very depth of the human heart, for conjuring up beautiful images and loveliest and most enchanting scenes Indian drama yields its palm to none.
The Epics of India are divided into two classes, the popular and the artistic. The popular Epics are for the amusement and instruction of the people in general. They are couched in simple language and are full of human interest. But they do not much care for art. They are therefore regarded by connoisseurs as rather radious. But the artistic Epic is written purposely for the delectation of the connoisseurs. It would circumscribe everything by art and would not allow anything to exceed the limits. There are some crilics who would call this artificial poetry but to daub Meghaduta or Raghuvamsa as artificial poetry; would be a violence of language. In no sense is this poetry artificial. It is as natural as Nature itself. The poets seem to be afraid of only one thing -- that they may not be regarded as tedious. They always try to make their description of natural scenes or the feelings of the human heart as short as possible. But within that short compass they would either describe or suggest all that is worth enjoying, all that a good and all that is beautiful — leaving nothing unsaid that is worth saying and incorporating nothing that is not worth saying. The canon of criticism that controls Indian poetry seeks to elevate the moral tone of society by first
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softening: the mind and then implanting moral truths. Indian poetry docs not command, does and teach does not preach, does not give friendly advice, but show us all that is good, all that is noble and all that is virtuous, in such a graphic and telling way that our minds are unconsciously mollified to love nobleness and virtue for their own sake.
Of popular poetry the highest and the noblest is the Rāmāyana and the influence it exerts on the character of Indians is enormous; everyone wants that he should live like Rāma. And this influence is perceptible in every Hindu household, and the enormous good that it has done cannot be exaggerated. It has made Hindus what they are, -- a mild, god-fearing, truthful, law-abiding and honest race of men.
The artistic Epic does not appeal to the people in general, but to the cultured society, with the same result. Nay more -it makes them more gentlemanly, more cultured and more refined, it makes them conscious of their limitations and always kecps them within the bounds of propricty. In creating beauty the artistic poctry is more effective than the popular and the beauty is always elevating always mollifying and always inspiring,
Prakrit poetry is all religious or didactic. But some of the anthologies are full of exquisite sentiments and beautiful images. Creative fancy it has none. Some of its verses have become proverbial. That is all that can be said about Prakrit poetry in a short address like this. But its extent is very great and I believe it is an altogether unexplored field of work.
But Sanskrit language and literature, Prakrit language and literature in all their varied aspects deserve greater attention, greater energy and persistency than is given to it at the present moment. The whole history of the Indian races is buried both in these languages and these literatures, and if that history is to be recovered, if we want to know what we are, then these are our only means to achieve that result. But we have neglected them. Time has come that we make atonement for this neglect or we would be swept away by disruptive influences from the West.
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Jain Vishva Bharati Institute
Deemed University is going to organise an International Seminar
On Anekant: A Dialogue of Human Concerns
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From: 6 December to 8 December, 2002
At: Pratap Vilas Palace, Vadodara (Gujarat)
In auspicious presence of Anusasta Acharya Maha Prajna
Sub-themes of the Seminar are:
1. Anekant Philosophical Perspectives
2. Anekant A Blue print for Ahimsa and Peace
3. Anekant: The Spirit of Religion Co-existence
4. Anekant: The value base of Science
5. Anekant Importance and Applications
Nearly 50 well-known scholars from India and abroad are going to participate in the Seminar.
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________________ Postal Department : NUR 08 R.N.I.No.28340/75 य:स्याद्वादी वचनसमये योप्यनेकान्तदृष्टिः श्रद्धाकाले चरणविषये यश्च चारित्रनिष्ठः। ज्ञानी ध्यानी प्रवचनपटुः कर्मयोगी तपस्वी, नानारूपो भवतु शरणं वर्धमानो जिनेन्द्रः / / जो बोलने के समय स्याद्वादी, श्रद्धाकाल में अनेकान्तदर्शी, आचरण की भूमिका में चरित्रनिष्ठ, प्रवृत्तिकाल में ज्ञानी, निवृत्तिकाल में ध्यानी, बाह्य के प्रति कर्मयोगी और अन्तर् के प्रति तपस्वी है, वह नानारूपधर भगवान् वर्द्धमान मेरे लिए शरण हो। हार्दिक शुभकामनाओं सहितएम.जी. सरावगी फाऊण्डेशन (महादेव लाल गंगादेवी सरावगी फाउण्डेशन) 41/1 सी, झावुतल्ला रोड़, कोलकता- 700 019 प्रकाशक - सम्पादक - डॉ. मुमुक्षु शान्ता जैन द्वारा जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं के लिए प्रकाशित एवं जयपुर प्रिण्टर्स, जयपुर द्वारा मुद्रित