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उद्भावना है। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने एकाग्र भूमि के ही दो स्तर माने हैं: (स्थिर मन ) और 2. सुलीन (सुस्थिर मन ) ।
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3. महर्षि पतञ्जलि'" ने चित्तवृत्तियों के निरोध का साधन जहाँ अभ्यास और वैराग्य बतलाया है वहीं जैनाचार्यो ने ज्ञान और वैराग्य । आचार्यश्री तुलसी 23 ने ज्ञान-वैराग्य के साधन के रूप में श्रद्धाप्रकर्ष, शिथिलीकरण, संकल्प -निरोध, ध्यान, गुरुपदेश और प्रयत्न की बहुलता का निरूपण किया है।
1. श्रिष्ट
4. मन को नियंत्रित करने की प्रक्रिया में ध्यान को विशेष महत्त्व देते हुए आचार्यश्री ने अपने तीसरे प्रकरण का विषय ध्यान की सामग्री को बनाया है। ध्यान की परिभाषा मन को आलम्बन पर टिकाना अथवा योग का निरोध करना ही है।” साधना में मन लगा रहे, इसलिये इन्द्रिय तप को आधार बनाकर एकाग्र सन्निवेष की सामग्री के रूप में ऊनोदरिका, रस परित्याग, उपवास, स्थान, मौन प्रतिसंलीनता, भावना, व्युत्सर्ग आदि का समावेश कर दिया गया है । यह आचार्यश्री की अपनी स्वयं की उद्भावना है। इतना ही नहीं, उन्होंने स्थान (आसन) को भी तीन भागों में विभक्त किया है – ऊर्ध्व, निषीदन एवं शयन के रूप में और इन्हीं के अन्तर्गत योगवर्णित आसनों का वर्णन किया है।
5. इसी प्रकरण में ध्यान की समग्र सामग्रियों की परिभाषा एवं उसकी उपयोगिता प्रतिपादित की है। इसी क्रम में प्रतिसंलीनता का विवेचन किया है जो योग के प्रत्याहार के समकक्ष प्रतीत होती है। जो जैन योग का अपना पारिभाषिक शब्द है, जिसका भाव है अशुभ प्रवृत्तियों से शरीर, इन्द्रिय तथा मन का संकोच करना। दूसरे शब्दों में स्व को अप्रशस्त से हटा प्रशस्त की ओर प्रयाण करवाना। इसके चार भेद हैं 26. 1. इन्द्रियप्रतिसंलीनता, 2. मन - प्रतिसंलीनता, 3. कषाय- प्रतिसंलीनता और 4. उपकरण प्रतिसंलीनता । आचार्य श्री तुलसी ने " इन्द्रिय-कषायनिग्रहो - विविक्तवासश्च प्रतिसंलीनता ''27 - लक्षण किया है जिसके अनुसार तीन रूप हैं। मन का अन्तर्भाव इन्द्रिय में कर दिया और उपकरण को विविक्तवास का ही रूप माना है । इन्द्रिय निग्रह के उपाय के रूप में द्वादश भावना और मैत्री- प्रमोद-करुणा-माध्यस्थ आदि चार भावना का, 29 कषाय निग्रह के लिये व्युत्सर्ग का निरूपण किया गया है। द्वादश भावना और व्युत्सर्ग जैन धर्म की अपनी विशेषता है । व्युत्सर्ग का आचार्यश्री ने विशेष विवेचन किया है ।
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6. चतुर्थ प्रकरण में ध्याता, ध्यान स्थल, ध्यान के भेद, धारणा, प्रेक्षा का विवेचन किया गया है। जहाँ पिण्डस्थ ध्यान के अन्तर्गत आचार्य हेमचन्द्र", शुभचन्द्र” और श्री नागसेन मुनि ने धारणा के पार्थिवी, आग्नेयी, मारुति, वारुणी और तात्त्विकी (तत्त्वभू) के भेद से पाँच प्रकार माने, वही आचार्यश्री ने धारणा के चार प्रकार ही माने ।4 धारणा के बाद समाधि का विवेचन भी आचार्यश्री ने इसी प्रकरण में कर दिया और लेश्या से अभिन्न बताया है।
तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2002
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