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________________ मारो' यह कहना भी व्यवहार संगत नहीं होता । इस अवस्था में अहिंसक के लिए मौन रहना ही श्रेय होता है ।" सूत्रकृतांग में अन्त:करण की निर्मलता के सम्बंध में लिखा हैदीसंति णिहुअप्पाणो, भिक्खुणो साहुजीविणो । एए मिच्छोवजीवो त्ति, इति दिट्ठि ण धारए | 24 अर्थात् संयत आत्मा वाले साधु जीवी भिक्षु दिखाई देते हैं । फिर भी ये मिथ्याजीवी हैं ऐसी दृष्टि धारण न करे। इसी के पाद टिप्पण में लिखा है- -सामान्यतः व्यक्ति अपने से इतर दर्शनावलंबी को विशुद्ध मानने के लिए तैयार नहीं होता । अनेकांत का दर्शन है - अपने शास्त्रों के अनुसार साधु-जीवन जीने वाले, सद् अनुष्ठानों का समाचरण करने वाले और जो युगान्तरमात्र दृष्टि पालन करने वाले, पानी को छानकर पीने वाले, मौन का आचरण करने वाले, नग्न रहने वाले, एकान्त में ध्यान करने वाले, भिक्षा पात्र से जीवन निर्वाह करने वाले साधु-जीवी किसी के उपरोध पर नहीं जीने वाले, शांत, दान्त और जितेन्द्रिय होते हैं। कुतूहल तथा अट्टहास का वर्जन करने वाले होते हैं, उनको मिथ्याजीवी कहना वाणी का असंयम है। वे संन्यासी चाहे स्वयूधिक हों या अन्ययूथिक, उनके विषय में ये बेचारे बाल तपस्वी हैं, सब कुछ मिथ्या आचरण और लोक-विरुद्ध व्यवहार करते हैं - ऐसा नहीं कहना चाहिए। यदि ऐसा कहा जाता है तो जनता भी कहने लग जाती है – ये साधु गुणद्वेषी हैं, ये अकारण ही दूसरों पर रोष करते हैं, इनके कषाय उपशांत नहीं हैं। यथार्थ में देखा जाए तो इतर धर्मावलंबी वैसे साधु भी ग्रैवेयक देवलोक तक के आयुष्य का बंध कर लेते हैं, तो फिर एकान्ततः यह वैसे कहा जा सकता है कि ये निरर्थक ही क्लेश कर रहे हैं । 25 जैन परम्परा में साम्यदृष्टि की प्रधानता है । वह मुख्यतया दो प्रकार से व्यक्त हुई हैआचार में और विचार में। जैनधर्म का बाह्य - आभ्यन्तर, स्थूल सूक्ष्म सब आचार साम्यदृष्टि मूलक अहिंसा के केन्द्र के आस-पास ही निर्मित हुआ है। जिस आचार के द्वारा अहिंसा की रक्षा और पुष्टि न होती हो, ऐसे किसी भी आचार को जैन परम्परा मान्य नहीं करती। विचार साम्यदृष्टि की भावना पर जो भार दिया गया है उसी में से अनेकान्त दृष्टि या विभज्यवाद का जन्म हुआ है। केवल अपनी दृष्टि या विचारसरणि को ही अंतिम सत्य मानकर उस पर आग्रह रखना साम्यदृष्टि के लिए घातक है। इसलिए कहा गया है कि दूसरों की दृष्टि का उतना ही आदर करना चाहिए जितनी अपनी दृष्टि का। यही साम्यदृष्टि अनेकान्तवाद की भूमिका है। 26 वस्तुतः 'अनेकान्तवाद' दुराग्रह का प्रतिरोध प्रस्तुत करता है । विभिन्न विचारधाराओं प्रति वह आदर - भावना को जाग्रत करता है तथा इस प्रकार सम्यक् विवेक-बुद्धि के उन्नयन में सहायक होता है। वह इस बात पर बल देता है कि देश-कालजन्य तथा अन्य परिस्थितियों के कारण सत्य के विविध रूप संभव हैं और दूसरों के मतों में भी सत्य का अंश विद्यमान रहता है। हम सब सत्यग्राही बनें, संवाद करें परन्तु विवादों से बचें। यदि हम दर्शन - आचार और वाक्-आचार का सम्यग् परिपालन करते हैं तो अनेक समस्याओं का निराकरण समाज एवं राष्ट्र में संभव है। इस संदर्भ में सूत्रकृतांग में प्रतिपादित आचार आज भी प्रासंगिक है। तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only 21 www.jainelibrary.org
SR No.524611
Book TitleTulsi Prajna 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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