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________________ * पांचों शरीर एक भी हैं और भिन्न भी हैं। 1 * सर्वत्र शक्ति है भी और सर्वत्र शक्ति नहीं भी है। कार्य-कारणवाद की चर्चा में दो प्रमुख वाद उपलब्ध हैं - सत्कार्यवाद और असत्कार्यवाद। सत्कार्यवाद के अनुसार कारण में कार्य विद्यमान रहता है और असत्कार्यवाद के अनुसार कारण में कार्य होता नहीं । कारण सर्वदा नित्य नहीं है। कार्य भी सर्वदा नित्य नहीं है। कार्य का भी एकान्ततः प्रक्षय नहीं होता। इस दृष्टि से यह जगत् 'ऐसा नहीं था' ऐसी बात नहीं है। इस आधार पर व्यवहार स्वयं प्रवृत्त है। इसका किसी ने प्रवर्तन नहीं किया है। किसी व्यक्ति को व्यवहार का प्रवर्तक मानने पर अनवस्थादोष घटित होता है। यह जगत् व्यवहारशून्य नहीं है। व्यवहार के द्वारा प्रतिवस्तु में अवस्थित अस्तित्व का दर्शन या व्यवहरण किया जाता है। व्यवहार भेदात्मक या विभागात्मक दृष्टिकोण है। उसके द्वारा वस्तु की व्यवस्था होती है अथवा प्रत्येक वस्तु में विद्यमान विशेषता या भेद को समझा जा सकता है। एकान्त शाश्वतवाद और एकान्त अशाश्वतवाद के द्वारा प्रसिद्ध व्यवहारों की व्याख्या नही की जा सकती ।" संसार में छोटे-बड़े दोनों प्रकार के प्राणी हैं। कुंथु आदि बहुत छोटे शरीर वाले प्राणी हैं और हाथी आदि बहुत बड़े शरीर वाले प्राणी हैं। इस विषय में प्रश्न पूछा जाता है कि छोटे और बड़े जीवों को मारने में कर्मबंध समान होगा या भिन्न-भिन्न प्रकार का होगा ? ―― इस विषय में इस प्रकार का निर्देश है कि अहिंसा की समीक्षा करने वाला अवक्तव्यवाद का प्रयोग करें। चूर्णिकार ने इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार दिया है. -यदि छोटे और बड़ेदोनों प्रकार के जीवों के बंध में कर्मबंध एक जैसा बतलाया जाए तो बड़े जीवों की हिंसा को प्रोत्साहन मिलता है और यदि भिन्न प्रकार का बतलाया जाये तो छोटे जीवों की हिंसा करने में उन्मुक्तता का समर्थन होता है। इसलिए इस विषय में समान या असमान कर्मबंध कहना धर्मसंकट है । सूत्रकृतांग में लिखा है T 20 I इसी श्लोक के पाद टिप्पण में लिखा है – अहिंसा के क्षेत्र में कुछ समस्याएं होती हैं जीवन का व्यवहार बहुत जटिल है, इसलिए अहिंसक को कहीं वक्तव्य और अवक्तव्य, कहीं वचन और कहीं मौन का सहारा लेना पड़ता है। सब समस्याओं को एक ही प्रकार से समाहित नहीं किया जा सकता। 'प्राणी बध्य है' अहिंसक को ऐसा नहीं कहना चाहिए। किंतु किसी समस्या के संदर्भ में यह अबध्य है. - यह कहना भी व्यवहार संगत नहीं होता, इसलिए उसे मौन रहना होता है। कोई व्यक्ति सिंह आदि हिंस्र पशुओं को मारने का विचार कर मुनि के पास आता है और पूछता है कि- मैं इन्हें मारूं या न मारूं ? ' उन्हें मारो' ऐसा कहा ही नहीं जा सकता और हिंस्र पशु अनेक पशुओं को मार रहे हैं, उपद्रव कर रहे हैं, इसलिए 'मत - तुलसी प्रज्ञा अंक 116 117 असेसं अक्खयं वादि, सव्वं दुक्खे ति वा पुणो । वज्झा पाणा अवज्झ त्ति, इति वायं ण णीसरे ॥2 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524611
Book TitleTulsi Prajna 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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