SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भारयुक्त एवं भारहीन दोनों प्रकार का होता है । चतुःस्पर्शी तक के पुदगल स्कन्ध भारहीन तथा अष्टस्पर्शी भारयुक्त होते हैं । जैन दार्शनिक साहित्य में अगुरुलघु पर्यव, अगुरुलघु सामान्य गुण-इनका उल्लेख है। शब्द एक जैसे होने पर भी तात्पर्य में विभेद परिलक्षित है। लोक एवं अलोक के परिमाण के संदर्भ में भी भगवती में विस्तार से वर्णन हुआ है।" भगवान् महावीर ने भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा में प्रचलित आचार विषयक अवधारणाओं में संशोधन परिवर्धन किया था। किंतु तत्त्व-विवेचन पार्श्वनाथ की परम्परा जैसा ही था। यह विद्वानों का अभिमत है। भगवती में प्राप्त लोक का विवेचन इसी अभिमत की पुष्टि कर रहा है। पार्श्वनाथ के शिष्य भगवान महावीर के पास आकर लोक के सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रस्तुत करते हैं। भगवान् महावीर भगवान् पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिपादित कहकर लोक सम्बन्धी उनकी जिज्ञासा का समाधान करते हैं। इससे फलित होता है कि भगवान् पार्श्व एवं भगवान् महावीर की लोक सम्बन्धी अवधारणा समान थी। लोक की अवस्थिति यह दृश्यमान जगत् किस पर ठहरा हुआ है ? पुराणों में शेषनाग कच्छप आदि पर विश्व अवस्थित है, ऐसी विभिन्न अवधारणाएं हैं। जैन दर्शन ने भी इस समस्या पर विचार किया है। जैन दर्शन के अनुसार लोक स्थिति के आठ प्रकार हैं 1. वायु आकाश पर स्थित है। 2. समुद्र वायु पर अवस्थित है। 3. पृथ्वी समुद्र पर स्थित है। 4. बस-स्थावर जीव पृथ्वी पर स्थित है। 5. अजीव जीव पर प्रतिष्ठित हैं। 6. जीव कर्म से प्रतिष्ठित हैं। 7. अजीव जीव के द्वारा संगृहीत हैं। 8. जीव कर्म के द्वारा संगृहीत हैं। आकाश स्व-प्रतिष्ठित है, इसलिए उसका किसी पर प्रतिष्ठित होने का उल्लेख नहीं है। आकाश, वायु, जल और पृथ्वी-.ये विश्व के आधारभूत अंग हैं। विश्व की व्यवस्था इन्हीं के आधार-आधेय भाव से बनी हुई है । संसारी जीव और अजीव (पुद्गल) में आधारआधेय और संग्राह्य-संग्राहक भाव ये दोनों हैं । जीव आधार है और शरीर उसका आधेय । कर्म संसारी जीव का आधार और संसारी जीव उसका आधेय है। जीव, अजीव (भाषा वर्गणा, मन वर्गणा और शरीर वर्गणा) का संग्राहक है। कर्म संसारी जीव का संग्राहक है। ........जीव और पुद्गल के सिवाय दूसरे द्रव्यों में आपस में तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2002 ............_ ....... 9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524611
Book TitleTulsi Prajna 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy